....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ..
यूं तो मानवीय लिप्सा ही प्रत्येक बुराई , अनैतिकता का मूल होती है | जब -"एक मछली सारे तालाब को गंदा करदेती है" -जैसी कहावत के अनुसार अधिकांश जन , जन समुदाय इस लिप्सा में सम्मिलित होजाता है तो वह भ्रष्ट आचरण समाज में समाहित होजाता है | धीरे धीरे वह एक नवीन अप-संस्कृति की स्थिति प्राप्त करने लगता है और उस समाज, देश , राष्ट्र की सु-संस्कृति का अध:पतन होने लगता है | इसीके साथ पुरातन संस्कृति के वाहक सत-साहित्य का धीरे धीरे महत्त्व कम होने लगता है---"-जिमि पाखण्ड विवाद तैं लुप्त होंय सदग्रंथ " और हास्य-व्यंग्य, चुटुकुले, स्थानीय-वर्णन, स्थानीय-समस्याओं , दैनिक समाचारों युक्त, दैनिक कलापों ,व्यक्ति- प्रशंसा युक्त व अश्लील अप-साहित्य प्रश्रय पाने लगता है जो पुनः एक चक्रीय क्रम में भ्रष्ट-आचरण , अनैतिकता व भ्रष्टाचार को जन्म देता है |
आज वही स्थिति है | टीवी , रेडियो, समाचार पत्र, इंटरनेट, ब्लोग्स, बेव साइट्स जहां भी देखिये ...मूर्खतापूर्ण , भौंडे हास्य वाले, व्यर्थ की कचहरियाँ , करोड़पति, डांस-डांस जैसे अनावश्यक दृश्य-श्रव्य व पठित साहित्य की भरमार है | राम , कृष्ण आदि के सीरियल अदि भी उल-जुलूल कल्पित कथानकों सहित पेश किये जारहे हैं , जो अनास्था, अश्रृद्धा के साथ अप-संस्कृति को बढ़ावा देते हैं| कविता भी समाचार की भाँति दैनिक समाचारों से युक्त बिना किसी सामाधान के परोसी जारही है | सत्साहित्य कहीं लिखा ही नहीं जारहा है , कहाजाता है कि धर्म, समाज, दर्शन आदि पर बहुत लिखा जाचुका अब क्या लिखना है | समाज में यह होरहा है, वह होरहा है आदि बताया/गाया जारहा है, वही लूटमार, दंगे, फसाद, करुणा, भावुकता उत्पन्न करने बाली कथाये , कहानियां, कवितायें ; क्या व क्यों होना चाहिए वह सत्साहित्य रचा ही नहीं जारहा | स्व-भाषा, स्व -संस्कृति, स्व-देशी बातें पुरातनपंथी कही जारही हैं | विदेशी रहन सहन, चल-चलन, खान-पान के अपनाने से और अधिक और अधिक धन प्राप्ति/ खर्च की लालसा भ्रष्टाचार का कारण बनरही है | आज स्व-भाषा हिन्दी की अपेक्षा प्रकाशक गण अंगरेजी की या कोर्स की, कुंजी, सरकारी पुस्तकें आदि छपने व प्रकाशन को अधिक महत्त्व देरहे हैं , सिर्फ मोटी कमाई की खातिर | सत्साहित्य , काव्य-ग्रन्थ, आदि कोइ भी प्रकाशित करने में रूचि नहीं दिखा रहा | इस प्रकार विदेशी संस्कृति, विदेशी बाज़ार, विदेशी पूंजी के खुले बाज़ार व मुक्त हस्त आमद-प्रभाव से अनाचार, भ्रष्ट-आचरण को अधिकाधिक प्रश्रय मिलता जारहा है |
संस्कृति व सांस्कृतिक एवं सामाजिक/ पारिवारिक आयोजनों के नाम पर भी तमाम ताम-झाम वाले खर्चीले आयोजन, दिखावा, पार्टियां , दावतें , अनावश्यक सजावटें आदि में धन-बल का मनमाना दिखावा बंद होना चाहिए | ये सभी भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करते हैं |
3 टिप्पणियां:
सांस्कृतिक संदर्भों को धन कमाने का माध्यम न बनाया जाये।
नवीन अप-संस्कृति की सटीक व्याख्या की है.मैं आपसे पुर्णतः सहमत हूँ ..बड़ी बातों के लिए हल्ला मचाया जाता है और छोटी-छोटी गलतियों को निजि हित के लिए हम ही बढ़ावा देते हैं ..सार्थक पोस्ट ....शुभकामना
एक दम सटीक कहा पान्डे जी.... शास्त्रों के अनुसार मनोरन्जन को कमाई का ज़रिया नही बनाया जाना चाहिये ....
---धन्यवाद अम्रता जी --वस्तुतः ही ..निज़-हित ही हर बुराई की जड है...स्वार्थभाव...
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