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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 16 जनवरी 2012

भारतीय तत्व-ज्ञान का सार व महत्ता .. डा श्याम गुप्त

                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

            भारतीय तत्व ज्ञान जिन्हें  सनातन धर्म या वैदिक धर्म के मूल सिद्धांत कहा जाता है वस्तुतः सिर्फ एक धर्म ही नहीं अपितु एक जीवन शैली है, संसार-जगत में मानव कैसे व्यवहार करे , इसकी एक सुस्पष्ट अवधारणा है   | यह विश्व में एवं मानव इतिहास में एक अनूठी, अप्रतिम , अप्रमेय  अवधारणा है जो  ब्रह्म, जीव, माया की त्रिगुण भाव धारणा के साथ  संसार-सागर  में कैसे उतरें व पार करें का स्पष्ट ज्ञान देती है |  मानव के प्रत्येक प्रश्न, तर्क, शंका, भ्रम का समाधान व निवारण करके सदैव प्रश्नातुर मानव-मन को परम शान्ति प्रदान करके अपने स्व-कर्म में स्थित होने का सन्देश देती है |  यद्यपि इस  आदि-ज्ञान  पर प्रायः द्विधा-पूर्ण, भ्रमात्मक, दोहरी बातें कहने के आरोप लगाए जाते हैं | परन्तु यही तो विशिष्टता है इस अध्यात्मिक-धार्मिक -व्यवहारिक दर्शन की जो अनूठी है |
           उदाहरण के लिए हम एक घटना को लें |  आदि- शंकराचार्य जब एक चांडाल के अपने रास्ते में आजाने पर  'दूर हटो ' कहने लगे तो चांडाल का कथन था की आप ही तो कहते हैं की ब्रह्म एक है सभी तत्वों में वही ब्रह्म है तो फिर मुझे दूर हटाने को क्यों कह रहे हैं ....शंकराचार्य ने अपनी भूल मानी और चांडाल को ज्ञानी मानकर उसे अपना गुरु माना|  कहा तो यह जाता है कि वह चांडाल स्वयं महादेव थे |
             शंकराचार्य अपने स्तर पर सही थे, ब्रह्म एक ही है तो फिर यह सब क्या, परन्तु वे कृष्ण नहीं थे ..स्वयम ब्रह्म-रूप नहीं थे  |   यदि कृष्ण होते तो वे क्या कहते ?  वे कहते कि..महात्मन सत्य ही ब्रह्म एक है आप में भी वही ब्रह्म है परन्तु इस बेश-भूषा, इस कर्म-भाव में वह ब्रह्म जो जीव रूप में आपमें है वह माया से ढका हुआ है |  वह ब्रह्म इस समय  ज्ञान व भक्ति से परे सिर्फ कर्म  का धर्म धारण किये हुए है अतः  निश्चय ही  वह शुद्ध ब्रह्म नहीं है और मुझे ( प्रत्येक व्यक्ति को ) आपसे सचेत रहना चाहिए | जब वह माया लिपटा हुआ जीव रूपी  ब्रह्म, ज्ञान भक्ति सहित कर्म से शुद्ध ब्रह्म रूप में आयेगा तभी वह ब्रह्म - ब्रह्म समझा जाएगा | इस रूप में तो आप अपने निकृष्ट कर्म के कारण अस्पर्श्य हैं |
             जब आदि-शंकर कहते हैं कि ..'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ..'  यदि जगत मिथ्या है तो क्या कर्म न किया जाय | क्या शंकर असत्य कहते हैं ? नहीं....  जगत वास्तव में ही मिथ्या है ब्रह्म ही सत्य है ..जगत तो- ब्रह्म के ( संसार-चक्र हेतु ), जीव रूप में  माया से लिप्त हो  जाने के कारण  रूप सृष्टि का भाव बनता है .अतः ...इसे मिथ्या मान कर ही समस्त कर्म करना चाहिए..परन्तु ज्ञान व भक्ति के साथ .... | उपनिषद् कहती है..'कुर्वन्नेह कर्मणि जिजीविषेच्छतं समा ..' अर्थात कर्म तो अवश्य ही  करना है ....फिर कौन असत्य है ?  यही तो विशिष्टता है---द्वैत  में एकत्व  व ..स्पष्टता..|   गीता कहती है कि ...ज्ञान व भक्ति के योग के साथ यदि कर्म किया जाय वही योग है ,...' मा फलेषु कदाचन ' तभी  उपनिषदकार के अनुसार ...,.न कर्म लिप्यते नर ..' | इसे सम्पूर्ण करती हुई ईशोपनिषद कहती है....कि     जो अविद्या ( अर्थात ..भौतिकता, सांसारिक, व्यवसायिक ज्ञान ) में ही लिप्त रहता है वह अनेकों अन्धकार में अर्थात कष्टों में घिर जाता है--जो आज के भौतिकता में लिप्त मानव के कष्टों  की दशा स्पष्ट करता है ;  परन्तु जो सिर्फ विद्या ( ब्रह्म ज्ञान, ज्ञान  )में ही लिप्त रहता है वह तो और भी अधिक रौरव अन्धकार अर्थात महानतम कष्टों में घिर जाता है,जो आज के कर्महीन लोग सिर्फ वाचालता, धार्मिक पाखण्ड , अंधविश्वास में रत मानव, एवं सिर्फ ज्ञानान्डम्बर व ज्ञान अहं में रत विज्ञ जन की दशा कहता है ; अतः मनुष्य को .....
"विद्या  सह अविद्या यस्तत वेदोभय सह |
अविध्यायां मृत्युं तीर्त्वा , विद्यया अमृतमनुश्ते  ||"  
            मनुष्य को ज्ञान व भौतिकता, ईश्वर व संसार, अध्यात्म, भक्ति व सांसारिकता के ज्ञान को साथ-साथ लेकर चलना चाहिए, व्यवहार करना चाहिए  |  सांसारिक,व्यवसायिक  भौतिक ज्ञान से मृत्यु अर्थात इस सांसारिकता को जीत कर( सफल जीवन यापन करके )- ज्ञान,  अध्यात्म,  व भक्ति से --अमृत, अमृतत्व , अमरता अर्थात   मुक्ति-ज्ञान( परम शान्ति, आत्मिक सुख-शान्ति  प्राप्त करना चाहिए |  यही व्यवहारिक मानव कर्तव्य व ज्ञान है |  यही धर्म है, यही अध्यात्म है, यही मोक्ष है |
              

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सारा तत्व समझने के बाद कर्म करने से उसमें लिप्तता नहीं आती है।