एक पडी जेहि गाडमैं ,सबै जाहिंतेहि बाट। ---कबीर दास ने क्या खूब कहा है। मुझे क्यों याद आरहा है? आज सुबह ही सुबह ,लालू की रेल के तमाशे देखने को मिलगये। इन मैनेजमेंट के स्कूल वालों को तो पैसे बटोरने हैं ,अतः लालू जैसे को भी मैनेजमेंट -गुरु ,कुछ भी बना सकते हैं। मैं ६० वर्षों से रेलवे को देखरहा हूँ ,पिछले ३७ बर्षों से अत्यन्त निकट से, परन्तु जैसी मिस -मैनेजमेंट कुछ वर्षों से रेलवे मैं है वैसा कभी नहीं था। आज ही गरीव-रथ ट्रेन आने पर ,न तो डिब्बों पर सीरिअल नंबर ही थे, जिन पर थे ग़लत -सलत पड़े थे , जी -६ पर जी ९ आदि -अन्दर सीटों के नंबर भी ग़लत थे । रेलवे स्टाफ को स्वयं कुछ नही पता था ,यात्री बार -बार एक कोच से दूसरे मैं अपना डिब्बा व सीट खोजते फ़िर रहे थे। जब एक ऐ सी ,स्वयं लालू की ट्रेन का मैनेजमेंट नहीं हो सकता तो ------। बस सब भेडचाल मैं एक दूसरे को गुरू कहे जारहे हैं.--यथा--
" उष्ट्रानाम लग्न वेलायाम ,गर्धभा स्तुति पाठका :
परस्पर प्रशन्शन्ति ,अहो रूपमहो ध्वनि ॥ " ----सिर्फ़ तमाम गाडियां चलाने से क्या होता है ,रख- रखाव तो बाबा- आदम के जमाने से भी ख़राब है।
1 टिप्पणी:
बहुत सही लिखा है आपने। यह केवल मीडिया का प्रचार मात्र है। एक्सप्रेस ट्रेनों को सुपर एक्सप्रेस बनाकर सुविधाओं में बढ़ोत्तरी नहीं की गयी अपितु जेब जरूर कट गयी। बेडरोल तो इतने गंदे होते हैं कि घिन आने लगती है।
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