....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
------पुनर्मूषकोभव --आलेख --स्त्री-पुरुष विमर्श ----
------मैं अपने मित्रों से जब कभी भी अपना यह विचित्र सा लगने वाला मत या तर्क प्रस्तुत करता हूँ कि--
\
-- ‘आज की विभिन्न सामाजिक व नारी-पुरुष समस्याओं का कारण स्त्रियों का घर से बाहर निकल कर सेवा कार्य में लिप्त होजाना है ‘..---
\
-----.तो तुरंत मुझे तीब्र प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ता है ...’आपके विचार पुरानपंथी हैं’...एसा भी कहीं होता है....अपने विचार बदलिए....आधुनिक विचार रखिये....अब स्त्रियाँ स्वतंत्र होचुकी हैं....वे क्यों न नौकरी अदि कार्य करें ?..पुराने शास्त्रों का ज़माना गया, आजके युग में उनका कोइ अर्थ नहीं ...और विभिन्न रटे हुए तर्क- क्या पुराने समय में ये सब नहीं होता था राम को दशरथ/ माँ में निकाल दिया, भाई-भाई में युद्द्ध नहीं हुआ था क्या आदि आदि ..|
---------क्योंकि सभी की बहू-बेटियाँ सेवाकार्यों अर्थात कमाने में ..आफिस कार्यों में संलग्न हैं, अत: वे सामान्यतः... सभी यही कर रहे हैं...आजकल ये आधुनिक समय का चलन है...हम आगे बढ़ रहे हैं ...आदि प्रारम्भिक विचारों से आगे सोच ही नही पाते |
------इस विषय को कुछ और स्पष्ट करने हेतु कुछ तथ्यों को हम निम्न क्रम में प्रस्तुत करेंगे----
\
१. जब मानव –आदि रूप में जंगल में रहता था, नर-नारी दोनों ही स्वतंत्र थे, अपने अपने लिए शिकार करते या फल एकत्र करते थे | कुछ आदि मानव झुंडों, समूहों में भी रहते थे , परन्तु सभी नर-नारी स्वतंत्र थे उन्मुक्त सेक्स था अन्य प्राणियों की भांति| न कोइ द्वंद्व न शिकवा-शिकायत |युगों तक यह चलता रहा |
\
२.
-----जब मानव पर्वतों की गुफाओं, पेड़ों, से उतर कर झौपडियों / घरों में रहने लगा, कृषि व अन्य आर्थिक तत्वों का विकास हुआ, समाज, संस्कृति, ग्रामों-नगरों आदि का विकास होने लगा तो परिवार व्यवस्था प्रारम्भ हुई, तो संतति सुरक्षा हेतु नारी ने सायं ही गृहकार्य को प्राथमिकता दी और पुरुष ने घर चलाने, पालन पोषण का भार स्वीकार किया|
-------अब केवल पुरुष कमाता था , बाहर जाकर कार्य, सेवा, नौकरी आदि करता था | स्त्रियाँ गृहकार्य, संतति पालन-पोषण, पुरुष की आवश्यकताओं का ध्यान रखना , पढ़ने पढ़ाने , कला, साहित्य आदि कर्म में निरत थीं | कुछ स्त्रियाँ किसी मजबूरी वश सेवा कर्म करती थीं परन्तु दासी कर्म आदि जिसे अधिक सम्मान से नहीं देखा जाता था |
-------गृहकार्य आदि से निवृत्त पुरुष ने बड़े बड़े विचार, ज्ञान, सामाजिक नियम आदि पर सोचा एवं वेद-पुराण –शास्त्र आदि का प्रणयन किया| नीति नियम , व्यवहार के ,आचरण के तत्व स्थापित किये, विवाह संस्था का उदय हुआ, स्त्री-पुरुष दोनों के लियी आचार संहिता बनी | समाज में स्थायित्व, समता व आदर्श व्यवस्था थी, स्त्री-पुरुष, पति-पत्नी बनकर अपने अपने कार्यों में संतुष्ट रहकर जीवन व्यतीत करते थे |
\
३. आज के युग में पुनः स्त्री स्त्री-स्वतंत्रता के नाम पर, घर से बाहर निकालकर, सेवाकार्य में रत रहकर , स्वतंत्र नौकरी व आय के साधन प्राप्त करके, पुरुषों की बराबरी के नाम पर अपने स्त्रियोचित गुण व कर्तव्यों का बलिदान , पुरुषों के कार्यों को अपने कन्धों पर ले रही है, एवं पुरुष पालन-पोषण हेतु नौकरी के साथ साथ गृह कार्य में भी बराबरी के रूप में हिस्सा बंटा रहा है |
--------अर्थात दोनों स्वतंत्र हैं—दोनों अपने अपने लिए कमाते हैं, दोनों ही घर का कार्य, संतति पालन पोषण का कार्य करते हैं| स्त्री अपने घर के कार्य की अपेक्षा पर-दास्य कर्म को अदिक महत्ता दे रही है| अर्थात प्रारम्भिक --डिविज़न ऑफ़ लेवर—जो संतान के हित में बनाया गया था समाप्त है| दोनों पति-पत्नी केवल सेक्स / बच्चे के लिए मिलते हैं| इससे आगे बढकर वह भी आवश्यक नहीं है व सब कहीं से भी प्राप्त किया जा सकता है |
------अर्थात नारी नारी न रहकर, पुरुष पुरुष न रहकर दोनों – पुरुष + नारी बनते जारहे हैं| पुरुष का पौरुष, नारी की स्वाभाविक स्त्रीत्व सौम्यता समाप्त होकर पुनः जंगल-युग के आदि मानव की भांति केवल प्राणी-मानव रह गया है | पुनर्मूषकोभव |
------ हम पुनः वहीं आगये हैं जहां से चले थे | जिसका परिणाम है कि जिस प्रकार पश्चिमी सभ्यता में स्त्री-पुरुषों में समन्वय न होने के कारण पुरुषों के भी सामान्य भौतिक कर्मों में लिप्त होने से कभी, कोइ कहीं वेद, शास्त्र, पुराण नहीं लिखे गए |
-------आज यहाँ भी पुरुषों के घरेलू कार्यों में लिप्त होने से कोइ उच्च विचार, अपने स्वयं के विचारों , सामाजिक, सांस्कृतिक, मानवीय आचरण के सद-विचारों का उदय नहीं होपारहा है | हाँ पश्चिम की सभ्यता की नक़ल से काम चलाया जा रहा है| यूं तो लोग खुश भी हैं, अज्ञानजनित प्रसन्नता से |
------मैं अपने मित्रों से जब कभी भी अपना यह विचित्र सा लगने वाला मत या तर्क प्रस्तुत करता हूँ कि--
\
-- ‘आज की विभिन्न सामाजिक व नारी-पुरुष समस्याओं का कारण स्त्रियों का घर से बाहर निकल कर सेवा कार्य में लिप्त होजाना है ‘..---
\
-----.तो तुरंत मुझे तीब्र प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ता है ...’आपके विचार पुरानपंथी हैं’...एसा भी कहीं होता है....अपने विचार बदलिए....आधुनिक विचार रखिये....अब स्त्रियाँ स्वतंत्र होचुकी हैं....वे क्यों न नौकरी अदि कार्य करें ?..पुराने शास्त्रों का ज़माना गया, आजके युग में उनका कोइ अर्थ नहीं ...और विभिन्न रटे हुए तर्क- क्या पुराने समय में ये सब नहीं होता था राम को दशरथ/ माँ में निकाल दिया, भाई-भाई में युद्द्ध नहीं हुआ था क्या आदि आदि ..|
---------क्योंकि सभी की बहू-बेटियाँ सेवाकार्यों अर्थात कमाने में ..आफिस कार्यों में संलग्न हैं, अत: वे सामान्यतः... सभी यही कर रहे हैं...आजकल ये आधुनिक समय का चलन है...हम आगे बढ़ रहे हैं ...आदि प्रारम्भिक विचारों से आगे सोच ही नही पाते |
------इस विषय को कुछ और स्पष्ट करने हेतु कुछ तथ्यों को हम निम्न क्रम में प्रस्तुत करेंगे----
\
१. जब मानव –आदि रूप में जंगल में रहता था, नर-नारी दोनों ही स्वतंत्र थे, अपने अपने लिए शिकार करते या फल एकत्र करते थे | कुछ आदि मानव झुंडों, समूहों में भी रहते थे , परन्तु सभी नर-नारी स्वतंत्र थे उन्मुक्त सेक्स था अन्य प्राणियों की भांति| न कोइ द्वंद्व न शिकवा-शिकायत |युगों तक यह चलता रहा |
\
२.
-----जब मानव पर्वतों की गुफाओं, पेड़ों, से उतर कर झौपडियों / घरों में रहने लगा, कृषि व अन्य आर्थिक तत्वों का विकास हुआ, समाज, संस्कृति, ग्रामों-नगरों आदि का विकास होने लगा तो परिवार व्यवस्था प्रारम्भ हुई, तो संतति सुरक्षा हेतु नारी ने सायं ही गृहकार्य को प्राथमिकता दी और पुरुष ने घर चलाने, पालन पोषण का भार स्वीकार किया|
-------अब केवल पुरुष कमाता था , बाहर जाकर कार्य, सेवा, नौकरी आदि करता था | स्त्रियाँ गृहकार्य, संतति पालन-पोषण, पुरुष की आवश्यकताओं का ध्यान रखना , पढ़ने पढ़ाने , कला, साहित्य आदि कर्म में निरत थीं | कुछ स्त्रियाँ किसी मजबूरी वश सेवा कर्म करती थीं परन्तु दासी कर्म आदि जिसे अधिक सम्मान से नहीं देखा जाता था |
-------गृहकार्य आदि से निवृत्त पुरुष ने बड़े बड़े विचार, ज्ञान, सामाजिक नियम आदि पर सोचा एवं वेद-पुराण –शास्त्र आदि का प्रणयन किया| नीति नियम , व्यवहार के ,आचरण के तत्व स्थापित किये, विवाह संस्था का उदय हुआ, स्त्री-पुरुष दोनों के लियी आचार संहिता बनी | समाज में स्थायित्व, समता व आदर्श व्यवस्था थी, स्त्री-पुरुष, पति-पत्नी बनकर अपने अपने कार्यों में संतुष्ट रहकर जीवन व्यतीत करते थे |
\
३. आज के युग में पुनः स्त्री स्त्री-स्वतंत्रता के नाम पर, घर से बाहर निकालकर, सेवाकार्य में रत रहकर , स्वतंत्र नौकरी व आय के साधन प्राप्त करके, पुरुषों की बराबरी के नाम पर अपने स्त्रियोचित गुण व कर्तव्यों का बलिदान , पुरुषों के कार्यों को अपने कन्धों पर ले रही है, एवं पुरुष पालन-पोषण हेतु नौकरी के साथ साथ गृह कार्य में भी बराबरी के रूप में हिस्सा बंटा रहा है |
--------अर्थात दोनों स्वतंत्र हैं—दोनों अपने अपने लिए कमाते हैं, दोनों ही घर का कार्य, संतति पालन पोषण का कार्य करते हैं| स्त्री अपने घर के कार्य की अपेक्षा पर-दास्य कर्म को अदिक महत्ता दे रही है| अर्थात प्रारम्भिक --डिविज़न ऑफ़ लेवर—जो संतान के हित में बनाया गया था समाप्त है| दोनों पति-पत्नी केवल सेक्स / बच्चे के लिए मिलते हैं| इससे आगे बढकर वह भी आवश्यक नहीं है व सब कहीं से भी प्राप्त किया जा सकता है |
------अर्थात नारी नारी न रहकर, पुरुष पुरुष न रहकर दोनों – पुरुष + नारी बनते जारहे हैं| पुरुष का पौरुष, नारी की स्वाभाविक स्त्रीत्व सौम्यता समाप्त होकर पुनः जंगल-युग के आदि मानव की भांति केवल प्राणी-मानव रह गया है | पुनर्मूषकोभव |
------ हम पुनः वहीं आगये हैं जहां से चले थे | जिसका परिणाम है कि जिस प्रकार पश्चिमी सभ्यता में स्त्री-पुरुषों में समन्वय न होने के कारण पुरुषों के भी सामान्य भौतिक कर्मों में लिप्त होने से कभी, कोइ कहीं वेद, शास्त्र, पुराण नहीं लिखे गए |
-------आज यहाँ भी पुरुषों के घरेलू कार्यों में लिप्त होने से कोइ उच्च विचार, अपने स्वयं के विचारों , सामाजिक, सांस्कृतिक, मानवीय आचरण के सद-विचारों का उदय नहीं होपारहा है | हाँ पश्चिम की सभ्यता की नक़ल से काम चलाया जा रहा है| यूं तो लोग खुश भी हैं, अज्ञानजनित प्रसन्नता से |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें