....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
( श्याम सवैया छंद --छः पंक्तियों का सवैया )
श्रृद्धा जगी उर भक्ति पगी, प्रभु रीति सुहाई जो निज मन मांहीं |
कान्हा की बंसी मन में बजी, सुख आनंद रीति सजी मन माहीं |
राधा की मथुरा बुलाने लगी, मन मीत बसें उर प्रीति सुहाई |
देखें चलें कहूँ कुञ्ज कुटीर में, बैठे मिलें कान्हा, राधिका पांही |
उर प्रीति उमंग भरे मन मांहि, चले मथुरा की सुन्दर छाहीं |
देखिकें मथुरा की दीन दशा, मन भाव भरे अँखियाँ भरि आईं ||
ऐसी बेहाल सी गलियाँ परीं, दोऊ लोचन नीर कपोल पै आये |
तिहूँ लोक ते न्यारी ये पावन भूमि, जन्मे जहँ देवकीलाल सुहाए |
टूटी पडीं सड़कें चहुँ ओर, हैं लता औ पत्ता भरि धूरि नहाए |
गोप कहाँ कहं श्याम सखा, कित गोपी कुञ्ज कतहुं नहीं भाए |
न्यारे से खेल कन्हैया के कित, कहुं गोपिन की पग राह न पाए |
हाय यही मथुरा नगरी, जहां लीलाधर, लीला धरि आये ||
रिक्शा चलाय रहे ब्रज बाल, कित ग्वाल-गुपाल के खेल सुहाए |
गोरस की नदियाँ कित हैं, गली-राहन कीचड नीर बहाए |
कुंकुम केसर धूरि कहाँ, धुंआ डीज़ल कौ चहुँ ओर उडाये |
माखन मिसरी के ढेर कितै, चहुँ ओर तौ कूड़े के ढेर सजाये |
सोचि चले वृन्दावन धाम, मिलें वृंदा- वन बहु भाँति सुहाए |
डोलत ऊबड़ खाबड़ राह, औ फाँकत धूलि वृन्दाबन आये ||
कालिंदी कूल जो निरखें लगे, मन शीतल कुञ्ज कुटीर निहारे |
कौन सौ निर्मल पावन नीर, औ पाए कतहुं न कदम्ब के डारे |
नाथि कै कालियनाग प्रभो ! जो कियो तुम पावन जमुना के धारे |
करिया सी माटी के रंग कौ जल, हैं प्रदूषित कालिंदी कूल किनारे |
चौड़ी नदिया दो सौ गज की, कटि-छीन तिया सी बहै बहु धारे |
कौन प्रदूषण नाग कों नाथिकें, पावन नीर कों नाथ सुधारे ||
गोवर्धन गिरिराज वही, जेहि श्याम धरे ब्रज-वृन्द बचाए |
खोजि थके हरियाली छटा, पग राह कहूं औ कतहुं नहीं पाए |
सूखे से ठूंठ से बृक्ष कदम्ब, कटे-फटे गिरि पाहन बिखराए |
शीर्ण -विदीर्ण किये अंग-भंग, गिरिराज बने हैं कबंध सुहाए |
ताल तलैया हैं कीच भरे, गिरिराज परे रहें नीर बहाए |
कौन प्रदूषण-खननासुर, संहार करै ब्रजधाम बचाए ||
मंदिर देखि बिहारी लला, मन आनंद शीतल नयन जुड़ाने |
हिय हर्षित आनंद रूप लखे, मन भाव मनौ प्रभु मुसुकाने |
बोले उदास से नैन किये, अति ही सुख आनंद हम तौ सजाने |
देखी तुमहुं मथुरा की दशा, हम कैसें रहें यहाँ रोज लजाने |
अपने अपने सुख चैन लसे, मथुरा के नागर धीर सयाने |
श्याम कछू अब तुमहि करौ, हम तौ यहाँ पाहन रूप समाने ||
भाव भरे दोऊ कर जोरि कें, भरे मन बाहरि गलियनि आये |
बांस फटे लिए हाथनि में, सखियनि संग राधा कौ भेष बनाए |
नागरि चतुर सी मथुरा की, रहीं घूमि नगर में धूम मचाये |
हौले से राधा-सरूप नै पाँय, हमारे जो दीन्हीं लकुटिया लगाए |
जोरि दोऊ कर शीश नवाय, हम कीन्हो प्रणाम हिये हुलसाये |
जीवन धन्य सुफल भयो श्याम' सखी संग राधाजी दर्शन पाए ||
यमुना किनारे मथुरा |
यमुना जल |
श्रृद्धा जगी उर भक्ति पगी, प्रभु रीति सुहाई जो निज मन मांहीं |
कान्हा की बंसी मन में बजी, सुख आनंद रीति सजी मन माहीं |
राधा की मथुरा बुलाने लगी, मन मीत बसें उर प्रीति सुहाई |
देखें चलें कहूँ कुञ्ज कुटीर में, बैठे मिलें कान्हा, राधिका पांही |
उर प्रीति उमंग भरे मन मांहि, चले मथुरा की सुन्दर छाहीं |
देखिकें मथुरा की दीन दशा, मन भाव भरे अँखियाँ भरि आईं ||
ऐसी बेहाल सी गलियाँ परीं, दोऊ लोचन नीर कपोल पै आये |
तिहूँ लोक ते न्यारी ये पावन भूमि, जन्मे जहँ देवकीलाल सुहाए |
टूटी पडीं सड़कें चहुँ ओर, हैं लता औ पत्ता भरि धूरि नहाए |
गोप कहाँ कहं श्याम सखा, कित गोपी कुञ्ज कतहुं नहीं भाए |
न्यारे से खेल कन्हैया के कित, कहुं गोपिन की पग राह न पाए |
हाय यही मथुरा नगरी, जहां लीलाधर, लीला धरि आये ||
रिक्शा चलाय रहे ब्रज बाल, कित ग्वाल-गुपाल के खेल सुहाए |
गोरस की नदियाँ कित हैं, गली-राहन कीचड नीर बहाए |
कुंकुम केसर धूरि कहाँ, धुंआ डीज़ल कौ चहुँ ओर उडाये |
माखन मिसरी के ढेर कितै, चहुँ ओर तौ कूड़े के ढेर सजाये |
सोचि चले वृन्दावन धाम, मिलें वृंदा- वन बहु भाँति सुहाए |
डोलत ऊबड़ खाबड़ राह, औ फाँकत धूलि वृन्दाबन आये ||
कालिंदी कूल जो निरखें लगे, मन शीतल कुञ्ज कुटीर निहारे |
कौन सौ निर्मल पावन नीर, औ पाए कतहुं न कदम्ब के डारे |
नाथि कै कालियनाग प्रभो ! जो कियो तुम पावन जमुना के धारे |
करिया सी माटी के रंग कौ जल, हैं प्रदूषित कालिंदी कूल किनारे |
चौड़ी नदिया दो सौ गज की, कटि-छीन तिया सी बहै बहु धारे |
कौन प्रदूषण नाग कों नाथिकें, पावन नीर कों नाथ सुधारे ||
गोवर्धन गिरिराज वही, जेहि श्याम धरे ब्रज-वृन्द बचाए |
खोजि थके हरियाली छटा, पग राह कहूं औ कतहुं नहीं पाए |
सूखे से ठूंठ से बृक्ष कदम्ब, कटे-फटे गिरि पाहन बिखराए |
शीर्ण -विदीर्ण किये अंग-भंग, गिरिराज बने हैं कबंध सुहाए |
ताल तलैया हैं कीच भरे, गिरिराज परे रहें नीर बहाए |
कौन प्रदूषण-खननासुर, संहार करै ब्रजधाम बचाए ||
मंदिर देखि बिहारी लला, मन आनंद शीतल नयन जुड़ाने |
हिय हर्षित आनंद रूप लखे, मन भाव मनौ प्रभु मुसुकाने |
बोले उदास से नैन किये, अति ही सुख आनंद हम तौ सजाने |
देखी तुमहुं मथुरा की दशा, हम कैसें रहें यहाँ रोज लजाने |
अपने अपने सुख चैन लसे, मथुरा के नागर धीर सयाने |
श्याम कछू अब तुमहि करौ, हम तौ यहाँ पाहन रूप समाने ||
भाव भरे दोऊ कर जोरि कें, भरे मन बाहरि गलियनि आये |
बांस फटे लिए हाथनि में, सखियनि संग राधा कौ भेष बनाए |
नागरि चतुर सी मथुरा की, रहीं घूमि नगर में धूम मचाये |
हौले से राधा-सरूप नै पाँय, हमारे जो दीन्हीं लकुटिया लगाए |
जोरि दोऊ कर शीश नवाय, हम कीन्हो प्रणाम हिये हुलसाये |
जीवन धन्य सुफल भयो श्याम' सखी संग राधाजी दर्शन पाए ||
5 टिप्पणियां:
वृंदावन बिहारी लाल की जय।
वर्तमान परिदृश्य में पावन नगरी की व्यथा को खूब चित्रित किया है.सभी छंद यथार्थ लिए हुए हैं.अनूठी कल्पना के लिए बधाई के पात्र हैं.
श्याम जी आपकी भावपूर्ण प्रस्तुति को सादर नमन.
बहुत ही सुंदरता से आपने अपने दिल के दर्द को उकेरा है.आपकी प्रस्तुति पढ़ पढ़ कर मन मग्न होता है जी.बहुत बहुत आभार आपका.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
हनुमान लीला पर फिर से
कुछ सुनाईयेगा.नई पोस्ट
जारी की है.
धन्यवाद पान्डे जी, अरुण जी व राकेश जी....राधे-राधे..
बेहतरीन छंद और ब्लॉग पर आने के लिए और अपनी बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आभार |
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