....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
                            
सृष्टि महाकाव्य-(ईषत- इच्छा या बिगबेंग--एक अनुत्तरित उत्तर )--    

-------वस्तुत सृष्टि हर पल, हर कण कण में होती रहती है, एक सतत प्रक्रिया है , जो ब्रह्म संकल्प-(ज्ञान--ब्रह्मा को ब्रह्म द्वारा ज्ञान) ,ब्रह्म इच्छा-एकोहं बहुस्याम ...( इच्छा) व सृष्टि (क्रिया- ब्रह्मा रचयिता ) की क्रमिक प्रक्रिया है --किसी भी पल प्रत्येक कण कण में चलती रहती है, जिससे स्रिष्टि व प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति होती है । प्रत्येक पदार्थ नाश(लय-प्रलय- शिव ) की और प्रतिपल उन्मुख है।
 
                                                  
षष्टम सर्ग, ब्रह्मान्ड खन्ड....
-------वस्तुत सृष्टि हर पल, हर कण कण में होती रहती है, एक सतत प्रक्रिया है , जो ब्रह्म संकल्प-(ज्ञान--ब्रह्मा को ब्रह्म द्वारा ज्ञान) ,ब्रह्म इच्छा-एकोहं बहुस्याम ...( इच्छा) व सृष्टि (क्रिया- ब्रह्मा रचयिता ) की क्रमिक प्रक्रिया है --किसी भी पल प्रत्येक कण कण में चलती रहती है, जिससे स्रिष्टि व प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति होती है । प्रत्येक पदार्थ नाश(लय-प्रलय- शिव ) की और प्रतिपल उन्मुख है।
(यह महाकाव्य अगीत विधामें आधुनिक विज्ञान ,दर्शन व वैदिक-विज्ञान के   समन्वयात्मक विषय पर सर्वप्रथमरचित महाकाव्य है , इसमें -सृष्टि की   उत्पत्ति, ब्रह्माण्ड व जीवन और मानव की उत्पत्ति के गूढ़तम विषयकोसरल   भाषा में व्याख्यायित कियागया है | इस .महाकाव्य को हिन्दी साहित्य की   अतुकांत कविता कीअगीत-विधा' के छंद - 'लयबद्ध षटपदी अगीत छंद' -में  '  निवद्ध किया गया है जो एकादश सर्गों में वर्णित है).... ......                   रचयिता  --डा श्याम गुप्त ...
                      ---पन्चम
  सर्ग में  जटिल भौतिक व रासायनिक क्रियाओं द्वारा मूल पदार्थ बनने की  
वैदिक विज्ञान व आधुनिक विज्ञान के मत वर्णित किये गए थे. -- .प्रस्तुत  षष्टम सर्ग -ब्रह्माण्ड खंड में बने हुए पंचौदन अजः ( मूल पदार्थ ) से आगे जड़ व जीव जगत की उत्पत्ति कैसे हुई    इसका प्रारम्भिक रूप वर्णित किया जाएगा.  
१- 
ईक्षण तप१  से हिरण्यगर्भ  के , 
भू, सावित्री२  भाव प्रकृति   से-
सब जग  रूप पदार्थ बन गए |
भुवः , गायत्री३  भाव उसीका,
अपरा-परा४  अव्यक्त रूप में,
चेतन सृष्टि का मूल रूप था||
२-
पराशक्ति से  परात्पर की,
प्रकट स्वयंभू, आदि शम्भु थे|
अपरा-शंभु संयोग हुआ जब,
व्यक्त भाव,महतत्व५ बन गया|
हुआ  विभाजित व्यक्त पुरुष में,
एवं व्यक्त  आदि-माया में  ||
३-
पालक,  धारक और संयोगक,
संहारक  लय सृजक रूप में;
महाविष्णु,महाशिव और ब्रह्मा,
बन असीम संकल्प शक्ति सब,
प्रकट हुए उस असीम से वे,
व्यक्त पुरुष से, आदि-विष्णु६ से ||
४ -
पालक, धारक, यौगिक ऊर्जा,
मूल,  संहारक, सृज़क, स्फुरणा,
रमा    उमा    सावित्री७     रूपा;
सभी शक्तियां प्रकट होगईं |
स्वयं भाव में आदि-शक्ति से ,
व्यक्त आदि-माया, अपरा की ||
५-
महाविष्णु-रमा संयोग से,
प्रकट हुए चिद-बीज८ अनंत;
फैले थे जो परम-व्योम में,
कण कण में बन कर हेमांड |
उस असीम के, महाविष्णु के,
रोम रोम में बन ब्रह्माण्ड ||
६-
महाविष्णु के स्वांश९ तत्व से,
बाम भाग से विष्णु-चतुर्भुज,
विभिन्नांश१० भ्रू-मध्य भाग से,
शिव-ज्योतिर्लिंग, लिंग-महेश्वर |
दक्षिण विभिन्नांश से ब्रह्मा,
प्रकट  हुए प्रत्येक अंड में ||
७-
यही ब्रह्म, अंगुष्ठ-ब्रह्म११, बन-
रूप,  आत्मा   जीवात्मा    का  |
स्थित  है,     प्रत्येक    देह  में,
कहलाता है, सर्व-महेश्वर :
आत्म-तत्व प्रत्येक जीव का,
ह्रदयाकाश में , घटाकाश में ||
८-
महाविष्णु शिव ब्रह्मा माया,
दृव्य, प्रकृति, जल, वायु, ऊर्जा,
मन, आकाश सब देव निहित थे;
सूक्ष्म रूप   प्रत्येक  अंड में  |
अपरा, परा, अहं सत्तामय ,
थी  स्वतंत्र सत्ता१२ प्रत्येक की ||
९-
महाकाश ही  आदि-विष्णु है,
रोम-रोम कण रूप भुवन का |
प्रकृति,त्रिगुणमय-सत तम रज की,
माया  जीव  विष्णु  ब्रह्मा शिव;
सूक्ष्म  भाव हैं परम-तत्व के,
स्थित कण-कण, रोम-रोम में ||
१०-
अब विज्ञान भी यही मानता,
ऋणकण, धनकण, उदासीनकण;
शक्ति गति निर्वात परिधि के;
सहित बने , परमाणु कण सभी |
सूक्ष्म रूप हैं  सभी  तत्व के,
अखिल विश्व में,चिदाकाश१३के ||
११-
और असीम उस महाकाश  में ,
हैं असंख्य ब्रह्माण्ड उपस्थित |
धारण करते हैं,   ये सब ही,
अपने अपने सूर्य-चन्द्र सब,
अपने अपने गृह-नक्षत्र सब;
है स्वतंत्र सत्ता प्रत्येक की  ||
१२-
"एको सद विप्राः वहुधा वदन्ति " 
भिन्न -भिन्न  सब रूप  उसीके |
इसीलिये कहते हैं हम सब,
अखिल विश्व कण-कण में समाया |
कण-कण में भगवान बसा है,
कण-कण में भगवान की माया ||
१३-
सभी जीव में वही ब्रह्म है,
मुझमें- तुझमें वही ब्रह्म है |
उसी एक को मान के सब में,
जान  उसी को हर कण, कण में;
तिनके का भी दिल न दुखाये ,
सो प्रभु को परब्रह्म को पाए || 
{ कुंजिका --
  १= व्यक्त ब्रह्म, हिरण्यगर्भ का सृष्टि संकल्प रूपी तप ;  २=  व्यक्त  
ईश्वर का सावित्री(भू)  अर्थात प्रकृति भाव जिससे समस्त जड़ ( जीव व जंगम  
सभी में ) तत्वों का निर्माण होता है.. ;  ३= गायत्री(भुव:) , अर्थात ईश्वर
  का चेतन प्राणमय  जिससे सभी चेतन तत्वों का निर्माण होता है; ४=  गायत्री
 ,  चेतन रूप के व्यक्त शक्ति (अपरा) और  पुरुष (परा ) रूप ; ५=
  मूल व्यक्त तत्व ; ६= वही व्यक्त ईश्वर , व्यक्त आदि पुरुष ; ७= 
त्रिदेवों  की प्रेरक त्रिविध शक्तियां ; ८= मूल ब्रह्माण्ड ,अंड  हेमांड, 
आदि -बीज  रूप में ,  जो सारे अंतरिक्ष में  असंख्य ब्रह्माण्ड के रूप में 
फैले रहते  हैं ; ९= मूल शरीर के तत्व से;  १०= पर्वर्तिति या अन्य छाया 
शरीर से ; ११=  अन्गुष्ठाकार ब्रह्म , जो लय व सृष्टि के बीच अश्वत्थ-पत्र 
पर महाअर्णव  मेंतैरता हुआ स्थित रहता है | वही पुरुष में, ह्रदयाकाश 
में,अंतरात्मा के  रूप में स्थित होता है|--श्वेताश्वरोपनिषद ३/१३..; 
१२=प्रत्येक बीजांड,अंड,  या ब्रह्माण्ड -अपने अपने सम्पूर्ण सौरमंडल सहित
 स्वतंत्र सत्ता रूप,  स्वतंत्र सृष्टि रूप  , जो असंख्य संख्या में सारे 
अंतरिक्ष में फैले रहते  हैं  ; अब आधुनिक विज्ञान भी  स्वीकार करता है कि 
असंख्य ब्रह्माण्ड हैं  जिनके समस्त  सौर मंडल भी अपने अपने होते हैं | ; 
१३= अर्णव , महाकाश, अनंत  अंतरिक्ष, शून्याकाश , सुन्न भवन, ईथर, क्षीर 
सागर .}
                                                   ---क्रमश :  ..सप्तम सर्ग..अगले अंक में .
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
