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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

श्याम सवैया ....परमार्थ....

परमार्थ

(श्याम सवैया छंद—६ पन्क्तियां )

प्रीति मिले सुख-रीति मिले, धन-प्रीति मिले, सब माया अजानी।

कर्म की, धर्म की ,भक्ति की सिद्धि-प्रसिद्धि मिले सब नीति सुजानी ।

ग्यान की कर्म की अर्थ की रीति,प्रतीति सरस्वति-लक्ष्मी की जानी ।

रिद्धि मिली,सब सिद्धि मिलीं, बहु भांति मिली निधि वेद बखानी

सब आनन्द प्रतीति मिली, जग प्रीति मिली बहु भांति सुहानी

जीवन गति सुफ़ल सुगीत बनी, मन जानी, जग ने पहचानी


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जब सिद्धि नहीं परमार्थ बने, नर सिद्धि-मगन अपने सुख भारी ।

वे सिद्धि-प्रसिद्धि हैं माया-भरम,नहिं शान्ति मिले,हैंविविध दुखकारी।

धन-पद का, ग्यान व धर्म का दम्भ,रहे मन निज़ सुख ही बलिहारी।

रहे मुक्ति के लक्ष्य से दूर वो नर,पथ-भ्रष्ट बने वह आत्म सुखारी ।

यह मुक्ति ही नर-जीवन का है लक्ष्य, रहे मन,चित्त आनंद बिहारी ।

परमार्थ के बिन नहिं मोक्ष मिले,नहिं परमानंद न क्रष्ण मुरारी ।।


जो परमार्थ के भाव सहित, निज़ सिद्धि को जग के हेतु लगावें ।

धर्म की रीति और भक्ति की प्रीति,भरे मन कर्म के भाव सजावें ।

तजि सिद्धि-प्रसिद्धि बढें आगे, मन मुक्ति के पथ की ओर बढावें ।

योगी हैं, परमानंद मिले, परब्रह्म मिले, वे परम-पद पावें

चारि पदारथ पायं वही, निज़ जीवन लक्ष्य सफ़ल करि जावें

भव-मुक्ति यही, अमरत्व यही, ब्रह्मत्व यही, शुचि वेद बतावें

--रचयिता- डा. श्याम गुप्त

सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ-२२६०१२.

मो- ०९४१५१५६४६४.

4 टिप्‍पणियां:

Apanatva ने कहा…

aaj sangeeta jee ke blog par aapkee tipannee me likhee char panktiya yaha aapke blog par le aayee .....
lagata hai blog jagat aisa sagar hai jo apane me athah jawahrat sanjoye hai..dheere dheere hee khazane ka pata chal raha hai.......

shyam gupta ने कहा…

---जी यह तो आपका "अपनत्व" ही है जो किसी को भी खीच कर ला सकता है।
---मेरे ब्लोग को विज़िट करने व तिप्पई के लिये धन्यवाद.

shyam gupta ने कहा…

----पूरा गीत यह है, जो मेरे ब्लोग पर है--
गीत का गीत --- डा श्याम गुप्त का गीत....
गीत क्या होते हैं---

गीत भला क्या होते हैं ,
बस एक कहानी है ।
मन के सुख -दुख ,
अनुबन्धोंकी-
कथा सुहानी है ।
भीगे मन से
सच्चे मन की,
कथा सुनानी है।....गीत भला क्या...॥

कहना चाहे
कह न सके मन,
सुख-दुख के पल न्यारे,
बीते पल जब देते दस्तक,
आकर मन के द्वारे।
खुशियों की मुस्कान
औ गम के,
आंसू की गाथा के;
कागज़ पर ,
मन की स्याही से-
बनी निशानी है ।---गीत भला.....॥

कुछ बोलें या-
चुप ही रहें;
मन यह द्वन्द्व समाया ।
अन्तर्द्वन्द्वों की अन्तस में
बसी हुई जो छाया ।
कागज़ -कलम
जुगल बन्दी की
भाषा होते हैं ।
अन्तस की हां-ना, हां-ना की
व्यथा सुहानी है । ---गीत भला....॥


चित में जो
गुमनाम खत लिखे,
भेज नहीं पाये ।
पाती भरी गागरी मन की,
छ्लक छलक जाये ।
उमडे भावों के निर्झर को
रोक नहीं पाये :
भाव बने
शब्दों की माला,
रची कहानी है ।

गीत भला क्या होते हैं,
बस एक कहानी है ।
मन के सुख-दुख,
अनुबन्धों की -
व्यथा सुहानी है ॥

मनोज कुमार ने कहा…

यह कविता सिर्फ सरोवर-नदी-सागर, फूल-पत्ते-वृक्ष आसमान की चादर पर टंके चांद-सूरज-तारे का लुभावन संसार ही नहीं, वरन जीवन की हमारी बहुत सी जानी पहचानी, अति साधारण चीजों का संसार भी है। यह कविता उदात्ता को ही नहीं साधारण को भी ग्रहण करती दिखती है।