....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
एक होती है "जन क्रान्ति " जो अन्ना हजारे द्वारा की जारही है, जो महात्मा गांधी द्वारा की गयी | जिसमें जन जन, बिना अधिक सोचे हुए, विना तर्क-वितर्क के जन-नेता के पीछे चलता है | यह सामयिक रूप से किसी लक्ष्य व विचार की प्राप्ति का शीघ्र -उपाय होता है, जो उचित ही है और लक्ष्य को तेजी से पाने में समाज को सक्षम करता है | जन क्रान्ति जो मूलतः राजनैतिक या किसी विशेष लक्ष्य के लिए होती है जिसमें में सम्मिलित जन जन की विभिन्न अपेक्षाएं, इच्छाएं रहती हैं | इसमें चमक, नेतागीरी, प्रसिद्धि व प्रशंसा का भाव भी रहता है | जन क्रान्ति मूलतः दूसरे के विरुद्ध होती है, किसी विशिष्ट के विरुद्ध होती है, अतःजन जन का समर्थन शीघ्र उपलब्ध होता है |
परन्तु यदि जन क्रान्ति के साथ , प्रतिक्रान्ति, वास्तविक क्रान्ति " विचार क्रान्ति " न हो तो वह क्रान्ति अधूरी ही रहती है | जैसा भारतीय स्वतंत्रता-क्रान्ति के साथ हुआ कि राजनैतिक सफलता व लक्ष्य प्राप्ति के पश्चात एक विचार क्रान्ति के लिए जन मानस को तैयार करने का कोइ ठोस कार्य नहीं किया गया | यह विज्ञ-जन, बुद्धिवादी लोगों , साहित्यकारों , विद्वानों का दायित्व होता है | परन्तु समस्त जन -जन व विज्ञ-जन भी, स्वतन्त्रता के भोग, उपभोग में लिप्त होगये जिसका परिणाम आज समाज के हर क्षेत्र व जन जन में उपस्थित भ्रष्टाचार, अनाचार , सांस्कृतिक प्रदूषण जनित अकर्म-अनाचरण -दुराचरण व अप संस्कृति का मूल कारण है | विचार क्रान्ति चुपचाप, प्रसिद्धि से दूर व चमक रहित होती है , अतः कठिन होती है और जन-समूह का जन जन का सहयोग मिलना दुष्कर होता है , क्योंकि यह स्वयं अपने ही विरुद्ध होती है एवं लक्ष्य दीर्घ कालीन व जन जन के, सामान्य जन के आचरण के विरुद्ध होती है |
अतः आज भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना के जन समर्थन व सफलता से हमें अति-उत्साहित होकर -कि 'अब तो किला फतह कर लिया ' -सोचकर ,मस्त नहीं होजाना चाहिए | प्राय: सामान्य जन अपने अपने त्वरित व क्षेत्रीय लाभ के लिए भी जन नेताओं के पीछे लाम बंद होजाता है , लक्ष्य प्राप्त होते ही अपने स्व-स्वार्थ कर्म में लिप्त हो जाता है |
हाँ इस प्रकरण से यह तथ्य तो सिद्ध होता ही है कि गांधी आज भी प्रासंगिक हैं | सामान्य जन में सदैव ही इच्छा तो होती है पर विचार व दिशा नहीं और सदा ही विज्ञ जनों , उच्च- पदस्थ जनों व, विद्वानों का यह दायित्व होता है कि उन्हें समय समय पर उचित ज्ञान व मार्ग निर्देशन कराते रहें |
अतः निश्चय ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक विचार क्रान्ति का उद्घोष होना चाहिए , जो स्व-भाव, स्व-भाषा, स्व- देश-राष्ट्र व स्व-संस्कृति के प्रति श्रृद्धा व स्वानुशासन से होना चाहिए | यह आज बुद्धिवादी लोगों का दायित्व है कि जन जन स्वानुशासन द्वारा स्वयं को भ्रष्टाचार , अनाचरण व सांस्कृतिक प्रदूषण से मुक्त करे | अन्यथा यह जन क्रान्ति अधूरी व अर्थहीन होगी |
4 टिप्पणियां:
ईमानदारी प्रासंगिक रहेगी, सदा ही।
यथार्थपरक चिंतन, सही कहा आपने जब तक आमजन अपनी मानसिकता में बदलाव नहीं लायेगा तबतक सामाजिक बदलाव चाहे वह किसी भी मायने में हो संभव नहीं है.
आपसे पूर्ण रूप से सहमत ..
बेहतरीन लेखनी .
धन्यवाद
धन्यवाद प्रवीण जी, हरीश जी व अर्शद--इस लोकतन्त्र में आमजन ही राजा है वही प्रजा अतः स्वानुशासन ही एक मात्र उपाय है ..
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