अयोध्या प्रकरण पर दो विचार ---आज यहां हम दो विचारों पर विवेचना करेंगे---
१.नेहरू जी का लाहौर-मस्ज़िद-प्रकरण पर आलेख-"इन्सान जो तजुर्वे से नहीं सीखता"-हि हिन्दुस्तान-- २३/९/१० --. कुस्तुन्तुनिया की सेन्ट सोफ़िया गिरिज़ाघर को सोफ़िया मस्ज़िद बनाए जाने व मुस्तफ़ा कमाल द्वारा पुनः ईसाई जमाने को वापस करने संबन्धी आलेख ---नेहरू जी कहते हैं कि “…बाजेन्टाइन जमाना तुर्कों के आने से पहले का ईसाई जमाना था इसलिये अब आया-सुफ़ीया(मस्ज़िद) एक प्रकार से फ़िर ईसाई जमाने में वापस चली गई, मुस्तफ़ा कमाल के आदेश से ।“
--------क्या कहना चाहते हैं नेहरू जी १९३५ में, सोचिये , अयोध्या के लिये राम पुराने हैं या हज़ारों साल बाद आया बाबर ?
२. राम चन्द्र गुहा का आज का आलेख—"रूमी, गान्धी और अयोध्या"---हि हिन्दुस्तान२४/९/१०----गान्धीजी द्वारा पढी गई अन्ग्रेज़ी पुस्तक एफ़ हडलेन्ड डेविस की “द विज़्डम ओफ़ ईस्ट” में किसी एक महान जलालुद्दीन रूमी का पूर्वी विचारक की भांति उनके विचार रखना कि “…उन्हें ईश्वर न सलीब पर, न मन्दिर में न हेरात में न कंधार ,पहाड व गुफ़ा में मिला” तथा पुस्तक को पढने की सिफ़ारिस करना व श्री गुहा का मोटे अक्षरों में कथन “….पत्थर के ढाचों की जरूरत नहीं….”
-----प्रश्न यह है कि
अ–--क्या जलालुद्दीन रूमी पूर्व के विचारक थे , नाम व कथन से तो वे रोम के लगते है, क्या रोम पूर्वी देश है, जो उनके विचार गान्धीजी व गुहा जी को इस समय प्रामाणिक रूप में उद्धरित करने योग्य लगे ? क्या उन्हें जलालुद्दीन से हज़ारों साल पहले पूर्व के महान भारतीय विचार—गीता में “..निहितं गुहायां..” या उससे भी हज़ारों साल पहले “अन्गुष्ठ मात्रः पुरुषोन्तरात्मा, सदा जनानां ह्रदये संनिविष्ठः”—कठोपनिषद २/१७ व “..तं ददर्श गूढम्नुप्र्विष्ठं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणं”—कठ-१/१२… क्यों नहीं ध्यान में आये( रिग्वेद की क्या बात करें) ---हमारी यही तो विडम्बना है कि हम अपने ग्यान को न स्वयं पढते-प्रयोग करते हैं न उद्धरित व सिफ़ारिस करते हैं ताकि जन जन प्रामाणिकता के बारे में आश्वस्त होकर उस पर विश्वास कर सकें। यदि गान्धीजी ने यह किया होता तो आज युवक उसे अपना रहे होते।
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