परमार्थ
(श्याम सवैया छंद—६ पन्क्तियां )
प्रीति मिले सुख-रीति मिले, धन-प्रीति मिले, सब माया अजानी।
कर्म की, धर्म की ,भक्ति की सिद्धि-प्रसिद्धि मिले सब नीति सुजानी ।
ग्यान की कर्म की अर्थ की रीति,प्रतीति सरस्वति-लक्ष्मी की जानी ।
रिद्धि मिली,सब सिद्धि मिलीं, बहु भांति मिली निधि वेद बखानी ।
सब आनन्द प्रतीति मिली, जग प्रीति मिली बहु भांति सुहानी ।
जीवन गति सुफ़ल सुगीत बनी, मन जानी, जग ने पहचानी ॥
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जब सिद्धि नहीं परमार्थ बने, नर सिद्धि-मगन अपने सुख भारी ।
वे सिद्धि-प्रसिद्धि हैं माया-भरम,नहिं शान्ति मिले,हैंविविध दुखकारी।
धन-पद का, ग्यान व धर्म का दम्भ,रहे मन निज़ सुख ही बलिहारी।
रहे मुक्ति के लक्ष्य से दूर वो नर,पथ-भ्रष्ट बने वह आत्म सुखारी ।
यह मुक्ति ही नर-जीवन का है लक्ष्य, रहे मन,चित्त आनंद बिहारी ।
परमार्थ के बिन नहिं मोक्ष मिले,नहिं परमानंद न क्रष्ण मुरारी ।।
जो परमार्थ के भाव सहित, निज़ सिद्धि को जग के हेतु लगावें ।
धर्म की रीति और भक्ति की प्रीति,भरे मन कर्म के भाव सजावें ।
तजि सिद्धि-प्रसिद्धि बढें आगे, मन मुक्ति के पथ की ओर बढावें ।
योगी हैं, परमानंद मिले, परब्रह्म मिले, वे परम-पद पावें ।
चारि पदारथ पायं वही, निज़ जीवन लक्ष्य सफ़ल करि जावें ।
भव-मुक्ति यही, अमरत्व यही, ब्रह्मत्व यही, शुचि वेद बतावें ।
--रचयिता- डा. श्याम गुप्त
सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ-२२६०१२.
मो- ०९४१५१५६४६४.
4 टिप्पणियां:
aaj sangeeta jee ke blog par aapkee tipannee me likhee char panktiya yaha aapke blog par le aayee .....
lagata hai blog jagat aisa sagar hai jo apane me athah jawahrat sanjoye hai..dheere dheere hee khazane ka pata chal raha hai.......
---जी यह तो आपका "अपनत्व" ही है जो किसी को भी खीच कर ला सकता है।
---मेरे ब्लोग को विज़िट करने व तिप्पई के लिये धन्यवाद.
----पूरा गीत यह है, जो मेरे ब्लोग पर है--
गीत का गीत --- डा श्याम गुप्त का गीत....
गीत क्या होते हैं---
गीत भला क्या होते हैं ,
बस एक कहानी है ।
मन के सुख -दुख ,
अनुबन्धोंकी-
कथा सुहानी है ।
भीगे मन से
सच्चे मन की,
कथा सुनानी है।....गीत भला क्या...॥
कहना चाहे
कह न सके मन,
सुख-दुख के पल न्यारे,
बीते पल जब देते दस्तक,
आकर मन के द्वारे।
खुशियों की मुस्कान
औ गम के,
आंसू की गाथा के;
कागज़ पर ,
मन की स्याही से-
बनी निशानी है ।---गीत भला.....॥
कुछ बोलें या-
चुप ही रहें;
मन यह द्वन्द्व समाया ।
अन्तर्द्वन्द्वों की अन्तस में
बसी हुई जो छाया ।
कागज़ -कलम
जुगल बन्दी की
भाषा होते हैं ।
अन्तस की हां-ना, हां-ना की
व्यथा सुहानी है । ---गीत भला....॥
चित में जो
गुमनाम खत लिखे,
भेज नहीं पाये ।
पाती भरी गागरी मन की,
छ्लक छलक जाये ।
उमडे भावों के निर्झर को
रोक नहीं पाये :
भाव बने
शब्दों की माला,
रची कहानी है ।
गीत भला क्या होते हैं,
बस एक कहानी है ।
मन के सुख-दुख,
अनुबन्धों की -
व्यथा सुहानी है ॥
यह कविता सिर्फ सरोवर-नदी-सागर, फूल-पत्ते-वृक्ष आसमान की चादर पर टंके चांद-सूरज-तारे का लुभावन संसार ही नहीं, वरन जीवन की हमारी बहुत सी जानी पहचानी, अति साधारण चीजों का संसार भी है। यह कविता उदात्ता को ही नहीं साधारण को भी ग्रहण करती दिखती है।
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