....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
नई उमर को अपने,
 नव गीत सजाने दो ||
       संध्या का ढलता सूरज,
       अपने अनुभव गाये |
       वह ज्ञान-सुरभि अपनाकर,
        प्रातः का दिनकर आये |
        बुझते दीपक की ज्योती ,
        नव-बाती को ज्वाला दे |
        नव-आशा युत नव-जीवन ,
        फिर लहर लहर लहराए |
प्राची के जगमग तारो ,
ऊषा को आने दो ||
        बागों में खिल चुके सुमनों,
        महकाते रहे उपवन |
        अब नव-कलियों, कुसुमों को,
        महकाने दो मधुवन |
        जो देख चुके जीवन में,
        पर्वत, नदिया, सागर |
        सब भोग चुके जीवन में,
        उपवन, मधुवन, मरुथल |
मरुथल की नम सिकता बन,
हरियाली  छाने  दो  ||
       जो शिखरों  पर हैं पहुंचे,
       पद-चिन्ह छोड़ जायेंगे |
       वे ही नव-पीढी को,
       राहें  दिखलायेंगे |
       सद-अहं की ये दीवारें ,
      पीढ़ियों-मध्य के व्यतिक्रम |
      संस्कृति-समाज की गरिमा ,                               
       कैसे बन पायेंगे |
 नई फसल को अपने ,
सुर-ताल सजाने दो ||
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
1 टिप्पणी:
सबके अपने गीत हों,
सब हाथों में दीप हों।
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