....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
चलो रे मन ऐसे जग से दूर |
छीन झपट, आपा धापी और छल बल में जो चूर |
महल दुमहले राज भवन सब हलचल से परिपूर |
मन की शान्ति न मिले यहाँ पर जग दुखिया मज़बूर |
ऊंचे -ऊंचे मंदिर-मठ हैं, मिले न प्रभु का नूर |
भक्त-पुजारी, पण्डे-मूरत, ईश्वर से अति-दूर |
मन से प्रभु को 'श्याम, भजे तो आनंद सुख भरपूर ||
4 टिप्पणियां:
मैं और मेरे परमेश्वर का एकान्त।
मन से प्रभु को 'श्याम, भजे तो आनंद सुख भरपूर
श्याम तुम्हारे रूप में काशी काबा का नूर...
धन्यवाद पान्डे जी---और एकान्त में..मैं और तू का भेद रहे ना..आनंद सुख भरपूर..
सुन्दर..आशुतोष...श्याम के रूप अगले पद में...
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