....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ..
आजकल धर्म व सेवा कार्यों की बाढ़ सी आगई है, कोइ एक लाख पेड़ लगवाता है, कोइ पशुओं की संवेदना-सुरक्षा, कोइ जल-वायु, पर्यावरण की चिंता, कोइ भ्रष्टाचार पर भाषण, कोइ धार्मिक श्रृद्धा जागरण, कोइ देश-जाति सम्मान पर विचार-सेवाएं देने को आतुर-तत्पर है |
परन्तु मेरे विचार में ये सब कृतित्व पत्तियों, फल-फूल , शाखाओं आदि पर जल छिड़कने के समान हैं | मानव समाज व जीवन का मूल -मानव आचरण में है, जब तक मानव मात्र का आचरण संवर्धन नहीं होगा कोई भी कार्य सम्पूर्ण नहीं होसकता, संसार के द्वंद्व कम नहीं होंगे |
ठीक है पत्तियों शाखाओं आदि पर संवर्धन-छिडकाव आदि भी आवश्यक है | परन्तु मानव आचरण सुधार की बात मूल अत्यावश्यक तत्व है | इसके सुधरते ही सब कुछ ठीक होने लगता है .....प्रस्तुत है एक रचना ----
आजकल धर्म व सेवा कार्यों की बाढ़ सी आगई है, कोइ एक लाख पेड़ लगवाता है, कोइ पशुओं की संवेदना-सुरक्षा, कोइ जल-वायु, पर्यावरण की चिंता, कोइ भ्रष्टाचार पर भाषण, कोइ धार्मिक श्रृद्धा जागरण, कोइ देश-जाति सम्मान पर विचार-सेवाएं देने को आतुर-तत्पर है |
परन्तु मेरे विचार में ये सब कृतित्व पत्तियों, फल-फूल , शाखाओं आदि पर जल छिड़कने के समान हैं | मानव समाज व जीवन का मूल -मानव आचरण में है, जब तक मानव मात्र का आचरण संवर्धन नहीं होगा कोई भी कार्य सम्पूर्ण नहीं होसकता, संसार के द्वंद्व कम नहीं होंगे |
ठीक है पत्तियों शाखाओं आदि पर संवर्धन-छिडकाव आदि भी आवश्यक है | परन्तु मानव आचरण सुधार की बात मूल अत्यावश्यक तत्व है | इसके सुधरते ही सब कुछ ठीक होने लगता है .....प्रस्तुत है एक रचना ----
सत्य शुचि आचरण जरूरी है .....
न कोई नीति नियम, न कोई रीति धरम,
न कोई योग करम शास्त्र ही जरूरी है |
न कीर्तन न भजन, न ज्ञान का प्रवचन,
न कोई तीर्थ न दान-पुण्य जरूरी है |
बात हो अनय-अनीति के समापन की |
या कि सद्नीति- नय के स्थापन की |
एक ही नीति-नियम सर्वदा सनातन है |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |
बात चाहे हो दहेज़ के संचारण की |
बात पत्नी के हो दाह की, प्रतारण की |
बात हो चाल-चलन की, अशुभ विचारण की |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |
भ्रष्ट आचरण आचार व तन मन से हुए |
भूलकर देश धरम, लिप्त निज स्वार्थ हुए |
कैसे भर पायं स्वयं खोदे हुए अंधे कुए |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |
संस्थाएं, नीति-नियम,शास्त्र व समाज सभी ,
जड़, निर्जीव व अविचारी हुआ करते हैं |
जीव, मानव ही तो सोच समझ पाता है ,
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है ||
न कोई नीति नियम, न कोई रीति धरम,
न कोई योग करम शास्त्र ही जरूरी है |
न कीर्तन न भजन, न ज्ञान का प्रवचन,
न कोई तीर्थ न दान-पुण्य जरूरी है |
बात हो अनय-अनीति के समापन की |
या कि सद्नीति- नय के स्थापन की |
एक ही नीति-नियम सर्वदा सनातन है |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |
बात चाहे हो दहेज़ के संचारण की |
बात पत्नी के हो दाह की, प्रतारण की |
बात हो चाल-चलन की, अशुभ विचारण की |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |
भ्रष्ट आचरण आचार व तन मन से हुए |
भूलकर देश धरम, लिप्त निज स्वार्थ हुए |
कैसे भर पायं स्वयं खोदे हुए अंधे कुए |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |
संस्थाएं, नीति-नियम,शास्त्र व समाज सभी ,
जड़, निर्जीव व अविचारी हुआ करते हैं |
जीव, मानव ही तो सोच समझ पाता है ,
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है ||
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