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एक कोई स्वयम्भू तथाकथित साहित्यकार है -राजेन्द्र यादव, जिनका कहना है( देखिये संलग्न चित्र-कथन)- कि कोई रासो, मतिराम , बिहारी को क्यों पढे--गालिव व मीर को ही साहित्य में पढाना चाहिये| डेढ सौ साल से पुराना साहित्य ताले में बन्द करदेना चाहिये। और तुलसी को अल्मारी में । ये लोग वास्तव में अपने मस्तिष्क को अल्मारी में बन्द रखकर आते हैं । क्या इन्हें पता नहीं कि गालिव की अधिकतर गज़लें कठिन फ़ारसी मिश्रित भाषा में हैं जिसे समझना टेडी खीर है, अधिकतर साहित्यकार उनके हिन्दी अनुवाद ही पढकर खुश हो लेते हैं।---वास्तव में तो एसे लोगों को डर है कि जब तक सूर-तुलसी जगमगाते रहेंगे इन जुगुनुओं ( साहित्य में सूर, तुलसी, केशव पहले ही सब स्थान घेरे हुए हैं), तिनकों , पत्तों को कौन पूछेगा।---पुरानी कविता है---: " सूर सूर तुलसी शशी, उडुगन केशव दास, अब के कवि खद्योत सम जहं तहं करहिं प्रकाश "---अबसोचिये वे कहां हैं आजकल इतने जुगनुओं में , इसी का डर है, तुलसी से। अब मेरी नई कविता सुनिये, आज ही बनी है-----
"एक ज़र्रा चलपडा है, चांद को दर्पण दिखाने,
कोई जुगनूं चाहता है, सूर्य को ही चौंधियाने।
सूर -तुलसी की वे तुलना, गालिवों से कर रहे,
मसखरे वे कौतुकों को काव्य-कविता कहरहे॥"
4 टिप्पणियां:
आप सच्चे साहित्यकार हैं, वास्तविकता में इन कुपंथियों को मुह तोड जबाब देना ही चाहिये।
"एक ज़र्रा चलपडा है, चांद को दर्पण दिखाने,
कोई जुगनूं चाहता है, सूर्य को ही चौंधियाने।
सूर -तुलसी की वे तुलना, गालिवों से कर रहे,
मसखरे वे कौतुकों को काव्य-कविता कहरहे॥"
वाह , सच में लाजबाब।
धन्य हो
सचमुच सोचनीय है!
छोडिये भी किस बुड्ढे छिछोरे को इतना महत्त्व दे रहे हैं.चुक गया है और अब आँय बाँय बकता रहता है .
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