....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ..
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श्याम स्मृति-११.कृष्ण की आवश्यकता है.---
कृष्ण जो नेतृत्व को मोहमुक्त कराकर उसे स्वधर्म का भान कराये, उसके अंतर्मन मैं इच्छा व संकल्प शक्ति को जगाये और कहे, नपुंसक मत बन पार्थ, दुर्वलता त्याग, उठ खडा हो, युद्ध कर। "उत्तिष्ठ कौन्तेय ....." कौन कर सकता है यह, किसे करना चाहिए, हम
सब, हमारी पीढी, वरिष्ठों की पीढी एवं समाज का युवा, विज्ञ व प्रवुद्ध वर्ग | परन्तु वह वर्ग भी
तो सिर्फ खाने-कमाने में लगा है, वरिष्ठ पीढी सेवानिवृत्ति उपरांत भी सांसारिक
कर्म निवृत्ति की अपेक्षा उसमें प्रवृत्त है | क्या नवीन पीढी से कोई कृष्ण फिर उठ
खडा होगा जो दोनों पीढ़ियों को स्वधर्म का भान कराये ?
श्याम स्मृति-१२. अति-भौतिकता जनित भोगवादी संस्कृति
व जन-क्रांतियाँ ----
अज्ञान जनित है यह भावना, यह सोच एवं सदियों से पाली हुई धारणा, भ्रामक है सत्य से दूर तथ्य है | राम की लंका विजय न तो
राम की रावण पर विजय थी न अयोध्या की लंका पर, न उत्तर की दक्षिणपर, देव शक्तियों की दैत्यों पर |
वास्तव में यह जनता की, जन समूह की, सामान्य व्यक्ति की तानाशाही व निरंकुशता पर अधिसत्ता पर जनसत्ता की विजय थी | एक क्रान्ति थी जनता द्वारा निरंकुश तानाशाही के विरुद्ध | वस्तुतः यह मानवीय मूल्यों की आसुरी प्रवृत्तियों पर विजय थी |
राम की सेना न तो अयोध्या की सेना थी न किसी उत्तरप्रांत की, वह तो विन्ध्याचल के दक्षिणी प्रदेशों के मूल निवासियों की जनवाहिनी थी जिसे राम ने निर्भयता का पाठ पढ़ाकर, शस्त्र संचालन व सैन्य कौशल सिखाकर तैयार किया था| यहाँ तक कि लंकावासी भी राम की इस स्वतन्त्रता की दीवानी फौज में थे |
यह तो एक जनक्रांति थी जो सदैव ही समय के अंतर में निहित होती है एवं पलती-घुमड़ती रहती है और उचित अवसर एवं नेतृत्व मिलने पर बरस पड़ती है | रावण नीतिवान था, विद्वान् था, वेदों व शास्त्रों का ज्ञाता वेदों का भाष्यकर्ता; परन्तु फिर भी उसका पतन हुआ..क्यों? क्योंकि वह भोगवादी संस्कृति का मानने वाला था |
क्या विद्वता, नीतिज्ञता व भौतिक उन्नति ही मानवता के लिए हेतु है? नहीं.... यदि सभ्यता, विद्वता, बुद्धिमानी, संस्कृति व भौतिक उन्नति का अर्थ केवल अर्थ-संग्रह व बल-संग्रह ही रह जाय जिसमें सामान्यजन ही महत्वहीन होकर रह जाय तो ऐसी सत्ता व संस्कृति अवश्य ही पतन को प्राप्त होगी| यही रामायणकाल में हुआ, यही महाभारत काल में| रोम,मिश्र, यूनान आदि का भी वही हश्र हुआ | आधुनिक युग में भी सभी भोगवादी सत्ताओं-तानाशाहों का भी अंततः वही हश्र हुआ है | यदि हम समय रहते नहीं चेतेंगे तो वही हश्र वर्त्तमान भोगवादी संस्कृति का भी होने जा रहा है|
आज हमारी सारी विद्वता, नीति व उन्नति अर्थशास्त्र पर केन्द्रित व आधारित होगई है| प्रत्येक व्यक्ति कार, कोठी, अधिकाधिक सुख-विलास के साधन, यथासंभव शीघ्रताशीघ्र मुद्रा-संचय में रत है| उसे केवल साध्य की चिंता है साधन चाहे जो भी जैसा भी हो | और भोगवादी संस्कृत कभी मानवता पर आधारित नहीं होकती | योग वशिष्ठ में राम का आशय है कि अत्यधिक धन कभी भी मानवता आधारित सत्य-पथ से नहीं एकत्र किया जा सकता |
और महाभारत क्या सिर्फ दो परिवारों की लड़ाई थी या धर्म की अधर्म से ? पांडवों की न तो कोइ सेना थी न धन-साधन | वे तो अकिंचन थे | परन्तु यह भी निरंकुशता, तानाशाही व अधिसत्ता के अभिमान स्वरुप उत्पन्न विकारों के विरुद्ध जनसत्ता की, जनसामान्य की लड़ाई थी, एक जन-क्रान्ति थी जिसमें उन सभी लोगों, राज्यों, सत्ताओं ने भाग लिया जो वर्तमान अधिसत्ता के विरुद्ध खड़े हुए थे जिसके लिए अर्जुन व भीम आदि ने विभिन्न वनवास व गुप्तवास के समय घूम घूम कर जनमानस को तैयार किया था | कृष्ण पहले से ही इस विचार-धारा के पक्षधर, पोषक व एक प्रकार से सूत्रधार थे जो गोकुल से प्रारम्भ हुई | वही ...जमीन तैयार थी, नेतृत्व की आवश्यकता थी जो मिली पांडवों व कृष्ण के रूप में |
कृष्ण ने गांधारी से कहा था,” युद्ध होते रहेंगे चाहे कोई भी युग हो |” जब-जब अधिसत्ता, जनसत्ता को पीड़ित-उपेक्षित करेगी अधर्म...धर्म को प्रवंचित करेगा, तब-तब क्रान्ति होगी चाहे वह राम-रावण युग हो या महाभारत युग, फ्रांस की क्रान्ति, विश्व-युद्ध हो, सत्तावन की भारतीय क्रान्ति हो या सन उन्नीस सौ व्यालिस का भारतीय स्वाधीनता संग्राम |
श्याम स्मृति-१३ आधुनिकता व प्रगतिशीलता ....
सिर्फ समयानुसार भौतिक बदलाव -ओडना-पहनना, खाने-पीने के तरीके अर्थात उठने-बैठने के
भौतिक-सुख रूपी सुविधाओं के नवीन-ढंगों को ही नहीं कहा जाना चाहिए क्योंकि वे तो सदा
ही बदलते रहेंगे, अपितु समाज व मानवता के उत्थान हेतु चिंतन व सोच के
नए तरीकों, आयामों को ही बदलाव कहा जा सकता है जो पुरा-ज्ञान से समन्वित होते हों, संस्कृति ज्ञान, दर्शन, कला, धर्म आदि
के मूल तथ्य तो शाश्वत हैं, सर्वदा वही रहते हैं सदैव प्रकाश देते रहे हैं और आज भी हमें प्रकाश दे रहे हैं |
जो मील के पत्थर बनते हैं उनसे आगे नए
पत्थर तो बनाए जा सकते हैं परन्तु उन मील के पत्थरों को हटाया नहीं जासकता, हटाने को
प्रगति नहीं कहा जा सकता, कृष्ण ने गीता तो कही परन्तु यह भी कहा कि वेदों में मैं
सामवेद हूँ, यही प्रगतिशीलता व आधुनिकता है ...|
श्याम स्मृति-१४. मातृभाषा
या राष्ट्रभाषा क्यों ?
हमें अपनी विदेशी भाषा की अपेक्षा अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा के माध्यम से क्यों पढ़ना-पढ़ाना व सभी कार्य-कलाप करना चाहिए ? चाहे वह स्कूली शिक्षा हो या उच्च-शिक्षा या विज्ञान आदि विशिष्ट विषयों की प्रोद्योगिक शिक्षा | क्या यह सिर्फ राष्ट्रीयता का या भावुकता व सवेदनशीलता का प्रश्न है ? नहीं, वास्तव में अंग्रेज़ी या विदेशी माध्यम में शिक्षा विद्यार्थियों को विज्ञान के ही नहीं अपितु सभी प्रकार के ज्ञान को पूर्णरूपेण आत्मसात करने में मदद नहीं करती। बिना आत्मसात हुए विवेक व प्रज्ञा उत्पन्न नहीं होती एवं कोई भी ज्ञान, प्रगति, नवोन्मेष, नवोन्नति या नवीन अनुसंधान में मदद नहीं करता।
अंग्रेज़ी में शिक्षा हमारे युवाओं में अंग्रेज़ों (अमेरिकी–विदेशी ) की ओर देखने का आदी बना देती है। हर समस्या का आसान प्राप्त
हल हमें परमुखापेक्षी बना देता है | अन्य के द्वारा किया हुआ हल नक़ल कर लेना समस्या का आसान हल लगता है चाहे वह हमारे देश-काल के परिप्रेक्ष्य में समुचित हल हो या न हो|
विदेशी माध्यम में शिक्षा हमारा आत्मविश्वास कम करती है और हमारी सहज कार्य-कुशलता व अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति को भी पंगु बनाती है। स्पष्ट है कि नकल करने वाला पिछड़ा ही रहेगा, दूसरों की दया पर निर्भर करेगा, वह स्वाधीन नहीं हो सकेगा| स्वभाषा से अन्यथा विदेशी भाषा में शिक्षा से अपने स्वयं के संस्कार, उच्च आदर्श, शास्त्रीय-सुविचार, स्वदेशी भावना, राष्ट्रीयता, आदर्श आदि उदात्त भाव सहज रूप से नहीं पनपते | यदि हम बच्चों को, युवाओं को ऊँचे आदर्श नहीं देंगे तब वे विदेशी नाविलों, विदेशी समाचारों, साहित्य, टीवी–इंटरनेट आदि से नचैय्यों-गवैय्यों को अनजाने ही अपना आदर्श बना लेंगे, उनके कपड़ों या फ़ैशन की, उनके खानपान की रहन-सहन की झूठी, अपसंस्कृति की जीवन शैली की नकल करने लगेंगे।
अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा से हम उसी ओर जा रहे हैं | अतः हमें निश्चय ही अपनी श्रेष्ठ भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करना चाहिए ताकि सहज नवोन्नति एवं स्वाधीनता के भाव-विचार उत्पन्न हों | अंग्रेज़ी एक विदेशी भाषा की भाँति पढाई जा सकती है | इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होगी | दुनिया के तमाम देश स्व-भाषा में शिक्षाके बल पर विज्ञान-ज्ञान में हमसे आगे बढ़ चुके हैं| हम कब संभलेंगे....?
श्याम स्मृति-१५. कुतर्क ..
प्रायः व्यक्ति
व कुछ विद्वान् जब विपक्षी की युक्तियों प्रश्नों के युक्ति-युक्त उत्तर
देने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं तो वे उसे कुतर्क करने के आवरण में टालने का प्रयास
करने लगते हैं |
मेरे विचार
में सर्व-ज्ञाता होने का भ्रम है यह | कुतर्क नाम का कोई तथ्य नहीं होता | कारण-कार्य पर
सृजित, स्थित व गतिशील इस विश्व में कुछ भी बिना कारण के नहीं होता, अतः हर तर्क
व क्यों का एक उत्तर अवश्य होता है | अतः कुतर्क नाम के शब्द का कोई अस्तित्व नहीं | हाँ जब हम
स्वयं के ज्ञान व बुद्धि के एक स्तर से आगे के ज्ञान से अनभिज्ञ होते हैं और अहंवश
उसे स्वीकार नहीं करना चाहते तो हम उसे कुतर्क कहने लगते हैं | प्रत्येक
कारण का एक कारण अवश्य होता है और जहां मानवीय बुद्धि के ज्ञान की सीमा होती है अर्थात
अज्ञात है या अभी ज्ञात नहीं, वहां होता है कारणों का कारण... ईश्वर |
------क्रमश ----
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