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राकेश कुमार यादव जी के इस आलेख से लगता है कि हमें व सरकार को जनता के सुख-सुविधाओं को द्वितीय स्थान पर (या बिल्कुल नहीं ) रखना चाहिए |भारतीय शास्त्रों में प्रत्येक कार्य के लिए एक विशिष्ट संदेश है , जो दूर दर्शन ने भी अपना लोगो बनाया है --
सत्यं शिवं सुन्दरं --अर्थात सत्य सबसे पहले व सुंदर सबसे बाद में | क्या आलेख लेखक व सरकार को यह सत्य नहीं दिखाई देता कि नगर की अधिकाँश सड़कें, गलियाँ,नालियां टूटी पडीं हैं; सडकों -गलियों में सीवर का पानी बह कर जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहा है, करप्सन हर जगह खुले आम हो रहा है, रोजाना लूट, ह्त्या, की वारदातें होरही हैं| कोई नगर या राजधानी , नागरिक सुविधाओं से नगर कहलाने योग्य,मुस्कुराने योग्य होता है यूंही नहीं | पहले वह कर दिखाइये ,फ़िर सौन्दर्यीकरण हो ,किसे आपत्ति होगी ? कूड़े के ढेर पर बैठे शहर को कौन प्रशंसा करे , कुछ स्वार्थी तत्व?
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सुबरन कलश सुरा भरा, साधू निंदा सोय"
आज आगरा,हेदराबाद , दिल्ली --ताज , क़ुतुब व चार मीनार से नहीं -गन्दगी, जल की कमी ,अपराधों के कारण नामी हैं | ताज, मीनार। क़ुतुब तो बस कमाई व विदेशी लोगों को बहलाने के साधन हैं |
3 टिप्पणियां:
हालाँकि तस्लीम और साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन पर अक्सर आपके नकारात्मक कमेंट आते रहते हैं, इसलिए हम आपकी ऊंट पटांग टिप्पणियों के अभ्यस्त हो गये हैं। लेकिन आपका ताजा कमेंट कमेंट क्योंकि सीधे मुझसे सम्बंध रखता है, इसलिए मुझे लगा कि इसका जवाब दिया जाना चाहिए।
हालाँकि मेरे 4 बाल विज्ञान कथा संग्रह प्रकाशित हैं, पर मैं यहाँ पर सिर्फ 1 की ही बात करूंगा, क्योंकि आपने “उसने कहा था” का चर्चा किया है।
“समय के पार” की पाण्डुलिपि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से वर्ष 1991 में भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार (निर्णायक मण्डल अध्यक्ष-प्रभाकर श्रोत्रीय) से पुरस्कृत है। उस समय श्रोत्रीय जी भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका “वागर्थ” के सम्पादक थे और “समय के पार” को “वागर्थ” में प्रकाशित करना चाहते थे, लेकिन उक्त पुस्तक प्रकाशन विभाग से प्रकाशनाधीन होने के कारण ऐसा सम्भव नहीं हो सका था। पुस्तक प्रकाशन के बाद उस पुस्तक को हिन्दी बाल साहित्य का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार “रतनलाल शर्मा बाल साहित्य पुरस्कार” (निर्णायक मण्डल अध्यक्ष-विष्णु प्रभाकर) एवं उ0प्र0 हिन्दी संस्थान का सर्जना पुरस्कार भी मिला। लगे हाथ रतन लाल शर्मा पुरस्कार से जुड़ी एक और बात जान लीजिए। जब यह किताब विष्णु प्रभाकार जी ने पढी़, तो उसके तुरंत बाद उन्होंने कहा था- अब अन्य किसी किताब को पढ़ने की आवश्यकता मैं नहीं समझता क्योंकि बाल साहित्य में इस तरह की पुस्तक आज तक नहीं लिखी गयी।
यदि आप मा0 विष्णु प्रभाकर और प्रभाकर श्रोत्रीय जी के बारे में जानते होंगे, तो फिर आपको “समय के पार” का महत्व समझ में आ गया होगा।
लगे हाथ आपको इससे सम्बंधित आपको एक और रोचक तथ्य बता दूँ कि यह हिन्दी सहित्य के इतिहास की इकलौती पुस्तक है, जिसको बाल साहित्य के तीनों सर्वाधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। और शुकदेव प्रसाद जी ने जान बूझकर (आखिर उनसे कम उम्र के लेखक को ये पुरस्कार कैसे मिल गये?) समय के पार के लेखक की कहानी उक्त संग्रह में नहीं शामिल की। यह एक जानबूझ कर की गयी शरारत थी, जिसे पाठकों को बताया जाना जरूरी था।
साथ ही एक बात आप और जान लें कि यह पुस्तक आज से तीन-चार वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी, और इतना तो आप भी जानते होंगे कि प्रतिक्रिया जताने के लिए कोई भी व्यक्ति तीन-चार साल का समय नहीं लेता?
इसके अलावा आपने एक और बात लिखी है कि अन्तिम पैरा में गिनाये गये नाम विज्ञान कथाएं नहीं हैं, विज्ञान खोजों के वर्णन हैं। इस सम्बंध में इतना ही कहूंगा कि विज्ञान कथाएँ क्या होती हैं, इस बारे में मुझे किसी से सीख नहीं चाहिए। कम से कम उस व्यक्ति से तो नहीं ही, जिसने एक अदद विज्ञान कथा तक न लिखी हो।
रज़्नीश जी आपने हडबडी में गलत पोस्ट पर टिप्पणी की है। कोई बात नहीं । पुरष्कार कैसे मिलते हैं- नोबुल पुरस्कार तक--सब जानते हैं , यह कोई क्वालिटी की गारन्टी नहीं । तुलसी. कबीर. प्रेमचन्द को तो पुरुष्कार नहीं मिले , वे आज क्या हैं। विरुद्ध बात को तो सदा ही ऊट-पटांग कहा जाता है, मेरे लिये नया कुछ नहीं ।
और हां किसी बात को हांजी-हांजी कहना बहुत आसान व सुविधाज़नक है- न कहना ही अधिक कठिन होता है, न कहना ही सीखना कठिन है। क्योंकि उसमे विचार चाहिये।
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