....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
सृष्टि - अगीत महाकाव्य--
(यह महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिकविज्ञान के समन्वयात्मक विषय परसर्वप्रथम रचित महाकाव्य है , इसमेंसृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन वमानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयको सरल भाषा में व्याख्यायित कियागया है ....एवं अगीत विधा के लयबद्धषटपदी छंद में
निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है.... ...... रचयिता )
तृतीय सर्ग.....सद- नासद खंड --------( प्रस्तुत सर्ग में ईश्वर या पूर्ण ब्रह्म के व्यक्त ( सद ) व अव्यक्त ( नासद ) कि; वह है भी - और नहीं भी है- के रूप की वैदिक विज्ञान के अनुसार व्याख्या की गयी है तथा -प्रलय-सृष्टि-प्रलय- के क्रमिक चक्र व उसके कारण,( मूलतः मानव के अपकर्म -प्रदूषण -अनाचारी कृत्य आदि...) व क्रिया का संक्षिप्त रूप से वर्णन किया गया है..)
१-
उस पूर्ण-ब्रह्म, उस पूर्ण-काम से,
पूर्ण जगत होता विकसित।
उस पूर्ण-ब्रह्म का कौन भाग,
जग संरचना में व्याप्त हुआ?
क्या शेष बचा जाने नकोई,
वह शेष भी सदा पूर्ण रहता है॥
२-
वह नित्य प्रकृति, और जीवात्मा,
उस सद-नासद में निहित रहें ।
हो सृष्टि-भाव , तब सद होते,
और लय में हों लीन उसी में।
यह चक्र, सृष्टि1 -लय2 नियमित है ,
इच्छानुसार उस पर-ब्रह्म के॥
३-
इच्छा करता है जब लय की,
वे देव, प्रकृति, गुण, रूप सभी,
लय होजाते अपः-तत्व3 में ;
पूर्ण सिन्धु उस महाकाश4 में।
लय होता जो पूर्ण -ब्रह्म में ,
फिर भी ब्रह्म पूर्ण रहता है॥
४-
दृष्टा जब इच्छा करता है,
बघुत हो चुका जगत पसारा।
मानव की अति सुख-अभिलाषा ,
से है त्रस्त देवगण सारा ।
अपः तत्व में अप मिश्रण5 से ,
मानव जीवन त्रस्त होरहा॥
५-
नए तत्व नित मनुज बनाता,
जीवन कठिन प्रकृति दोहन से।
अंतरिक्ष, आकाश, प्रकृति में,
तत्व, भावना, अहं6 व ऊर्जा;
के नवीन नित असत कर्म से,
भार धरा पर बढ़ता जाता॥
६-
सत्कर्म रूप मेरी भाषा जो,
न्याय, सांख्य, वेदान्त7 बताता;
भूला अहंकार वश, रज और,
पंचभूत तम, ही अपनाता।
भूल गया सत, महत्तत्व को,
यद्यपि आत्म-तत्व मेरा ही॥
७-
अपना अंतस नहीं खोजता ,
मुझे ढूँढता कहाँ कहाँ वह;
क्या-क्या, कर्म-अकर्म कर रहा।
नष्ट कर रहा मूल दृव्य को;
पाना चाहे काल और गति,
हिरण्यगर्भ8 को या फिर मुझको ?
८-
शायद अब है रात्रि आगई ,
पूर्ण होगया सृष्टि-काल भी।
काल औ गति स्थिर होजाएं ,
कार्य सभी, लय हों कारण में ।
सत तम रज 9 हों साम्य अक्रिय-अप: ,
मैं अब पुनः एक होजाऊँ ॥
९-
निमिष मात्र में उस इच्छा के ,
सब, चेतन जग जीव चराचर ,
देव रूप रस शब्द प्रकृति विधि ;
ऊर्जा वायु जल महत्तत्व मन,
लय होजाते मूल-दृव्य में ,
महा -विष्णु के नाभि-केंद्र में॥
१०-
काल औ गति स्थिर होजाते ,
मूल द्रव्य हो सघन रूप में से;
बन जाता है पिंड रूप में।
सकल विश्व-ब्रह्माण्ड रूप धर,
जल आकाश पृथ्वी को धारे ,
महाकाल रूपी अर्णव10 में॥
११-
वे प्रथम अजायत11 अग्नि-देव,
अपनी विकराल सी दाढों में;
ब्रह्माण्ड पिंड को खा जाते,
फिर लय होते अपःतत्व में।
महाकाश में, महाकाल में ,
जो लय होता हिरण्यगर्भ में॥
१२-
वह हिरण्यगर्भ जो अर्णव में ,
था दीप्तिमान सत-व्यक्त ब्रह्म;
लय होजाता अक्रिय,अप्रकाशित,
परम तत्व में; और एक ही,
रह जाता है , शांत-तमावृत ,
पूर्ण-ब्रह्म, जो सद-नासद है॥
( कुंजिका---१ =श्रृष्टि रचना , २=श्रृष्टि नाश, विघटन, प्रलय , ३=मूल द्रव्य, आदि-पदार्थ , ४= अनंत अंतरिक्ष ,मनो आकाश, घटाकाश ;५=प्रदूषण -मनसा वाचा कर्मणा ; ६=मन व वृत्तियों वाला मूल भाव तत्व; ७=भारतीय षड-दर्शन के अंग ;८= सद, सक्रिय, व्यक्त चेतन ब्रह्म (ईश्वर); ९= मूल पदार्थ-प्रकृति के तीन गुण ;१०=अंतरिक्ष, क्षीर सागर ' ११=अजन्मा , नित्य )
सृष्टि - अगीत महाकाव्य--
(यह महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिकविज्ञान के समन्वयात्मक विषय परसर्वप्रथम रचित महाकाव्य है , इसमेंसृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन वमानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयको सरल भाषा में व्याख्यायित कियागया है ....एवं अगीत विधा के लयबद्धषटपदी छंद में
निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है.... ...... रचयिता )
तृतीय सर्ग.....सद- नासद खंड --------( प्रस्तुत सर्ग में ईश्वर या पूर्ण ब्रह्म के व्यक्त ( सद ) व अव्यक्त ( नासद ) कि; वह है भी - और नहीं भी है- के रूप की वैदिक विज्ञान के अनुसार व्याख्या की गयी है तथा -प्रलय-सृष्टि-प्रलय- के क्रमिक चक्र व उसके कारण,( मूलतः मानव के अपकर्म -प्रदूषण -अनाचारी कृत्य आदि...) व क्रिया का संक्षिप्त रूप से वर्णन किया गया है..)
१-
उस पूर्ण-ब्रह्म, उस पूर्ण-काम से,
पूर्ण जगत होता विकसित।
उस पूर्ण-ब्रह्म का कौन भाग,
जग संरचना में व्याप्त हुआ?
क्या शेष बचा जाने नकोई,
वह शेष भी सदा पूर्ण रहता है॥
२-
वह नित्य प्रकृति, और जीवात्मा,
उस सद-नासद में निहित रहें ।
हो सृष्टि-भाव , तब सद होते,
और लय में हों लीन उसी में।
यह चक्र, सृष्टि1 -लय2 नियमित है ,
इच्छानुसार उस पर-ब्रह्म के॥
३-
इच्छा करता है जब लय की,
वे देव, प्रकृति, गुण, रूप सभी,
लय होजाते अपः-तत्व3 में ;
पूर्ण सिन्धु उस महाकाश4 में।
लय होता जो पूर्ण -ब्रह्म में ,
फिर भी ब्रह्म पूर्ण रहता है॥
४-
दृष्टा जब इच्छा करता है,
बघुत हो चुका जगत पसारा।
मानव की अति सुख-अभिलाषा ,
से है त्रस्त देवगण सारा ।
अपः तत्व में अप मिश्रण5 से ,
मानव जीवन त्रस्त होरहा॥
५-
नए तत्व नित मनुज बनाता,
जीवन कठिन प्रकृति दोहन से।
अंतरिक्ष, आकाश, प्रकृति में,
तत्व, भावना, अहं6 व ऊर्जा;
के नवीन नित असत कर्म से,
भार धरा पर बढ़ता जाता॥
६-
सत्कर्म रूप मेरी भाषा जो,
न्याय, सांख्य, वेदान्त7 बताता;
भूला अहंकार वश, रज और,
पंचभूत तम, ही अपनाता।
भूल गया सत, महत्तत्व को,
यद्यपि आत्म-तत्व मेरा ही॥
७-
अपना अंतस नहीं खोजता ,
मुझे ढूँढता कहाँ कहाँ वह;
क्या-क्या, कर्म-अकर्म कर रहा।
नष्ट कर रहा मूल दृव्य को;
पाना चाहे काल और गति,
हिरण्यगर्भ8 को या फिर मुझको ?
८-
शायद अब है रात्रि आगई ,
पूर्ण होगया सृष्टि-काल भी।
काल औ गति स्थिर होजाएं ,
कार्य सभी, लय हों कारण में ।
सत तम रज 9 हों साम्य अक्रिय-अप: ,
मैं अब पुनः एक होजाऊँ ॥
९-
निमिष मात्र में उस इच्छा के ,
सब, चेतन जग जीव चराचर ,
देव रूप रस शब्द प्रकृति विधि ;
ऊर्जा वायु जल महत्तत्व मन,
लय होजाते मूल-दृव्य में ,
महा -विष्णु के नाभि-केंद्र में॥
१०-
काल औ गति स्थिर होजाते ,
मूल द्रव्य हो सघन रूप में से;
बन जाता है पिंड रूप में।
सकल विश्व-ब्रह्माण्ड रूप धर,
जल आकाश पृथ्वी को धारे ,
महाकाल रूपी अर्णव10 में॥
११-
वे प्रथम अजायत11 अग्नि-देव,
अपनी विकराल सी दाढों में;
ब्रह्माण्ड पिंड को खा जाते,
फिर लय होते अपःतत्व में।
महाकाश में, महाकाल में ,
जो लय होता हिरण्यगर्भ में॥
१२-
वह हिरण्यगर्भ जो अर्णव में ,
था दीप्तिमान सत-व्यक्त ब्रह्म;
लय होजाता अक्रिय,अप्रकाशित,
परम तत्व में; और एक ही,
रह जाता है , शांत-तमावृत ,
पूर्ण-ब्रह्म, जो सद-नासद है॥
( कुंजिका---१ =श्रृष्टि रचना , २=श्रृष्टि नाश, विघटन, प्रलय , ३=मूल द्रव्य, आदि-पदार्थ , ४= अनंत अंतरिक्ष ,मनो आकाश, घटाकाश ;५=प्रदूषण -मनसा वाचा कर्मणा ; ६=मन व वृत्तियों वाला मूल भाव तत्व; ७=भारतीय षड-दर्शन के अंग ;८= सद, सक्रिय, व्यक्त चेतन ब्रह्म (ईश्वर); ९= मूल पदार्थ-प्रकृति के तीन गुण ;१०=अंतरिक्ष, क्षीर सागर ' ११=अजन्मा , नित्य )
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अगीत में व्यक्त लयमय उत्पत्ति।
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