....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
उचित नहीं व्यवहार यह, नहीं शास्त्र अनुकूल ,
चीर मांगतीं गोपियाँ करें विविधि मनुहार ,
क्यों जल में उतरीं सभी ,सारे वस्त्र उतार |
सारे वस्त्र उतार , लाज अब कैसी मन में ,
वही आत्मा तुझमें मुझमें सकल भुवन में |
कण कण में ,मैं ही बसा, मेरा ही तन नीर ,
मुझसे कैसी लाज लें ,तट पर आकर चीर ||
उचित नहीं व्यवहार यह, नहीं शास्त्र अनुकूल ,
नंगे हो जल में घुसें, मर्यादा प्रतिकूल |
मर्यादा प्रतिकूल, श्याम ने दिया ज्ञान यह,
दोनों बांह उठाय , वचन दें सभी आज यह |
करें समर्पण पूर्ण, लगाएं मुझ में ही चित ,
कभी न हो यह भूल, भाव समझें सब समुचित ||
कोई रहा न देख अब , सब है सूना शांत,
चाहे जो मन की करो, चहुँ दिशि है एकांत |
चहुँ दिशि है एकांत, करो सब पाप-पुण्य अब ,
पर नर की यह भूल, देखता है ईश्वर सब |
कण कण बसता ईश , हर जगह देखे सोई ,
सोच समझ ,कर कर्म, न छिपता उससे कोई ||
5 टिप्पणियां:
धन्य हैं ,प्रभु आप धन्य हैं
आत्म ज्ञान से मगन कर दिया आपने.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
सौन्दर्यपूर्ण चित्रण।
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! लाजवाब और भावपूर्ण रचना ! प्रशंग्सनीय प्रस्तुती!
बहुत सुन्दर चित्रण गोपियों की इस अवस्था का..
शास्त्र से लेखर मर्यादा का वर्णन सुन्दर लगा .
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सोच समझ ,कर कर्म, न छिपता उससे कोई
जैसी तेरी कर्मकथा फल भी वैसा होई...
......
धन्यवाद राकेश जी..
आतम ग्यान बिना सब सूना,क्या मथुरा क्या काशी...
--धन्यवाद पान्डेजी..
---धन्यवाद बबली जी बहुत दिन बाद दर्शन हुए इस ब्लोग पर...आभार..
---सही कहा आशुतोष..जैसा कर्म वैसा फ़ल...
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