....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
ईशोपनिषद के सप्तम मन्त्र ..- यस्मिन सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद्विजानतः |
तत्र को मोह: कः शोक:
एकत्वंनुपयश्तः ||...का काव्य भावानुवाद ...
कुंजिका- यस्मिन =जिस अवस्था में... सर्वाणि भूतानि=सम्पूर्ण जगत
को...आत्मन्येव अभूत= स्वयं के(परमात्मा के) समान ही हुआ ...विजानत: = जान लेता है
..तत्र =.. एकत्वं =एकत्व भाव से ... अनुपश्यत: = देखने वाले को...को मोह =क्या मोह...क:
शोक =क्या शोक ..|
मूलार्थ- जब वह व्यक्ति, योगी यह मर्म जान लेता है कि आत्मतत्व ही
समस्त चराचर जगत में प्रकट है उसका ईश्वर से एकत्व होजाता है, स्वयं परमात्म तत्व
के सामान होजाता है| ऐसा ईश्वर से तादाम्य एवं एकत्व दृष्टि प्राप्त योगी या पुरुष
स्वयं ब्रह्म ही होजाता है इस परमशान्ति अवस्था में उसे कोई मोह या शोक नहीं रह
जाता|
सकल जगत में वही ब्रह्म है,
उसी ब्रह्म में सब जग स्थित |
प्रेम भक्ति अनुभूति प्राप्त वह,
प्राणी ज्ञान भाव पाजाता |
जब संकुचित आत्मभाव हो,
सदा मोह का भाव उभरता |
मोह भ्रमित, दैहिक वियोग से,
शोक उभर कर माया रचता |
जब व्यापक हो आत्मभाव यह,
मन निर्विषय ध्यान में रमता |
अहंब्रह्म, खंब्रह्म भाव से,
व्यापक आत्मभाव होजाता |
तब परमार्थ भाव व्यापक हो,
तू ही मैं है, मैं ही तू हूँ |
यह एकत्व प्राप्त वह ज्ञानी,
मोह शोक अनुरक्त न होता |
भूत जगत परमात्म आत्म सब,
एक हुए उस योग दृष्टि में |
कहाँ आत्म का मोह मचलता,
वस्तु वियोग शोक कब रहता |
यह एकत्व का योग-भाव जब,
अनुभव, ज्ञान, आचरण युत हो |
सतत कर्म-भाव बन जाता,
योगी ज्ञान-मार्ग पा जाता |
भक्ति, कर्म और ज्ञान योग युत,
सर्वभूत, सर्वात्म दृष्टि युत |
खाते पीते उठते भजते,
तू ही तू, तू ही तू गाता |
तेरा मेरा का ममत्व तज,
समाधिस्थ वह आत्मलीन हो |
तदाकार हो आत्म, ब्रह्म लय,
आत्म स्वयं ब्रह्म होजाता ||
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