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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

गुरुवार, 26 मई 2011

श्याम लीला--५--चीर हरण......ड श्याम गुप्त...

                                                                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 चीर मांगतीं गोपियाँ  करें विविधि मनुहार ,
क्यों जल में उतरीं सभी ,सारे वस्त्र उतार  |
सारे वस्त्र उतार , लाज अब कैसी मन में ,
वही आत्मा तुझमें मुझमें सकल भुवन में  |
कण कण में ,मैं ही बसा, मेरा ही तन  नीर ,
मुझसे कैसी लाज लें ,तट पर आकर चीर  ||


उचित नहीं व्यवहार यह, नहीं शास्त्र अनुकूल ,
नंगे    हो   जल में  घुसें,   मर्यादा प्रतिकूल  |
मर्यादा प्रतिकूल,   श्याम ने दिया ज्ञान यह,
दोनों बांह उठाय , वचन  दें सभी आज यह  |
करें समर्पण पूर्ण, लगाएं  मुझ में ही  चित ,
कभी न हो यह भूल, भाव समझें सब समुचित ||


कोई रहा न देख अब , सब है सूना शांत,
चाहे जो मन की करो, चहुँ दिशि है एकांत  |
चहुँ दिशि है एकांत, करो सब पाप-पुण्य अब ,
पर नर की यह भूल, देखता है ईश्वर सब  |
कण कण बसता ईश , हर जगह देखे सोई ,
सोच समझ ,कर कर्म, न छिपता उससे कोई  ||

5 टिप्‍पणियां:

Rakesh Kumar ने कहा…

धन्य हैं ,प्रभु आप धन्य हैं
आत्म ज्ञान से मगन कर दिया आपने.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सौन्दर्यपूर्ण चित्रण।

Urmi ने कहा…

बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! लाजवाब और भावपूर्ण रचना ! प्रशंग्सनीय प्रस्तुती!

आशुतोष की कलम ने कहा…

बहुत सुन्दर चित्रण गोपियों की इस अवस्था का..
शास्त्र से लेखर मर्यादा का वर्णन सुन्दर लगा .
..............
सोच समझ ,कर कर्म, न छिपता उससे कोई
जैसी तेरी कर्मकथा फल भी वैसा होई...
......

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद राकेश जी..
आतम ग्यान बिना सब सूना,क्या मथुरा क्या काशी...

--धन्यवाद पान्डेजी..
---धन्यवाद बबली जी बहुत दिन बाद दर्शन हुए इस ब्लोग पर...आभार..
---सही कहा आशुतोष..जैसा कर्म वैसा फ़ल...