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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 31 मार्च 2017

हरि अनंत हरि कथा अनंता .... ब्रह्म, माया और ब्रह्माण्ड---डा श्याम गुप्त

                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

------हरि अनंत हरि कथा अनंता .... ब्रह्म, माया और ब्रह्माण्ड -----
                       ( सृष्टि सृजन के दिवस चैत्र प्रतिपदा १ - पर विशेष आलेख-)

----------- हरि अनंत हैं और सृष्टि अनंत हैं | इस अनंतता के वर्णन में कोई भी सक्षम नहीं है | परन्तु मन-मानस में मनन/अनुभूति रूपी जो अनंत प्रवाह उद्भूत होते रहते हैं वे विचार रूपी अनंत ब्रहम का सृजन करते हैं| जब एक अनंत स्वयं अनंत के बारे में अनंत समय तक अनंत प्रकार से मनन करता है तो स्मृतियों की संरचना होती है और सृष्टि की संरचना होने लगती है यह उस अनंत की ही माया है जो स्वयं अनंत है एवं उसी अनंत ब्रह्म की प्रेरणा से उद्भूत है| इस अनंत माया, अनंत सृष्टि के वर्णन का प्रत्येक मन अपनी अपनी भाँति से प्रयत्न करता है तो अनंत स्मृतियों की सृष्टि होती है | दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान, विज्ञान इन्हीं मनन-चिंतन आदि के प्रतिफल हैं| सब कुछ उसी अनंत से उद्भूत है और उसी में समाहित होजाता है | इस प्रक्रिया के मध्य विचार, ज्ञान व कर्म का जो माया उद्भूत चक्र है, वह सृष्टि है संसार है, जीवन है | इस अनंत व अनंतता को किसी कथा व पन्नों में समेटना एक धृष्टता ही है |
------------- विश्व व भारत के भूगोल, भौगोलिक संरचना, वेद-पुराण, मनु व जलप्रलय, इतिहास, साहित्य, वैज्ञानिक खोजों से प्राप्त ज्ञान, नृवंशशास्त्र व हेरीडिटी सम्बंधित नवीन शोधों, नृतत्व शास्त्र, भाषा व लिपि, जातियों के उत्थान-पतन के इतिहास, सभ्यता, समाज के उद्भव, दर्शन, धर्म, ज्योतिष, समय के कल्प विभाजन, युद्धों आदि की वर्त्तमान व भूतकालीन घटनाओं, ज्ञान के प्रवाह से उद्भूत कल्पनाओं के आधार रूपी विशाल फलक पर मेरे मन में ब्रह्माण्ड व सृष्टि की उत्पत्ति व संरचना की जो कथा उभरती है उसके अनुसार इस अनंत विषय को दो विभागों में वर्णित किया जासकता है |

1.भाग क –सृष्टि व ब्रह्माण्ड का आविर्भाव
2.भाग ख- जीवन का प्रादुर्भाव
-------आज के सन्दर्भ में इस पोस्ट में हम भाग क का ही वर्णन करंगे----
****भाग –क -सृष्टि व ब्रह्माण्ड का आविर्भाव****

आधुनिक विज्ञान इसे  यूं वर्णित करता है ---- 

----------उत्पत्ति का मूल "बिग-बैंग सिद्धांत" है। प्रारंभ में ब्रह्माण्ड एकात्मकता स्थिति (सिंगुलारिटी) में, शून्य आकार व अनंत ताप रूप (infinite hot ) था।
१ अचानक एक विष्फोट हुआ -बिग-बैंग , और १/१०० सेकंड में तापक्रम सौ बिलियन सेंटीग्रेड हो गया। उपस्थित स्वतंत्र -ऊर्जा एवं विकिरण से असंख्य उप-कण उत्पन्न होकर अनंत ताप के कारण एक दूसरे से बिखंडित होकर तीब्रता से दूर होने लगे। ये सब हलके उपकण इलेक्ट्रोन, पोज़िट्रान, व न्‍यूट्रान थे । जो शून्य भार, शून्य चार्ज थे एवं फ्री-ऊर्जा से लगातार बनते जा रहे थे।
२- एनिहिलेसन स्टेज -कणों के एक दूसरे से दूर जाने से तापमान कम होने पर भारी कण बनने लगे जो १००० से १ के अनुपात से बने। वे मुख्यतया इलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्‍युट्रोन व फोटोन (प्रकाश कण) थे। ये ऎटम- पूर्व कण बने। साथ ही भारी मात्रा में स्वतंत्र ऊर्जा भी थी।
३- स्वतंत्र केन्द्रक (न्युक्लिअस) १४ वे सेकंड में तीब्र एनिहिलाशन (सान्द्री करण) से काम्प्लेक्स न्युक्लिअस के बनने पर १ प्रोटोन व १ न्युत्रोन से हाइड्रोजन व २ प्रोटोन+ २ न्युत्रोन से हीलियम के अणु पूर्व कण बनने लगे।
४- तीन मिनट के अंत में शेष हलके कण, न्‍यूट्रान्‍स, प्रति-न्यूट्रान्‍स, लघु केन्द्रक कण के साथ ही ७३% हाइड्रोजन व २७ % हीलियम मौजूद थे। कोई एलेक्ट्रान शेष नहीं थे। अतः ठंडे होने की प्रक्रिया लाखों सालों तक रुकी रही। हाँ उपस्थित कणों के एकत्रीकरण (क्लाम्पिंग) की प्रक्रिया से गेलेक्सी (आकाश गंगाएं) व तारे आदि बनने की प्रक्रिया प्रारम्‍भ हो गयी थी।
५- ताप जब और गिरने से बहुत अधिक ठंडा होने पर पुनः ऊर्जा के निस्रत होने पर प्रोटोन न्युक्लयूस के साथ मिलकर केन्द्र में स्थित होने पर न्युत्रांस उसके चारों और एकत्र होगये एवं प्रथम परमाणु (एटम) का निर्माण हुआ जो हाइड्रोजन व हीलियम गैस बने। ये एटम ऊर्जा के साथ भारी पदार्थ व गेलेक्शी बनाने लगे। इस प्रकार भारी पदार्थ, हीलियम, हाइड्रोजन, हलके-कण व ऊर्जा मिलकर विभिन्न पदार्थ बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई।
-न्यूट्रिनो +एंटी-न्यूट्रिनो + चार्ज भारी-इलेक्ट्रोन =ठोस पदार्थ ( सोलिड्स), तारे, ग्रह ,पिंड आदि।
-बाकी एलेक्ट्रोन + पोजित्रोन+ ऊर्जा =तरल पदार्थ ( लिक्विड) ,जल आदि।
-फोटोन ( प्रकाश कण )+बाकी ऊर्जा =कम घनत्व के पदार्थ- नेबुला, गैलेक्सी आदि।
--------और फिर किसी रासायनिक क्रिया से अमीनो एसिड , प्रोटीन आदि के संयोग से जीव बना और विकसित होता गया मानव तक | इस प्रकार सारा ब्रह्माण्ड बनता चला गया। विभिन्न अणुओं से विभिन्न समस्त पदार्थ बने। और ब्रह्म का माया संसार चलने लगा|


            और वैदिक विज्ञान,--- जो वस्तुतः संसार के धर्म, दर्शन की रीढ़ हैं, अतः दार्शनिक, धार्मिक समाज इसी को इस प्रकार कहते हैं----
-----------अज्ञान-अनाचार के अन्धकार में यह ब्रह्माण्ड हमत कल्प में ---अन्धेन तमसावृता .... ---सृष्टि व मानव का रचयिता "परब्रह्म" ईश्वर है ।

१.**सृष्टि पूर्व** ----
--ऋग्वेद के नासदीय सूत्र (१०/१२९/१ व २ ) के अनुसार ---
"न सदासीन्नो,सदासीत्त दानी । न सीद्र्जो नो व्योमा परोयत ॥ ….एवं
"आनंदी सूत स्वधया तदेकं । तस्माद्वायान्न परःकिन्चनासि ॥"

------अर्थात प्रारंभ में न सत् था न असत ,न परम व्योम व व्योम से परे लोकादि सिर्फ़ वह एक अकेला ही स्वयं की शक्ति से (स्वयाम्भाव ) गति शून्य होकर स्थित था, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था। तथा-
"अशब्दम स्पर्शमरूपमव्ययम तथा रसं नित्यं गन्ध्वच्च यत" (कठोपनिषद -१/३/१५)
-अर्थात वह वह ईश्वर अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, नित्य व अनादि है। भार रहित व गति रहित,स्वयम्भू है, कारणों का कारण, कारण-ब्रह्म है। उसे ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया।

२. **परब्रह्म का भाव संकल्प**-
-------- उस परब्रह्म ने अहेतुकी सृष्टि-प्रवृत्ति से, सृष्टि हित भाव संकल्प किया तथा ॐ के रूप में मूल अनाहत नाद स्वर अवतरित होकर भाव संकल्प से अवतरित व्यक्त साम्य अर्णव (महाकाश, मनोआकाश, गगन या ईथर या परम व्योम) में उच्चरित होकर गुंजायमान हुआ, जिससे अक्रिय ,असत,निर्गुण व अव्यक्त असद परब्रह्म --- सक्रिय, सत्, सगुण व सद् व्यक्त परब्रह्म हिरण्यगर्भ (जिसके गर्भ में स्वर्ण अर्थात सब कुछ है) के रूप में प्रकट हुआ। जो स्वयम्भू (जिसमें सबकुछ- जीव, जड़, प्रकृति, चेतनसब कुछ स्थित है)

३**.एकोहम बहुस्यामः **-
----------व्यक्त ब्रह्म -हिरण्यगर्भ की सृष्टि हित -ईषत इच्छा, एकोहं बहुस्यामः (अब में एक से बहुत हो जाऊँ, जो सृष्टि का प्रथम काम संकल्प-मनो रेतः संकल्प था); उस साम्य अर्णव में ॐ के अनाहत नाद में स्पंदित हुई। प्रतिध्वनित स्पंदन से महाकाश की साम्यावस्था भंग होने से अक्रिय अपः (अर्णव में उपस्थित अव्यक्त मूल इच्छा तत्व) सक्रिय होकर व्यक्त हुआ व उसके कणों में हलचल से आदिमूल अक्रिय ऊर्जा, सक्रिय ऊर्जा में प्रकट हुई व उसके कणों में भी स्पंदन होने लगा। कणों के इस द्वंद्व -भाव से , महाकाश में एक असाम्यावस्था व अशांति की स्थिति उत्पन्न हो गई।

४.**अशांत अर्णव **--
--------(परम व्योम) आकाश में मूल अपः तत्व के कणों की टक्कर व द्वंद्व से ऊर्जा की अधिकायत मात्रा उत्पन्न होने लगी, साथ ही साथ ऊर्जा व आदि अपः कणों से परमाणु पूर्व कण तो बनने लगे परन्तु कोई निश्चित सततः प्रक्रिया नहीं थी।

५.**नाभिकीय ऊर्जा (न्यूक्लीयर इनर्जी)**-
--------ऊर्जा व कणों की अधिक उपलब्धता से, प्रति १००० इकाई ऊर्जा से एक इकाई नाभिकीय ऊर्जा की उत्पत्ति होने लगी, जिससे ऋणात्मक, धनात्मक, अनावेषित व अति-सूक्ष्म केन्द्रक कण आदि परमाणु पूर्व कण बनने लगे। पुनः विभिन्न प्रक्रियाओं (रासायनिक व भौतिक संयोग या यज्ञ) द्वारा असमान धर्मा कणों से विभिन्न नए नए कण व समान धर्मा कण स्वतंत्र रूप से (क्योंकि समान धर्मा कण आपस में संयोग नहीं करते, यम्-यमी आख्यान -ऋग्वेद) महाकाश में उत्पन्न होते जा रहे थे।

६.**रूप सृष्टि कण **--
--------उपस्थित ऊर्जा एवं परमाणु पूर्व कणों से विभिन्न अदृश्य व अश्रव्य रूप कण (भूत कण -पदार्थ कण )बने जो अर्यमा (सप्तवर्ण -प्रकाश व ध्वनिकण,सप्त होत्र (सात इलेक्ट्रोनवाले असन्त्रप्त) अजैविक (इनोर्गेनिक ) व अष्ट बसु (८ इले .वाले संतृप्त ) जैविक (ओरगेनिक ) कण थे।

७.**त्रिआयामी रूप सृष्टि कण**-
---------उपरोक्त रूप कण व अधिक ऊर्जा के संयोग से विभिन्न त्रिआयामी कणों का आविर्भाव हुआ, जो वस्तुतः दृश्य रूप कण, अणु, परमाणु थे जिनसे विभिन्न रासायनिक, भौतिक, नाभिकीय आदि प्रक्रियाओं (इन्द्र व अन्य ऋषियों की यज्ञों) से समस्त भूत कण, ऊर्जा व पदार्थ बने।

८.**चेतन तत्व का प्रवेश**-
---------वैदिक विज्ञान के अनुसार- वह चेतन परब्रह्म ही सचेतन भाव व प्रत्येक कण का क्रियात्मक भाव तत्व बन कर उनमें प्रवेश करता है ताकि आगे जीव-सृष्टि तक का विस्तार हो पाये। इसी को दर्शन में प्रत्येक बस्तु का अभिमानी देव कहा जाता है, यह ब्रह्म ही चेतन प्राण तत्व है जो सदैव ही उपस्थित रहता है और जीवन की उत्पत्ति करता है। इसीलिए कण-कण में भगवान कहा जाता है।
---------- इस प्रकार ये सभी कण महाकाश में प्रवाहित हो रहे थे ऊर्जा के सहित। इसी कण-प्रवाह को वायु- नाम से सर्व प्रथम उत्पन्न तत्व माना गया, कणों के मध्य स्थित विद्युत विभव अग्नि (क्रियात्मक ऊर्जा) हुआ। भारी कणों से जल तत्व की उत्पत्ति हुई । जिनसे आगे -------जल -से सारे जड़ पदार्थ -ठोस ,तरल ,गैसीय आदि। -----अग्नि -से सब ऊर्जाएं। -----वायु -से मन-भाव, बुद्धि, अहम्, शब्द आदि।

९.**विश्वोदन अजः (पंचौदन अजः)**-
-------अजः =अजन्मा तत्व, जन्म-मरण से परे। ये सभी तत्व, ऊर्जाएं, सभी में सत्, तम्, रज रूपी गुण, व चेतन देव- संयुक्त सृष्टि निर्माण का मूल पदार्थ (विश्वोदन अजः --सृष्टि कुम्भकार ब्रह्मा की गूंथी हुई माटी) सारे अन्तरिक्ष में तैयार था, सृष्टि रचना हेतु।

१०.**मूल चेतन आत्म भाव (३३ देव)**- 
 ---------चेतन जो प्रत्येक कण का मूल क्रिया भाव बनाकर उसमें बसा, वे ३३ भाव-रूप थे, जो ३३ देव कहलाये। ये भाव-देव है--११ रुद्र --विभिन्न प्रक्रियाओं के नियामक; १२ आदित्य-प्रकृति चलाने वाले नीति निर्देशक; ८ बसु- मूल सेद्धान्तिक रूप, बल, वर्ण, नीति नियामक; इन्द्र- संयोजक व विघटक, नियमन व प्रजापति- सब का आपस में संयोजक व समायोजक भाव- ये सभी भाव तत्व पदार्थ, सिन्धु- (महाकाश, अन्तरिक्ष) में पड़े थे। विश्वोदन अजः के साथ।

११.**भाव पदार्थ निर्माण **--------
-------(विक्रतियां या भाव रूप श्रष्टि---सभी भाव मूल रूप से अहं (सत,तम.रज गुणों सहित) के परिवर्तित रूप से बने-
----अहं के तामस भाव से--शब्द, आकाश, धारण, ध्यान, विचार, स्वार्थ, लोभ, मोह, भय, सुख-दुख आदि।
----अहं के राजस-भाव से --५ ग्यानेन्द्रियां-कान, नाक, नेत्र, जिव्हा, त्वचा--५ कर्मेन्द्रियां --वाणी, हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ व रूप भाव से तैजस (वस्तु का रसना भाव)जिससे जल के सन्योग से गन्ध सुगन्ध आदि बने।
-----अहं के सत भाव से ---मन (११वीं इन्द्रिय), ५ तन्मात्रायें(ग्यानेन्द्रियों के भाव- शब्द, रूप, स्पर्श,गन्ध, रस) एवम १० इन्द्रियों के अधिष्ठाता देव ।

१२.**समय ( काल )**--
---------अन्तरिक्ष में स्थित बहुत से भारी कणो ने, मूल स्थितिक ऊर्जा, नाभीय व विकिरित ऊर्ज़ा, प्रकाश कणों को अत्य्धिक मात्रा में मिलाकर कठोर-बन्धनों वाले कण-प्रतिकण (राक्षस) बनालिये थे. वे ऊर्जा का उपयोग रोक कर प्रगति रोके हुए थे। पर्याप्त समय बाद क्रोधित इन्द्र ( रासायनिक प्रक्रिया--यग्य) ने बज्र (विभिन्न उत्प्रेरक तत्वों) के प्रयोग से उन को तोडा। वे बिखरे हुए कण-काल कान्ज या समय के अणु कहलाये। इन सभी कणों से-----
१.---विभिन्न ऊर्जायें, हल्के कण व प्रकाश कण मिल्कर विरल पिन्ड (अन्तरिक्ष के शुन) कहलाये जिनमें नाभिकीय ऊर्ज़ा के कारण सन्योजन व विखन्ड्न (फ़िज़न व फ़्यूज़न) के गुण थे, उनसे सारे नक्षत्र (सूर्य तारे आदि),आकाश गंगायें(गेलेक्सी) व नीहारिकायें(नेब्युला) आदि बने।
२.---मूल स्थितिक ऊर्ज़ा, भारी व कठोर कण मिलाकर, जिनमें उच्च ताप भी था, अन्तरिक्ष के कठोर पिन्ड, ग्रह, उप ग्रह, प्रथ्वी आदि बने। --क्योंकि ये सर्व प्रथम द्रश्य ग्यान के रचना-पिन्ड थे व एक दूसरे के सापेक्ष घूम रहे थे ,इसके बाद ही अन्य द्रश्य रचनायें हुईं अतः समय की गणना यहीं से प्रारम्भ मानी गई।
(शायद इन्हीं काल-कान्ज कणों को विज्ञान के बिग-बेन्ग -विष्फ़ोट वाला कण कहा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान यहां से अपनी श्रष्टि-निर्माण यात्रा प्रारम्भ करता है।) 

१३.**जीव-श्रष्टि की भाव संरचना**--
--------- वह चेतन परब्रह्म, परात्पर-ब्रह्म, ( स्व: )-- जड व जीव दोनों में ही निवास करता है उस ब्रह्म का भूः रूप (सावित्री रूप) जड श्रष्टि करता है एवम भुवः (गायत्री रूप) जीव श्रष्टि की रचना करता है। इस प्रकार---
---परात्पर (अव्यक्त) से- परा शक्ति (आदि-शंभु-अव्यक्त) एवम अपरा शक्ति (आदि-माया-अव्यक्त) इन दोनों के संयोग से महत-तत्व (आदि-जीव-तत्व--व्यक्त)। महत्तत्व से =आदि विष्णु (व्यक्त पुरुष) व आदि माया (व्यक्त अपरा शक्ति)।
----आदि विष्णु से--महा विष्णु, महा शिव, व महा ब्रह्मा- क्रमशः-पालक, संहारक व धारक तत्व, एवम -
---आदि माया से-- रमा-उमा व सावित्री, क्रमशः- सर्जक, संहारक व स्फ़ुरण तत्व बने।
---------महा विष्णु व रमा के संयोग (सक्रिय तत्व कण व स्रजक ऊर्जा के संयोग) से अनन्त चिदबीज या हेमांड या ब्रह्मान्ड या अन्डाणु उत्पत्ति हुई,जो असन्ख्य व अनन्त संख्या में महाविष्णु (अनन्त अंतरिक्ष में) के रोम-रोम में (सब ओर बिखरे हुए) व्याप्त थे। प्रत्येक हेमान्ड की स्वतन्त्र सत्ता थी।
------प्रत्येक हेमान्ड में- महाविष्णु से उत्पन्न, विष्णु-चतुर्भुज, (स्वयम भाव) व लिंग महेश्वर और ब्रह्मा (विभिन्नान्श), तीनों देव (त्रिआयामी जीव सत्ता) ने प्रवेश किया।
------इस प्रकार इस हेमान्ड में-- त्रिदेव, माया, परा-अपरा ऊर्जा, द्रव्य प्रक्रति व उपस्थित विश्वोदन अजः उपस्थित थे, श्रष्टि रूप में उद्भूत होने के लिये।
------(अब आधुनिक विज्ञान भी यही मानता है कि अन्तरिक्ष में अनन्त-अनन्त आकाश गंगायें, अपने-अपने अनन्त सौर-मन्डल व सूर्य, ग्रह आदि के साथ, जो प्रत्येक अपनी स्वतन्त्र सत्तायें हैं। )----

१४.**श्रष्टि-निर्माण ग्यान भूला हुआ ब्रह्मा**- (निर्माण में रुकावट)**-
--------लगभग एक वर्ष तक (ब्रह्मा का एक वर्ष=मानव के करोडों वर्ष) ब्रह्मा- जिसे श्रष्टि निर्माण करना था, उस हेमान्ड में घूमता रहा। वह निर्माण-प्रक्रिया समझ नहीं पा रहा था। (आधुनिक विज्ञान के अनुसार- हाइड्रोजन, हीलियम- समाप्त होने पर निर्माण क्रम युगों तक रुका रहा, फ़िर अत्यधिक शीत होने पर ऊर्जा बनने पर ये क्रिया पुनः प्रारम्भ हुई।)
----जब ब्रह्मा ने विष्णु की प्रार्थना की तथा क्षीर सागर (अन्तरिक्ष, महाकाश, ईथर) में उपस्थित, शेष-शय्या (बची हुई मूल संरक्षित ऊर्जा) पर लेटे नारायण (नार= जल, अन्तरिक्ष; अयन= निवास, स्थित ,विष्णु) की नाभि (नाभिक ऊर्जा) से स्वर्ण कमल (सत, तप, श्रद्धा रूप आसन) पर वह ब्रह्मा (कार्य रूप) अवतरित हुआ। आदि माया सरस्वती (ज्ञान भाव) का रूप धर वीणा बजाती हुई (ज्ञान के आख्यानों सहित) प्रकट हुई एवम ब्रह्मा के ह्रदय में प्रविष्ट हुई, और उसे श्रष्टि निर्माण क्रिया का ज्ञान हुआ।

१५. **ब्रह्मा द्वारा श्रष्टि रचना का मूल सन्क्षिप्त क्रम**- चार चरणों में रचना-----
---प्रथम चरण (सावित्री परिकर)-- मूल जड-श्रष्टि कि रचना--जो निर्धारित, निश्चित अनुशासन (कठोर रासायनिक व भौतिक नियमों) पर चलें, व सततः गतिशील व परिवर्तन शील रहें।
--तीनचरण( गायत्री परिकर) जीव सत्ता जो-
.देव- सदा देते रहने वाले, परमार्थ-भाव से युक्त- प्रथ्वी, अग्नि, पवन, वरुण एवम वृक्ष (वनस्पति जगत)
.मानव—आत्म-बोध से युक्त, ज्ञान-कर्म मय पुरुषार्थ युक्त, जो पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ तत्व हुआ।
.प्राणि जगत- प्रक्रति के अनुसार, सुविधा भव से जीने वाले, व मानव एवम वनस्पति व भौतिक जगत के मध्य सन्तुलन रख्ने वाले जीव।
-------क्या यह एक संयोग नहीं है कि विज्ञान जीवन को संयोग से मानता है (बाइ चांस) वहीं वेद उसे महा विष्णु व रमा (पुरुष व प्रक्रति) के संयोग से कहता है। हां यह संयोग ही है।-----

१६-**श्रिष्टि-विनिर्माण प्रक्रिया व लय**---
-------प्रत्येक हेमांड (ब्रह्माण्ड या गेलेक्सी) समस्त प्रादुर्भूत मूल तत्वों सहित स्वतंत्र सत्ता की भांति -महाकाश, अन्तरिक्ष में उपस्थित था। ब्रह्मा को सृष्टि निर्माण का ज्ञान होने पर उसने समस्त तत्वों को एकत्र करके सृष्टि को रूप देना प्रारंभ किया।
------इसे विश्व संगठन प्रक्रिया कह सकते हैं। ब्रह्मा ने हेमांड को दो भागों में विभाजित किया!----
-- ---ऊपरी भाग में--- हलके तत्व एकत्र हुए जो आकाश भावः कहलाया। जिससे समय, गति, शब्द, गुण, वायु, महतत्व, मन, तन्मात्राएँ, अहं, वेद (ज्ञान) आदि रचित हुए।
----मध्य भाग ---दोनों का मिश्रण जल भाव हुआ जिससे जलीय, रसीय, तरल तत्व, इन्द्रियाँ, कर्म, अकर्म, सुख-दुःख व प्राण आदि का संगठन हुआ।
----नीचे का भाग भारी तत्व---- भाव था जो पृथ्वी भाव हुआ जिससे, पदार्थ तत्व, जड़, जीव, ऊर्जा, ग्रह, पृथ्वी, प्रकृति, दिशाएँ, लोक, निश्चित रूप भाव वाले रचित हुए। ऊर्जा व वाणी, प्रकाश, त्रिआयामी पदार्थ कण से नभ, भू, जल के प्राणी हुए। संगठित तत्व बिखरें नहीं इस हेतु नियमन शक्तियों का निर्माण- किया गया- ये नियामक थे- संगठक शक्ति का भार इन्द्र को, पालक का -इन्द्र, सरस्वती, भारती, अग्नि, सूर्य आदि देवों व ऊर्जाओं को पोषण के लिए -वातोष्पति, रूप गठन को त्वष्टा, कार्य नियमन को -अश्वनी द्वय (वैद्य व पंचम वेद आयुर्वेद -ब्रह्मा के पंचम मुख से) तथा कर्म नियमन को चार वेद -अपने चारों मुख से -ज्ञान एवं यम्, नियम, विधान....

१७.**रूप सृष्टि **--
---------ब्रह्मा के स्वयं के विविध भाव, रूप, गुण से, शरीर से व शरीर त्याग से -क्रमिक रूप में अन्य विविध सृष्टि की रचना हुई। ( इसे विज्ञान की भाषा में इस तरह लिया जासकता है कि ब्रह्मा = ज्ञान व मन की शक्ति -- के भावानुसार -क्रमिक विकास होता गया .....)-----
१. तमोगुणी --सोते समय की सृष्टि, तमोगुणी हुई, जो तिर्यक --अज्ञानी, भोगी, इच्छा वसी, क्रोध वश, विवेक शून्य, भ्रष्ट आचरण वाले --पशु पक्षी, पुरुषार्थ के अयोग्य ।
२.सत्व गुणी--देव -ज्ञान वान, विषय प्रेमी, दिव्य ये भी पुरुषार्थ के अयोग्य थे।
३.रजोगुणी --त़प व साधना के भाव में -----मानव की रचना -----जो अति -विक्सित प्राणी, क्रियाशील, साधन शील, तीनों गुणों युक्त-सत्, तम, रज,कर्म व लक्ष्योन्मुख, सुख-दुःख रूप, समस्त पुरुषार्थ-श्रेय-प्रेय के योग्य, द्वंद्व युक्त, ब्रह्म का सबसे उत्तम साधक हुआ।

---------इस प्रकार हरि का माया-व्यवहार संसार चलने लगा |



 

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