....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
रामचरित मानस में एक विशिष्ट प्रसंग है ....चौपाई
है....
‘ निशचरि
एक सिन्धु महं रहई, करि माया नभ के खग गहई|’
जीव जीव जंतु जो गगन उड़ाहीं, जल विलोकि तिनकी
परिछाही | गहहि छाँह सक सो न उड़ा ही, एहि बिधि सदा गगनचर खाई |
हनुमान जी जब सीता की खोज में लंका
प्रयाण के समय सागर के ऊपर से उड़ रहे थे तो समुद्र के अन्दर रहने वाली मायावी
राक्षसी ने उन्हें उनकी छाया द्वारा पकड़ना चाहा जैसा कि वह सदैव ही करती थी आकाश
में उड़ते हुए पक्षियों को उनके छाया से ही वास्तव में पकड़कर अपना भोजन बनाती थी | यह अत्यंत उच्च वैज्ञानिक ज्ञान के प्रयोग का प्रसंग है |हनुमान जी द्वारा उसे मार देने पर क्या उसी राक्षसी का परिवार ही तो वहां से भागकर आज के
बरमूडा ट्राई एंगल...के सागरीय क्षेत्र में निवास नहीं कर रहा जो उड़ते हुए विमानों
एवं सागर तल पर तैरते हुए जलयानों को खींच लेता है |
3 टिप्पणियां:
हो भी सकता है। भक्त सब कुछ साध सकता है भगवान् की तरह बढ़िया कल्पना और निष्कर्ष
हो भी सकता है। भक्त सब कुछ साध सकता है भगवान् की तरह बढ़िया कल्पना और निष्कर्ष
सही कहा शर्मा जी....
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