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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

डा श्याम गुप्त की नज़्म ----

सुरभि

तुम तो खुशबू हो फिजाओं में बिखर जाओगे ,
मैं तो वो फूल हूँ अंजाम है मुरझा जाना |

मैं तो इक प्यास हूँ तुम कैसे समझ पाओगे,
बन के अहसास मेरे सीने में समाते जाना |

तुम तो झोंका हो हवाओं में लहर जाओगे ,
टूटा पत्ता हूँ मुझे दूर है उड़कर जाना |

बनके सौंधी सी महक माटी कोभी महकाओगे,
मैं तो बरखा हूँ मुझे माटी में ही मिलते जाना |

तुम तो बादल हो ज़माने में बरस जाते हो,
मैं हूँ बिजली मेरा अंजाम तड़प गिर जाना |

तुम तो सागर हो ज़माना है तेरे कदमों में,
मैं वो सरिता हूँ मुझे दूर है बहते जाना ।

तुम तो सहरा हो ज़माना है तेरी नज़रों में,
सहरा की बदली हूँ अंजाम है उड़ते जाना |

तुमने है ठीक कहा मैं तो इक सहरा ठहरा,
शुष्क और तप्त सी रेत का दरिया ठहरा।

मैं तो सहरा हूँ मेरा अंजाम है तपते जाना,
तुम जो बदली हो तो इस दिल पे बरसके जाना।

सहरा के सीने में भी मरुद्यान बसे होते हैं,
बन के हरियाली छटा उसमें तुम बस जाना।

तुमने है ठीक कहा मैं तो हूँ सागर गहरा,
मेरा अंजाम किनारों से है बंधकर रहना।

तुम ये करना मेरे दिल से मिलते रहना,
बन के नदिया यूंही सीने में समाते जाना।

हम जो बन खुशबू फिजाओं में बिखर पायेंगे,
फूल को ही तो है मुरझा के सुरभि बन जाना॥

3 टिप्‍पणियां:

अंकित कुमार पाण्डेय ने कहा…

really an excellent poem

अंकित कुमार पाण्डेय ने कहा…

really an excellent poem

Udan Tashtari ने कहा…

तुमने है ठीक कहा मैं तो इक सहरा ठहरा,
शुष्क और तप्त सी रेत का दरिया ठहरा।


-बढ़िया,