पाल ले इक रोग नादां ----
अभी हाल में ही एक ख़ास मित्र , बैच मेट, सीट पार्टनर, क्लास फेलो से भेंट हुई . वार्तालाप का कुछ अंश यूं है--
--हैं , रिटायर होगये हो!
--हाँ भई .
--लगते तो नहीं हो...(मुस्कान ..) ,अब क्या कर रहे हो? कुछ ज्वाइन किया .
--नहीं, अब मैं कविता व साहित्य का डाक्टर बन गया हूँ .
-- अरे वाह ! तो मेरी सौत को अब तक साथ लगाए हुए हो ...ही...ही...ही.---तभी वैसे के वैसे ही हो | पर आजकल कविता को पूछता ही कौन है... रमा की पूछ है हर तरफ ...| कोई पढ़ता भी है तुम्हारी कविता |
--यह तो सच कहा, तुमने |
--सच है एस बी ,आज कविता जन -जन से दूर होगई है और जन, जीवन से| हम लोग मेडीकल के कठिन अध्ययन-अध्यापन के साथ भी कितना पढ़ते थे साहित्य को,प्रसाद, निराला, महादेवी पर वाद-विवाद भी... | मुझे लगता है आज समाज में सारे दुःख-द्वंद्वों का एक मुख्य कारण यह भी है कि हम साहित्य से दूर होते जारहे हैं |
कितना सच कहा रमा ने | एक विचार सूत्र की उत्पत्ति हुई मन में....|अपने कथन, वाक्यों, उक्तियों से न जाने कितने कविता,कथा, आलेखों के सूत्र दिए हैं रमा ने मुझे | आवश्यक नहीं कि विचार-सूत्र किसी विद्वान,ग्यानी या अनुभी बडेलोगों के विचार ही दें, अपितु किसी भी माध्यम से मिल सकते हैं-बच्चों, युवाओं व तथाकथित अनपढ लोगों के माध्यम से भी । प्रेरक-प्रदायक सूत्र तो मां सरस्वती, शारदे, मां वाग्देवी ही है । मैं सोचता हूँ कि वस्तुतः आज के भौतिकवादी युग के मारा-मारी, भाग-दौड़, अफरा-तफरी, ट्रेफिक जाम ,ड्राइविंग ,आफिस पुराण , एक ही गति में निरंतर भागते हुए , दिन-रात कार्य, परिश्रम,कमाई-सुख-सुविधा भोग रत आज की पीढी को कविता व साहित्य पढ़ने का अवकाश और आकांक्षा ही कहाँ है |
विकास की तीब्र गति के साथ हर व्यक्ति को घर बैठे प्रत्येक सुविधा प्राप्ति-भाव तो मिला है परन्तु यह सब स्व-भाषा,स्वदेशी तंत्र के अपेक्षा पर-भाषा व विदेशी तंत्र चालित होने के कारण उसी चक्रीय क्रम में सभी को अपने अपने क्षेत्र में दिन-रात कार्य व्यस्तता व कठोर परिश्रम के अति-रतता भी स्वीकारनी पड़ीं है | एसे वातावरण में आज के पीढी को स्वभाषा कविता व साहित्य पढ़ने,लिखने ,समझने, मनन करने की इच्छा, आकांक्षा व ललक ही नहीं रही है | यद्यपि अतिव्यस्तता में भी युवा पीढी द्वारा मनोरंजन के विभिन्न साधन भी उपयोग किये जाते हैं, हास्य-व्यंग्य की कवितायें आदि भी पढी-सुनी जाती हैं ; परन्तु जन-जन की स्व-सहभागिता नहीं है, कविता जीवन दर्शन नहीं रह गया है | साहित्य---ज्ञान व अनुभव का संकलन व इतिहास होता है जो जीवन के दिशा-निर्धारण में सहायक होता है | शायद अधिकाधिक भौतिकता में संलिप्तता व सांस्कृतिक भटकाव का एक कारण यह भी हो , साहित्य व स्व-साहित्य की उपेक्षा से उत्पन्न स्व-संस्कृति कीअनभिज्ञता |
और साहित्य व कविता भी तो अब जन जन व जन जीवन की अपेक्षा अन्य व्यवसायों की भांति एक विशिष्ट क्षेत्र में सिमट कर रह गए हैं | वे ही लिखते हैं; वे ही पढ़ते हैं | समाज आज विशेषज्ञों में बँट गया है | विशिष्टता के क्षेत्र बन गए हैं | जो समाज पहले आपस में संपृक्त था , सार्वभौम था -परिवार की भांति, अब खानों में बँटकर एकांगी होगया है | विशेषज्ञता केअनुसार नई-नई जातियां-वर्ग बन रहे है | व्यक्ति जो पहले सर्वगुण-भाव था अब विशिष्ट-गुण सम्पन्न- भाव रह गया है | व्यक्तित्व बन रहा है -व्यक्ति पिसता जारहा है | जीवन सुख के लिए जीवन आनंद की बलि चढ़ाई जा रही है | यह आज की पीढी की संत्रासमय अनिवार्य नियति है |
पर मैं सोचता हूँ कि निश्चय ही हमारी आज कीयह पीढी उचित सहानुभूति व आवश्यक दिशा-निर्देशन की हकदार है; क्योंकि वास्तव में वे हमारी पीढी की भूलों व अदूरदर्शिता का परिणाम भुगत रहे हैं| मेरा निश्चित मत है कि अपने सुखाभिलाषा भाव में रत हमारी पीढी उन्हें उचित दिशा निर्देशन व आदर्शों को संप्रेषित करने में सफल नहीं रही |
इसलए मैंने तो, जो कोई भी परामर्श के लिए आता है या विभिन्न पार्टी, उत्सव, आयोजनों में ...चलिए डाक्टर साहब अब आप मिल ही गए हैं तो पूछ ही लेते हैं के भाव में मुफ्त ही....., सभी को यही परामर्श देना प्रारम्भ करदिया है कि ...हुज़ूर, कविता पढ़ने व लिखने का रोग पाल लीजिये , सभी रोग-शोक की यह रामवाण औषधि है .... आप सब का क्या ख्याल है....
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- एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त
सोमवार, 10 जनवरी 2011
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9 टिप्पणियां:
साहित्य संगीत कला विहीनः,
साक्षात पशुः पुच्छ विषाण हीनः।
सच कहा पान्डे जी---मनुष्य रूपेण म्रिगाश्चरन्ति..
haan is raam baan aushadhi ka prayog karne ki koshish kar raha hoon ...dekhta hoon kya haasil hota hai.....bahut hi behtarin rachna ..thanks..
बहुत सही कहा मार्क, अच्छा प्रयोग कर रहे हो, बधाई; केस-रिपोर्ट प्रकाशित होनी चाहिये...
आप के विचार से सहमत हू ,
इतनी व्यस्तता है आज के जीवन में की साहित्य के अध्यन या लेखन का समय निकलना बेहद मुश्किल है . हमारा साहित्य ही हमारी विरासत है ये बात तो वही समझ सकता है जो साहित्य साधक हो . ये तो उस आम की मिठास की तरह है जो खाए वही जाने
.
Dr Shyam ,
A brilliant suggestion from you.
Thanks and regards,
.
बहुत बढिया।
---------
बोलने वाले पत्थर।
सांपों को दुध पिलाना पुण्य का काम है?
Thanks abhisek, rightly said...
Thanx divya, try it..
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