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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 20 मई 2013

लघु कथा ....नारी तुम केवल श्रृद्धा हो ... डा श्याम गुप्त ...

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                     
            रसोई घर में प्रवेश करते ही मुझे अपनी बेटी राशिका की बरबस याद आजाती है और साथ में उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा | जाने कितने शो रूम्स व डिजायनें देखकर चुनाव किया था बिटिया ने इन विशेष एब्सोल्यूट डिजायन वाली टाइल्स का | मकान बनाने की प्रक्रिया में किचिन, बाथरूम, फर्श आदि हेतु टाइल्स आदि का कितने धैर्य,लगन, रूचि, ममत्व व अधिकार से चयन किया था राशिका ने, जिन्हें त्याग कर एक दिन उसे जाना ही था सभी की भांति|
          मैं सोचने लगा कैसा त्याग, तप, साधना, धैर्य, धर्म, जिजीविषा व कर्म पूर्ण जीवन है नारी का| और उस सबके साथ युक्त होता है...उन सब में अनुप्राणित होता है, प्रेम.....न जाने कितने रूपों में, जो जड़ को चेतन बनाने में सक्षम है | क्या यह काम्यता के साथ साथ अकाम्य जीवन-भाव नहीं है |
          विचार आगे बढ़ता है ... बचपन से युवावस्था तक के अति-महत्वपूर्ण काल में माता-पिता के घर में न जाने कितनी काम्यता, ममत्व, मनोयोग, रूचि, धैर्य से सभी की सेवा, सहयोग से एक-एक वस्तु के चुनाव, सजावट से. सर्जनात्मकता से घरोंदों का निर्माण करती है नारी | और फिर सब कुछ त्यागकर, जिसका उसे सदा अहसास भी रहता ही है, एक पल में चल देती है एक अनजान डगर पर एक अन्य भाव के प्रेम की चाह व विश्वास में, परन्तु वैश्विक परमार्थ, नव-सृजन एवं प्रकृति प्रवाह हेतु | त्याज्य जानकर भी ममत्व से यथोचित कर्म ही तो निष्काम्यता, तप, साधना है, विराग है, योग है | और यदि इसी चाह में उसे छला जाता है, उसके विश्वास, आशा व आस्था को छाला जाता है, तो कितनी आत्म-व्यथा, उत्प्रीडन व पीड़ा को आत्मसात करना होता होगा, इसकी कल्पना कहाँ की जा सकती है | 
           स्मृति में राष्ट्रकवि और उनकी पंक्तियाँ तैरने लगती हैं....
                                 “ अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
                                  आँचल में है दूध और आँखों में पानी |”

         मैं सोचने लगा कि गुप्तजी ने एसा क्यों कहा होगा, शायद समकालीन अशिक्षा, अत्याचार, उत्प्रीणन, प्रतारणा, अनाचरण  व अंधविश्वासों का दंश झेलती नारी के परिप्रेक्ष्य में जो बहुत कुछ आज भी है |  परन्तु मैं सोचता हूँ कि इसे यदि हम इस प्रकार सोचें कि ...माँ के ममत्व व दुग्धामृत रूपी संसार की सृजन, पालन व तारतम्यता, क्रमिकता की शक्ति स्वयं में समाये हुए, बचपन व युवावस्था की प्रेमिल कर्ममयी स्मृतियों रूपी एवं भविष्य की आशा, आकांक्षा, कल्पना रूपी नीर को नयनों में बसाए हुए...सब कुछ प्राप्त करके फिर उसे त्याग करके चल देने वाला नारी जीवन क्या कर्ममय तप साधना व योग पूर्ण जीवन नहीं है |  पति गृह जाकर फिर वही ईंट-ईंट जुटा कर नवीन घरोंदा तैयार करती है और पुनः एक दिन वह सब भी कुछ छोड़कर बेटे को, एक अन्य स्त्री ..पुत्र-वधू को सोंप देती है | यही नारी का जीवन-क्रम है| यद्यपि यह संस्कारित क्रम है...समाज द्वारा सृजित और चलता वह सृष्टि-क्रम की भाँति है...परन्तु नारी के प्रेम से अनुप्राणित तप, त्याग साधना के बल पर ही तो |
            विचार क्रम आगे बढ़ता है ..क्या नारी जीवन सच्चे अर्थों में ईशोपनिषद में दिए हुए भारतीयता के मूल मन्त्र  “ तेन त्यक्तेन भुंजीथा” एवं " विद्या सह अविद्या यस्तत वेदोभय सह " अथवा " सम्भूतिं च असम्भूतिं च यस्तद्वेदोभय सह " को चरितार्थ नहीं करता ...संसार, अर्थ, काम,ममत्व के साथ-साथ नैष्काम्य कर्म ..तप और त्याग का जीवन | तो फिर हम क्यों नहीं जयशंकर प्रसाद के उद्घोष ..”नारी तुम केवल श्रृद्धा हो “ का  स्मरण कर उसे श्रृद्धा-रूप स्वीकार करके उसे मानव के, संसार के व स्वयं उसके अपने जीवन के सुन्दर समतल में पीयूष श्रोत के समान बहने में उसकी तप-साधना में सहयोगी होते हैं | क्यों  अत्याचार, अनाचार व दुष्कर्मों द्वारा उसके जीवन की बाधा बनते हैं, बन रहे हैं.... आखिर हम कब  ....... |
        ‘ अरे ! इतनी देर से बेसिन के सामने खड़े हुए दीवार को क्या घूरे जारहे हो | क्या सोच रहे हो ....’ अचानक श्रीमती जी आवाज से मैं चौंक पड़ता हूँ, फिर मुस्कुराकर पूछता हूँ ..
       ‘ ये टाइल्स राशिका सिलेक्ट कर के लाई थी न ?’
       ‘ओह! तो यह बात है, बेटी की याद आरही है | कह देते हैं कि दोनों कुछ दिन के लिए यहाँ आकर रह जायं|

 

8 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

प्रेम भरा हो स्मृतियों में..

बस यही याद आती हैं।

Rajesh Kumari ने कहा…

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार २ १ / ५ /१ ३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है ।

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद राजेश जी....

shyam gupta ने कहा…

dhanyvaad paande jee ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

विचारणीय .... नारी हर जगह को सौन्दर्य प्रदान करती है .... बचपन से सुनने के बाद भी घर और परिवार को पराया नहीं समझती ।

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद संगीता जी....आभार

kshama ने कहा…

meri smrutiyonme kewal katuta bhari hai jo meri beemareeka karan bani hui hai.

shyam gupta ने कहा…

क्षमा जी ....कई बार एसा होता है दुस्वप्न जैसी स्मृतियाँ अधिक होती हैं ...परन्तु यह तो अपना अपना भाग्य व अपना अपना आसमान होता है ...
----मैंने आपके ब्लॉग पर कहाँ कमी है ..इस पर टिप्पणी की है कृपया पढ़ें ..
---- मेरा विचार है कि किसी से कह देने से या लिख देने से मन को सांत्वना मिलाती है अतः आप लिख कर उचित ही कर रही हैं....यह माया संसार सुख-दुःख सहित...सब ईश्वर की इच्छा समझकर स्वीकारें व काव्य में मन लगाएं...रोग से भी विमुक्ति प्राप्त करें ऐसी हमारी आकांक्षा व प्रार्थना है ...