....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ.
टप टप टप टप अंग बहै स्वेद धार |
ज्यों उतरि गिरि-श्रृंग जल धार आई है |
बहै घाटी मध्य ,करि विविध प्रदेश पार,
धार सरिता की ज्यों सिन्धु में समाई है |
श्याम खुले केश ढीले-ढाले वस्त्र तिय देह ,
उमंगें उरोज, उर उमंग उमंगाई है |
ताप से तपे हैं तन, ताप तपे तन मन,
निरखि नैन नेह, नेह निर्झर समाई है ||
चुप चुप चकित न चहक रहे खग वृन्द,
सारिका ने शुक से भी चौंच न लड़ाई है |
बाज औ कपोत बैठे एक ही तरु डाल,
मूषक बिडाल भूलि बैठे शत्रुताई है |
नाग मोर एक ठांव , सिंह मृग एक छाँव ,
धरती मनहूँ तपोभूमि सी सुहाई है |
श्याम, गज-ग्राह मिलि बैठे सरिता के कूल,
जेठ की दुपहरी, साधु-भाव जग लाई है ||
हर गली गाँव , हर नगर मग ठांव ,
जन-जन जल, शीतल पेय हैं पिलारहे |
कहीं मिष्ठान्न बटें , कहीं है ठंडाई घुटे ,
मीठे जल की भी कोऊ प्याऊ लगवा रहे |
राह रोकि हाथ जोरि, शीतल जल भेंट करि,
हर तप्त राही को ही ठंडक दिला रहे|
भुवन भाष्कर , धरि मार्तंड रूप ,श्याम,
उंच नीच भाव मनहुं मन के मिटा रहे ||
3 टिप्पणियां:
बड़ा ही सजीव वर्णन किया है आपने।
हर गली गाँव , हर नगर मग ठांव ,
जन-जन जल, शीतल पेय हैं पिलारहे |
कहीं मिष्ठान्न बटें , कहीं है ठंडाई घुटे ,
मीठे जल की भी कोऊ प्याऊ लगवा रहे |
राह रोकि हाथ जोरि, शीतल जल भेंट करि,
हर तप्त राही को ही ठंडक दिला रहे|
वाह! इस जेठ की दुपहरी में तो पूरा पसीना ही निकाल के रख दिया है आपने !!
प्रवाह, लय, अर्थ, शैली सब अद्भुत! आज के दौर में यह सब और ऐसा कहां मिलता है पढ़ने को...
ह्रदय से आभार ,इस अप्रतिम रचना के लिए...
आदरणीय डॉ श्याम जी -जेठ की दोपहरी का बड़ा ही मनहारी वर्णन-
श्याम खुले केश ढीले-ढाले वस्त्र तिय देह ,
उमंगें उरोज, उर उमंग उमंगाई है |
और इसी बहाने सब पौशाला लगा शीतल जल पिला जाति पांति भूले सुन्दर दृश्य काश यही हो --
आप की दूसरी कविता भी एक पढ़ी प्यारी है -
डॉ श्याम जी सुन्दर व्याख्या आप के द्वारा -पहले अंडा पैदा हुआ या मुर्गी हम गोल गोल इस प्रश्न की परिक्रमा करते आपस में तर्क वितर्क खींचतान लड़ झगड यों ही जिंदगी जीते जा रहे -और क्या है इंसान के पास करने को सब तो प्रभु की माया है करता धर्ता वही तो है -
कौन है ईश्वर, कौन हैं माया !
यही वह रहस्य है , जो--
आज तक समझ न आया,
इसी को कहते हैं --
ईश्वर और ईश्वर की माया ||
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
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