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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शनिवार, 5 जून 2010

पर्यावरण दिवस पर डा श्याम गुप्ता का आलेख --

प्रदूषण उन्मुक्ति में साहित्य की भूमिका एवं वैदिक साहित्य में पर्यावरण
( डा श्याम गुप्त )
साहित्य व पर्यावरण यद्यपि अलग अलग संस्थाएं हैं, एक कला- क्षेत्र दूसरा विज्ञान का क्षेत्र | परन्तु विज्ञान कहाँ नहीं है, कला कहाँ नहीं है, उनमें घनिष्ठ सम्बन्ध है क्योंकि दोनों ही का केंद्र बिंदु मानव है | यह सृष्टि ही मानव के लिए हुई है। यहाँ सबकुछ मनुष्य का, मनुष्य के लिए एवं मनुष्य द्वारा संचालित है। साहित्य मानव ही गढ़ता है, पर्यावरण भी मानव ही प्रदूषित करता है , उसका प्रभाव भी मानव पर ही होता है।
सामाजिक प्राणी होने से जहां मानव के कलापों का प्रभाव समाज पर पड़ता है वहीं समाज के नियम व अनुशासन मनुष्य का नियमन करते हैं| मनुष्य जहां सामाजिकता व उसके अनुशासन के विपरीत असामाजिक क्रिया-कलाप अपनाता है तो समाज के वातावरण को दूषित करता है और यह मानसिक व सामाजिक प्रदूषण के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण का कारण भी बन जाता | वस्तुतः असामाजिक वातावरण, अनैतिक कर्म, अति-सुखाभिलाषा , सामाजिक,राष्ट्रीय व शास्त्रीय अनुशासनों का पालन न करने पर ही पर्यावरणीय प्रदूषण की राह प्रशस्त होती है।
साहित्य व साहित्यकार सामाजिक प्रचेतना के वर्ग में अग्रगण्य स्थान रखते हैं । उनका दायित्व है कि प्रत्येक प्रकार के अनुशासन एवं उदात्त भावों का पुनः पुनः स्मरण कराते रहें, जिनमे प्रदूषण भी शामिल है। प्राचीन काल से ही भारतीय साहित्य प्रदूषण के प्रति चैतन्य रहा है | बृक्ष पूजा, वन देवी,अरन्यमानी, ऋतुओं से सम्बंधित प्रत्येक उत्सव, प्रकृति व बृक्ष को देवता मानना पर्यावरण संरक्षण के ही उदात्त भाव हैं |अथर्व वेदी ऋषि कहता है -
" ब्रह्मचारीषयामश्चरति रोदसी उभे तस्मिन् देवा : मनसो भवन्ति |" अर्थात ब्रह्म ,( ईश्वरीय व प्रकृति विधानों ) पर चलने वाला व्यक्ति पृथ्वी व द्युलोक ( समस्त प्रकृति ) को पुनः पुनः अनुकूल बनाता हुआ चलता है ( संतुलन के प्रयत्न करता हुआ ) तथा समस्त देव ( प्रकृति के अवयव ) अनुकूल रहते हैं
वास्तव में साहित्य ही समाज के क्रिया कलापों का लेखा जोखा रखता है । यजुर्वेद (५/३६/२०) में ऋषि प्रार्थना करता है--"अग्ने नय सुपथा राये " प्रकाशवान अग्नि (विद्वान,सत्यवादी लोग, साहित्य व विचार ) हमें सन्मार्ग पर ले जाएँ ; तथा " युयोध्य्स्म ज्जुहू राणि ये नो..." तथा कुटिल आचरण व पाप से हमें बचाएं |
पृथ्वी की रक्षक पर्त, ओजोन लेयर व आयनोस्फ़ीअर के बारे में यजु.१३/५० के मन्त्रं में कैसा अच्छा वर्णन है -- “इमं भ्रूर्णायु वरुणस्य नाभिं त्वचम पशूनां द्विपदा चतुषपदं|
त्विष्टुं प्रजानां प्रथमं जनित्रमाने , माँ हिंसी परमे व्योमन ""
यह जो पृथ्वी के चारों और रक्षक आवरण त्वचा की तरह रहकर छन्ने की तरह अंतरिक्ष कणों को प्रविष्ट न होने देकर प्राणियों की रक्षा करता है ,उसे ऊर्जा की अति उपयोग से नष्ट नकरें । तथा पर्यावरण के प्रति चेतना देतेहुए ऋषि कहता है --- “”यदस्ये कश्मैचिद भोगाय बलात कश्मिद्ध प्रक्रितांते|"
तत क्रिस्तेन म्रियन्ते वत्सोश्च धानुको वृकः ॥ ""--(अथर्व -४/७)
अर्थात जो सिर्फ भोग व अति लिप्सा के कारण प्रकृति का कर्तन व दोहन करते हैं उनकी संतानें, पशु पक्षी मृत्यु को प्राप्त होते हैं |तथा--
"" यदस्य गौपदो सत्यालोप अजोहितः , तत्कुमारा म्रियन्ते यक्ष्मो विन्दतनाशयात “” जिस नगर ग्राम गृह में पर्यावरण बिगड़ जाता है वहां संतति को यक्ष्मा (आदि विभिन्न रोगों )आदि जकड कर हानि पहुंचाते है अतः ऋग्वेद /१८ में कहा गया है कि-

'' अयं पन्था अनिवित्तः पुराणो,यतां देवाः उपजायंत विश्वे
अताश्चिदा जनायीष्ट प्रवुद्धो माँ मातराममुया पंतावे कः ""

यह पंथ सनातन है (सृष्टि के आदि में उत्पन्न प्राकृतिक पर्यावरण चक्र) अतः प्रबुद्ध लोग अपनी आधारभूता माता ( प्रकृति व पर्यावरण ) को विनष्ट न करें।
पर्यावरण प्रदूषण से बचाव की विधि के रूप में अथर्व वेद (१०/५/१८ ) का एक मन्त्र है--"अजः पक्वः स्वर्ग लोके दधान्ति पंचौदानो निसृन्ति बाधयान " --यह अजः ( यग्य में समर्पित सामग्री -अन्न, कर्म, विचार, भाव रूपी ) स्वर्ग (अंतरिक्ष ,पृथ्वी ,वत्तावरण ,आकाश, ईथर )में पंचौदन अजः ( सृष्टि के समय तैयार किया गया सृष्टि निर्माण तत्व -मेटीरिअल, मिट्टी , आटा) बनकर सब जगह स्थापित होजाता है तथा पाप देवता ( प्रदूषण, विकृति उत्पादक- प्री एटोमिक, सब एटोमिक , परमाणु , अणु व पदार्थ) को दूर हटाते हैं
इस प्रकार कहा जासकता है कि समाज व व्यक्तियों के सदाचरण , सामाजिक सरोकार से युक्त सत्साहित्य व पर्यावरण प्रदूषण में घनिष्ठ सम्बन्ध है एवं व इन सबके समायोजन व समन्वय को लेकर चलने वाला भारतीय विश्वबंधुत्व भाव , साहित्य, शास्त्र परम्परा व वैदिक विज्ञान के मार्ग पर चलकर ही मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा , जो आज के भौतिकवादी युग की अनन्यतम आवश्यकता है ।

2 टिप्‍पणियां:

पापा जी ने कहा…

यह सृष्टि ही मानव के लिए हुई है।(पशु पक्षी के लिये अलग दुनिया है क्या?)

सत्साहित्य व पर्यावरण प्रदूषण में घनिष्ठ सम्बन्ध है (तू बहुत बुद्धिजीवी लग रहा है)

shyam gupta ने कहा…

अब पापाजी के पापा बुद्धिजीवी तो होंगे ही.