....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
( अभी हाल में ही ब्लॉग पर एक ब्लोगर द्वारा बोल्ड विषय पर बोल्ड कविता पोस्ट करने एवं उसको और अधिक बोल्ड शीर्षक देकर एक अन्य ब्लोगर द्वारा उसे हवा देने के कारण आयी हुई टिप्पणियों -प्रति-टिप्पणियों के कारण काफी हलचल रही। तमाम ब्लोगरों द्वारा विभिन्न पोस्ट, अंग्रेज़ी साहित्य पर शोध व पुरुष मानसिकता पर व्याख्यान प्रस्तुत किये गए। प् रस्तुत हैं श्रृंगार, बोल्डनेस व साहित्य पर कुछ विचार । )
मानव मन में रस-निष्पत्ति आलंबन -उद्दीपन द्वारा संचारी भावों द्वारा रस संचार से होती है जो अनुभव-विभाव द्वारा प्रदीप्त व प्रकट होती है । अन्य सभी रस -- यथा शांत, हास्य, वैराग्य, बीर ,रौद्र, आदि मूलतः एकाधिकारी हैं जिनमें उनकी अप्राप्ति व अत्यधिकता से अन्य रसों- भावों की उत्पत्ति नहीं होती। श्रृंगार -रस एक एसा रस है जिसकी अप्राप्ति ( क्रोध, रौद्र ..) प्राप्ति (शान्ति -मुमुक्षा ) व अत्यधिक प्राप्ति ( वितृष्णा,वैराग्य ) होते हैं । इसीलिये इसे रस-राज कहा गया है। स्थायीभाव प्रेम का उत्कृष्टतम फल- रूप दर्शन अर्थात फिलोसोफी है। श्रृंगार रस का प्रसारी, कार्यकारी व फलरूप काम है.. सेक्स है ....व संतानोत्पत्ति है ... जो जीवन व मानवीय सभ्यता का उत्कृष्टतम व आवश्यकतम तत्व है। मानव का मूलतः खोजी मन अप्राप्य, आवृत, ढकी हुई , अज्ञात के प्रति आश्चर्य, आकर्षण,व प्राप्ति-हेतु प्रयत्न व प्रगति को स्वीकारता है एवं प्राप्ति उपरांत अनाकर्षण की उत्पत्ति करता है। प्राप्ति व अत्यधिक प्राप्ति के बाद विकर्षण व अनाकर्षण की उत्पत्ति होती अतः सुलभ ,सरलता से प्राप्त, अनावृत्त, खुली हुई, निरावरण के प्रति स्वाभाविक अनाकर्षण रहता है।
भारतीय संस्कृति में पत्नी/ नायिका का घूंघट,..पति/ प्रियतम के सम्मुख लज्जावरण, अंगों का आवरण मूलतः प्रेम रस के उद्दीपन व प्रदीप्तन का हेतु बनते हैं । नारी का प्रतिपल, दिवस, मॉस, वर्ष, व वय के साथ साथ गोपनीयता,रहस्यमयता , नित-नवीनता उत्पत्ति इसी विकर्षण की... न-उत्पत्ति... का हेतु है। इसीलिये नारी को ब्रहमा भी नहीं समझ पाता। पुरुष की नित-नवीनता युत विभिन्न रति-क्रियाओं की नवीनता भी इसी हेतु हैं । यह भाव सृष्टिक्रम में व्यतिक्रम उत्पत्ति हेतु प्रेम, श्रृंगार, काम में विकर्षण व विराग का कारण नहीं बन पाता । यदि मानव -स्त्री-पुरुष -के समस्त अंग व भाव, विचार क्रिया -बोल्डनेस द्वारा -अनावृत व अपने सम्पूर्ण रूप-भाव में सामने आजायं तो ..खोज समाप्ति पर यह स्थिति निश्चय ही - विकर्षण, वितृष्णा द्वारा वैराग्य की उत्पत्ति से सृष्टि-क्रम के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।
साहित्य भी जीवन तत्व है इसीलिये उसमें भी उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यंजना आदि द्वारा आवरित , मर्यादित, सार्थक काव्य रचना का प्रचलन है । ताकि मानव मन कल्पना के मनो-सागर में उतराता रहे ...नित-नवीन श्रृंगार रस-निष्पत्ति होती रहे । खुले व अनावृत बोल्ड विषय-शब्दों- भावों द्वारा विकर्षण -अनाकर्षण न उत्पन्न हो । सार्थक मर्यादित परन्तु रस-श्रृंगार से भरपूर अर्थ-पूर्ण साहित्य ...संस्कृत भाषा -साहित्य में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है..कालिदास के कुमार संभव में सम्पूर्णता से रचित है।
मेरे महाकाव्य " प्रेम काव्य" की एक रस श्रृंगार से सिक्त सम्पूर्ण वर्णन सहित परन्तु मर्यादित भाषा पूर्ण एक रचना प्रस्तुत है....देखिये ---
सखि कैसे !
सखि री ! तेरी कटि छीन,
पयोधर भार भला धरती हो कैसे ?
बोली सखी मुसुकाइ, हिये,
उर भार तिहारो धरतीं हैं जैसे |
भोंहें बनाई कमान भला,
हैं तीर कहाँ पै,निशाना हो कैसे ?
नैनन के तूरीण में बाण,
धरे उर,पैनी कटार के जैसे |
कौन यहाँ मृग-बाघ धरे,
कहो बाणन वार शिकार हो कैसे ?
तुम्हरो हियो मृग भांति पिया,
जब मारै कुलांच,शिकार हो जैसे |
प्रीति तेरी मनमीत प्रिया,
उलझाए ये मन उलझी लट,जैसे |
लट सुलझाय तौ तुम ही गए,
प्रिय मन उलझाय गए कहो कैसे ?
ओठ तेरे विम्बाफल भांति,
किये रचि लाल, अंगार के जैसे ?
नैन तेरे प्रिय प्रेमी चकोर,
रखें मन जोरि अंगार से जैसे |
प्रीति भरे रस-बैन तेरे, कहो ,
कोकिल कंठ भरे रस कैसे ?
प्रीति की बंसी तेरे उर की,
पिय देती सुनाई मेरे उर में से |
अनहद नाद को गीत बजै,
संगीत प्रिया अंगडाई लिए से |
कंचन काया के ताल-मृदंग पै,
थाप तिहारी कलाई दिए ते |
पंकज नाल सी बाहें प्रिया,
उर बीच धरे क्यों, अँखियाँ मीचे ?
मत्त-मतंग की नाल सी बाहें,
भरें उर बीच रखें मन सींचे ||
( अभी हाल में ही ब्लॉग पर एक ब्लोगर द्वारा बोल्ड विषय पर बोल्ड कविता पोस्ट करने एवं उसको और अधिक बोल्ड शीर्षक देकर एक अन्य ब्लोगर द्वारा उसे हवा देने के कारण आयी हुई टिप्पणियों -प्रति-टिप्पणियों के कारण काफी हलचल रही। तमाम ब्लोगरों द्वारा विभिन्न पोस्ट, अंग्रेज़ी साहित्य पर शोध व पुरुष मानसिकता पर व्याख्यान प्रस्तुत किये गए। प् रस्तुत हैं श्रृंगार, बोल्डनेस व साहित्य पर कुछ विचार । )
मानव मन में रस-निष्पत्ति आलंबन -उद्दीपन द्वारा संचारी भावों द्वारा रस संचार से होती है जो अनुभव-विभाव द्वारा प्रदीप्त व प्रकट होती है । अन्य सभी रस -- यथा शांत, हास्य, वैराग्य, बीर ,रौद्र, आदि मूलतः एकाधिकारी हैं जिनमें उनकी अप्राप्ति व अत्यधिकता से अन्य रसों- भावों की उत्पत्ति नहीं होती। श्रृंगार -रस एक एसा रस है जिसकी अप्राप्ति ( क्रोध, रौद्र ..) प्राप्ति (शान्ति -मुमुक्षा ) व अत्यधिक प्राप्ति ( वितृष्णा,वैराग्य ) होते हैं । इसीलिये इसे रस-राज कहा गया है। स्थायीभाव प्रेम का उत्कृष्टतम फल- रूप दर्शन अर्थात फिलोसोफी है। श्रृंगार रस का प्रसारी, कार्यकारी व फलरूप काम है.. सेक्स है ....व संतानोत्पत्ति है ... जो जीवन व मानवीय सभ्यता का उत्कृष्टतम व आवश्यकतम तत्व है। मानव का मूलतः खोजी मन अप्राप्य, आवृत, ढकी हुई , अज्ञात के प्रति आश्चर्य, आकर्षण,व प्राप्ति-हेतु प्रयत्न व प्रगति को स्वीकारता है एवं प्राप्ति उपरांत अनाकर्षण की उत्पत्ति करता है। प्राप्ति व अत्यधिक प्राप्ति के बाद विकर्षण व अनाकर्षण की उत्पत्ति होती अतः सुलभ ,सरलता से प्राप्त, अनावृत्त, खुली हुई, निरावरण के प्रति स्वाभाविक अनाकर्षण रहता है।
भारतीय संस्कृति में पत्नी/ नायिका का घूंघट,..पति/ प्रियतम के सम्मुख लज्जावरण, अंगों का आवरण मूलतः प्रेम रस के उद्दीपन व प्रदीप्तन का हेतु बनते हैं । नारी का प्रतिपल, दिवस, मॉस, वर्ष, व वय के साथ साथ गोपनीयता,रहस्यमयता , नित-नवीनता उत्पत्ति इसी विकर्षण की... न-उत्पत्ति... का हेतु है। इसीलिये नारी को ब्रहमा भी नहीं समझ पाता। पुरुष की नित-नवीनता युत विभिन्न रति-क्रियाओं की नवीनता भी इसी हेतु हैं । यह भाव सृष्टिक्रम में व्यतिक्रम उत्पत्ति हेतु प्रेम, श्रृंगार, काम में विकर्षण व विराग का कारण नहीं बन पाता । यदि मानव -स्त्री-पुरुष -के समस्त अंग व भाव, विचार क्रिया -बोल्डनेस द्वारा -अनावृत व अपने सम्पूर्ण रूप-भाव में सामने आजायं तो ..खोज समाप्ति पर यह स्थिति निश्चय ही - विकर्षण, वितृष्णा द्वारा वैराग्य की उत्पत्ति से सृष्टि-क्रम के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।
साहित्य भी जीवन तत्व है इसीलिये उसमें भी उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यंजना आदि द्वारा आवरित , मर्यादित, सार्थक काव्य रचना का प्रचलन है । ताकि मानव मन कल्पना के मनो-सागर में उतराता रहे ...नित-नवीन श्रृंगार रस-निष्पत्ति होती रहे । खुले व अनावृत बोल्ड विषय-शब्दों- भावों द्वारा विकर्षण -अनाकर्षण न उत्पन्न हो । सार्थक मर्यादित परन्तु रस-श्रृंगार से भरपूर अर्थ-पूर्ण साहित्य ...संस्कृत भाषा -साहित्य में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है..कालिदास के कुमार संभव में सम्पूर्णता से रचित है।
मेरे महाकाव्य " प्रेम काव्य" की एक रस श्रृंगार से सिक्त सम्पूर्ण वर्णन सहित परन्तु मर्यादित भाषा पूर्ण एक रचना प्रस्तुत है....देखिये ---
सखि कैसे !
सखि री ! तेरी कटि छीन,
पयोधर भार भला धरती हो कैसे ?
बोली सखी मुसुकाइ, हिये,
उर भार तिहारो धरतीं हैं जैसे |
भोंहें बनाई कमान भला,
हैं तीर कहाँ पै,निशाना हो कैसे ?
नैनन के तूरीण में बाण,
धरे उर,पैनी कटार के जैसे |
कौन यहाँ मृग-बाघ धरे,
कहो बाणन वार शिकार हो कैसे ?
तुम्हरो हियो मृग भांति पिया,
जब मारै कुलांच,शिकार हो जैसे |
प्रीति तेरी मनमीत प्रिया,
उलझाए ये मन उलझी लट,जैसे |
लट सुलझाय तौ तुम ही गए,
प्रिय मन उलझाय गए कहो कैसे ?
ओठ तेरे विम्बाफल भांति,
किये रचि लाल, अंगार के जैसे ?
नैन तेरे प्रिय प्रेमी चकोर,
रखें मन जोरि अंगार से जैसे |
प्रीति भरे रस-बैन तेरे, कहो ,
कोकिल कंठ भरे रस कैसे ?
प्रीति की बंसी तेरे उर की,
पिय देती सुनाई मेरे उर में से |
अनहद नाद को गीत बजै,
संगीत प्रिया अंगडाई लिए से |
कंचन काया के ताल-मृदंग पै,
थाप तिहारी कलाई दिए ते |
पंकज नाल सी बाहें प्रिया,
उर बीच धरे क्यों, अँखियाँ मीचे ?
मत्त-मतंग की नाल सी बाहें,
भरें उर बीच रखें मन सींचे ||
2 टिप्पणियां:
श्रंगार की अद्भुत अभिव्यक्ति है यह रचना।
सौ प्रतिशत सहमत |
पाका पहली मर्तबा, लेकर दूध-पनीर ।
चमचे ने धोखा दिया, गिरी हीर पर खीर ।
गिरी हीर पर खीर, नहीं गाढ़ी हो पाई ।
गरम गरम तासीर, बदन में आग लगाईं ।
तेरा भी कुछ दोष, चमकता रहा बुलाका ।
था दिन भर अफ़सोस, दुबारा बढ़िया पाका ।।
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