....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य ....)....पिछले अंक से क्रमश:......
अंक -तीन
एनाटोमी डिसेक्शन हाल की सीट पर मैंने पूछा ,' सुमित्रा जी ,सियाटिक नर्व को कहाँ से निकाला जाय , बिलकुल दिमाग से ही उतर गया है ?
है भी !, जाने क्या क्या भरे रखते हैं, दिमाग में ?
उसने हाथ से चाकू लगभग छीन कर चुपचाप चीरा लगाकर फेसिया तक खोल दिया , बोली ' आगे बढूँ या ...'
'अभी के लिए बहुत है ', मैंने कहा ,' एक दम आगे बढ़ना ठीक नहीं ...
" आपने चिलमन ज़रा सरका दिया ,
हमने जीने का सहारा पालिया ।"
वह चुपचाप अपना प्रेक्टिकल करती रही । बाहर आकर बोली ,' कृष्ण जी उधार बराबर ।'
'और सूद!', मैंने कहा ।
'सूद' वह आश्चर्य से देखने लगी !
' वणिक पुत्र हूँ ना ।'
' क्या सूद चाहिए ?' वह सोचती हुई बोली ।
'हुम sss.... चलो दोस्ती करलें, मैंने कहा ।
ओह ! वह सीने पर हाथ रखकर निश्वांस छोड़ती हुई बोली , ' ठीक है, मेरा तो नाम ही सुमित्रा है, सुखद-सुहाने मित्रों वाली, स्वयं अच्छी मित्र है जो, जो मित्र बनाती है तो बनाती है; नहीं तो नहीं ।'
निभाती भी है ?, मैंने कहा ।
' इट डिपेंड्स'...जो जिस लायक हो । सात कदम तो चल ही लिए हैं, वह मुस्कुराकर कहने लगी ।
'चलो काफी होजाय ' मैंने आमंत्रण दे डाला ।
काफी टेबल पर बैठकर मैंने उसका हाथ छुआ तो प्रश्नवाचक नज़रों से देख कर बोली ,' उंगली पकड़कर हाथ पकड़ना चाहते हैं ? ऐसे तो आप नहीं लगते मिस्टर .....।
' कृष्ण गोपाल ', मैंने कहा ।
'पता है, किसी भ्रम या उम्मीद में मत रहना । आशाएं विष की पुड़ियाँ होती हैं, कष्टदायी, बचे रहना ।
सुमित्रा जी, हमारा भी कुछ आत्म- सम्मान है । वैसे भी मैं नारी-सम्मान व पुरुष-सम्मान दोनों को ही समान महत्व देता हूँ । नारी का हर रूप मेरे लिए सम्मान जनक है । मैं 'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो ' के साथ साथ आत्मसम्मान, विश्वास से भरपूर मर्यादित नारी की, पुरुष के कंधे से कन्धा मिला कर चलती हुई नारी की छवि का कायल हूँ । जब तक तुम स्वयं नहीं चाहोगी, मैं कुछ नहीं चाहूंगा ।
वाह ! क्या बात है । हम खुश हुए । वह वरद-हस्त मुद्रा में मुस्कुराई ।
सच सुमित्रा, यदि शिक्षा व स्त्री-शिक्षा के इतने प्रचार-प्रसार के पश्चात् भी शोषण व उत्प्रीणन जारी रहे तो क्या लाभ ? मैं बातें नहीं, कर्म पर विश्वास करता हूँ, परन्तु यथातथ्य विचारोपरांत । यह शोषण-उत्प्रीणन चक्र अब रुकना ही चाहिए । पर जब तक नारी स्वयं आगे नहीं आयेगी, क्या होगा ? नारी-शोषण में कुछ नारियां ही तो भूमिका में होती हैं । आखिर हेलन या बैजयंतीमाला को कौन विवश करता है अर्धनग्न नृत्य के लिए ? चंद पैसे । क्या आगे चलकर कमाई का यह ज़रिया वैश्यावृत्ति का नया अवतार नहीं बन सकता ।'
आखिर नारी क्या चाहती है ? नारी स्वातंत्र्य का क्या अर्थ हो ? मेरे विचार में स्त्री को भी पुरुषों की भाँति सभी कार्यों की छूट होनी चाहिए । हाँ, साथ ही सामाजिक मर्यादाएं, शास्त्र मर्यादाएं व स्वयं स्त्री सुलभ मर्यादाओं की रक्षा करते हुए स्वतंत्र जीवन का उपभोग करें । आखिर पुरुष भी तो स्वतंत्र है, परन्तु शास्त्रीय, सामाजिक व पुरुषोचि मर्यादा निभाये बगैर समाज उसे भी कब आदर देता है । वही स्त्री के लिए भी है । भारतीय समाज में प्राणी मात्र के लिए सभी स्वतन्त्रता सदा से ही हैं । हाँ, गलत लोग, गलत स्त्री तो हर समाज में सदा से होते आये हैं व रहेंगे । इससे सामाजिक संरचना थोड़े ही बुरी होजाती है ।अतः उसे कोसा जाय , यह ठीक नहीं । और 'समाज को बदल डालो' यह नारा ही अनुचित है अपितु 'स्वयं को बदलो ' नारा होना चाहिए । यही एकमात्र उपाय है आपसी समन्वय का एवं स्त्री-पुरुष, समाज-राष्ट्र की भलाई व उन्नति का ।
ब्रेवो! ब्रेवो !, वह ताली बजाती हुई बोली । पर यह भाषण तो मुझे देना चाहिए ।' और हाँ ....वह सोचती हुई बोली, ' ये शब्द व भाव तो कहीं पढ़े हुए लगते हैं ।'
" फिजाओं में भी गूंजेंगे कभी ये स्वर हमारे,
आप चाहें इन स्वरों में हम सजालें सुर तुम्हारे ।"
ठहरो, वह बोली, 'आपका पूरा नाम क्या है ?'
इतनी जल्दी भूल गयीं ? श्री कृष्ण गोपाल गर्ग ।
हूँ, शायरी, नारी विमर्श पर वही तार्किक भाव-उक्तियाँ ,कथोपकथन, कविता भी .....किसी पत्रिका में पढ़ती रही हूँ । कृष्ण गोपाल ..क्या तुम.. 'केजी' के नाम से ' नई आवाज ' में लिखते हो ? तुम 'केजी' हो !...मैं समझती थी कोई मिडिल एज का व्यक्ति होगा ।
मैं उसकी तीब्र बुद्धि का कायल होकर रह गया, और आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराया ।
वह हंसी, उन्मुक्त हंसी । कमीज की कालर ऊंचे करने के अंदाज़ में बोली, ' ये हम हैं, उड़ती चिडिया के पर गिन लेते हैं । तो तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? तुम्हें किसी यूनिवर्सिटी में 'प्रोफ़ेसर आफ प्रोफेसी' होना चाहिए।'
' भई ! बातों से ही तो काम नहीं चलता न, कुछ खाने -पीने का भी तो जुगाड़ होना चाहए । फिर मेडीकल से अच्छा और क्या होसकता है, बातें की बातें , काम धंधा भी, सेवा भी ....और तुमसे जो मिलना था सिर खपाने के लिए, ताकि पूरा प्रोफ़ेसर बना जा सके ।' मैंने हंसते हुए कहा ।
' आई एम् इम्प्रेस्ड ', मैं तो केजी की फैन हूँ । बधाई, अब कोई कविता सुना ही दो ।'...वह गालों को हथेली पर रखकर, कोहनी मेज पर टिका कर श्रोता वाले अंदाज़ में बैठ गयी । मैंने सुनाया....
" मैंने सपनों में देखी थी ,
इक मधुर सलौनी सी काया ।
* *
अधखिले कमल लतिका जैसी ,
अधरों की कलियाँ खिली हुईं ।
क्या इन्हें चूम लूं यह कहते,
वह होजाती है छुई - मुई ।
* *
तुमको देखा मैंने पाया,
यह तो तुम ही थीं मधुर प्रिये ।।"
मैं आनंदानुभूति से सरावोर हो गयी हूँ केजी ! वह बोली ।
तो दोस्ती पक्की ।
हाँ ।
क्यों ?
"ज्ञान वैविध्य, बिना लाग लपेट बातें , नारी सम्मान भाव...नारी मन को छूते हैं, कृष्ण . और तुम्हें ?
"तुम्हारा आत्मविश्वास, सुलझे विचार और काव्यानुराग "..मुझे पसंद है सुमित्रा ।
" कहीं यह ' पहली नज़र में प्यार' .. का मामला तो नहीं बन रहा " , अचानक उसने सतर्क निगाहों से पूछा ।
हाँ शायद, मैंने कहा ...और तुम....?
पता नहीं, नहीं कर सकती , मजबूर हूँ । पर मित्रता से पीछे नहीं हटूंगी ।
क्यों मज़बूर हो भई ?
दिल के हाथों ..के जी, जी । तुम पहले क्यों नहीं मिले । मैं वाग्दत्ता हूँ,रमेश को बहुत प्यार करती हूं । शादी भी करूंगी ।...वह अरुणिम होते हुए चेहरे से कहती गयी ।
' ये रमेश कौन भाग्यवान है ?'
' मेरा पहला प्यार, हम एक दूसरे को बहुत चाहते हैं । दिल्ली में एमबीबीएस कर रहा है ।', उसने पर्स में से फोटो निकाल कर दिखाते हुए कहा, ' बहुत प्यारा इंसान है'।
'और मैं....?
"तुम...!...तुम...." वह जैसे ख्यालों से बाहर आती हुई बोली, 'तुम...तुम हो..अप्रतिम...बौद्धिक सखा...राधा के श्याम ...और मैं तुम्हारी काव्यानुरागिनी, समझे..।' वह सिर से सिर टकराते हुए बोली ।
अब मैं आनंदानुभूति से सराबोर हूँ, सुमि !
साथ छोड़कर भागोगे तो नहीं ?
नहीं.....
" हम तुम चाहे मिल पायं नहीं ,
जीवन में न तेरा साथ रहे ।
मैं यादों का मधुमास बनूँ ,
जो प्रतिपल तेरे साथ रहे ।।"
तो क्या देवदास बन जाओगे ? वह हंसी ।
क्या मैं इतना मूर्ख लगता हूँ ?........
" छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ,
यह मुनासिव नहीं आदमी के लिए ।"
-----क्रमश:...... अंक-तीन का शेष ..अगली पोस्ट में .....
’ इन्द्रधनुष’ ------ स्त्री-पुरुष विमर्श पर एक नवीन दृष्टि प्रदायक उपन्यास (शीघ्र प्रकाश्य ....)....पिछले अंक से क्रमश:......
अंक -तीन
एनाटोमी डिसेक्शन हाल की सीट पर मैंने पूछा ,' सुमित्रा जी ,सियाटिक नर्व को कहाँ से निकाला जाय , बिलकुल दिमाग से ही उतर गया है ?
है भी !, जाने क्या क्या भरे रखते हैं, दिमाग में ?
उसने हाथ से चाकू लगभग छीन कर चुपचाप चीरा लगाकर फेसिया तक खोल दिया , बोली ' आगे बढूँ या ...'
'अभी के लिए बहुत है ', मैंने कहा ,' एक दम आगे बढ़ना ठीक नहीं ...
" आपने चिलमन ज़रा सरका दिया ,
हमने जीने का सहारा पालिया ।"
वह चुपचाप अपना प्रेक्टिकल करती रही । बाहर आकर बोली ,' कृष्ण जी उधार बराबर ।'
'और सूद!', मैंने कहा ।
'सूद' वह आश्चर्य से देखने लगी !
' वणिक पुत्र हूँ ना ।'
' क्या सूद चाहिए ?' वह सोचती हुई बोली ।
'हुम sss.... चलो दोस्ती करलें, मैंने कहा ।
ओह ! वह सीने पर हाथ रखकर निश्वांस छोड़ती हुई बोली , ' ठीक है, मेरा तो नाम ही सुमित्रा है, सुखद-सुहाने मित्रों वाली, स्वयं अच्छी मित्र है जो, जो मित्र बनाती है तो बनाती है; नहीं तो नहीं ।'
निभाती भी है ?, मैंने कहा ।
' इट डिपेंड्स'...जो जिस लायक हो । सात कदम तो चल ही लिए हैं, वह मुस्कुराकर कहने लगी ।
'चलो काफी होजाय ' मैंने आमंत्रण दे डाला ।
काफी टेबल पर बैठकर मैंने उसका हाथ छुआ तो प्रश्नवाचक नज़रों से देख कर बोली ,' उंगली पकड़कर हाथ पकड़ना चाहते हैं ? ऐसे तो आप नहीं लगते मिस्टर .....।
' कृष्ण गोपाल ', मैंने कहा ।
'पता है, किसी भ्रम या उम्मीद में मत रहना । आशाएं विष की पुड़ियाँ होती हैं, कष्टदायी, बचे रहना ।
सुमित्रा जी, हमारा भी कुछ आत्म- सम्मान है । वैसे भी मैं नारी-सम्मान व पुरुष-सम्मान दोनों को ही समान महत्व देता हूँ । नारी का हर रूप मेरे लिए सम्मान जनक है । मैं 'नारी तुम केवल श्रृद्धा हो ' के साथ साथ आत्मसम्मान, विश्वास से भरपूर मर्यादित नारी की, पुरुष के कंधे से कन्धा मिला कर चलती हुई नारी की छवि का कायल हूँ । जब तक तुम स्वयं नहीं चाहोगी, मैं कुछ नहीं चाहूंगा ।
वाह ! क्या बात है । हम खुश हुए । वह वरद-हस्त मुद्रा में मुस्कुराई ।
सच सुमित्रा, यदि शिक्षा व स्त्री-शिक्षा के इतने प्रचार-प्रसार के पश्चात् भी शोषण व उत्प्रीणन जारी रहे तो क्या लाभ ? मैं बातें नहीं, कर्म पर विश्वास करता हूँ, परन्तु यथातथ्य विचारोपरांत । यह शोषण-उत्प्रीणन चक्र अब रुकना ही चाहिए । पर जब तक नारी स्वयं आगे नहीं आयेगी, क्या होगा ? नारी-शोषण में कुछ नारियां ही तो भूमिका में होती हैं । आखिर हेलन या बैजयंतीमाला को कौन विवश करता है अर्धनग्न नृत्य के लिए ? चंद पैसे । क्या आगे चलकर कमाई का यह ज़रिया वैश्यावृत्ति का नया अवतार नहीं बन सकता ।'
आखिर नारी क्या चाहती है ? नारी स्वातंत्र्य का क्या अर्थ हो ? मेरे विचार में स्त्री को भी पुरुषों की भाँति सभी कार्यों की छूट होनी चाहिए । हाँ, साथ ही सामाजिक मर्यादाएं, शास्त्र मर्यादाएं व स्वयं स्त्री सुलभ मर्यादाओं की रक्षा करते हुए स्वतंत्र जीवन का उपभोग करें । आखिर पुरुष भी तो स्वतंत्र है, परन्तु शास्त्रीय, सामाजिक व पुरुषोचि मर्यादा निभाये बगैर समाज उसे भी कब आदर देता है । वही स्त्री के लिए भी है । भारतीय समाज में प्राणी मात्र के लिए सभी स्वतन्त्रता सदा से ही हैं । हाँ, गलत लोग, गलत स्त्री तो हर समाज में सदा से होते आये हैं व रहेंगे । इससे सामाजिक संरचना थोड़े ही बुरी होजाती है ।अतः उसे कोसा जाय , यह ठीक नहीं । और 'समाज को बदल डालो' यह नारा ही अनुचित है अपितु 'स्वयं को बदलो ' नारा होना चाहिए । यही एकमात्र उपाय है आपसी समन्वय का एवं स्त्री-पुरुष, समाज-राष्ट्र की भलाई व उन्नति का ।
ब्रेवो! ब्रेवो !, वह ताली बजाती हुई बोली । पर यह भाषण तो मुझे देना चाहिए ।' और हाँ ....वह सोचती हुई बोली, ' ये शब्द व भाव तो कहीं पढ़े हुए लगते हैं ।'
" फिजाओं में भी गूंजेंगे कभी ये स्वर हमारे,
आप चाहें इन स्वरों में हम सजालें सुर तुम्हारे ।"
ठहरो, वह बोली, 'आपका पूरा नाम क्या है ?'
इतनी जल्दी भूल गयीं ? श्री कृष्ण गोपाल गर्ग ।
हूँ, शायरी, नारी विमर्श पर वही तार्किक भाव-उक्तियाँ ,कथोपकथन, कविता भी .....किसी पत्रिका में पढ़ती रही हूँ । कृष्ण गोपाल ..क्या तुम.. 'केजी' के नाम से ' नई आवाज ' में लिखते हो ? तुम 'केजी' हो !...मैं समझती थी कोई मिडिल एज का व्यक्ति होगा ।
मैं उसकी तीब्र बुद्धि का कायल होकर रह गया, और आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराया ।
वह हंसी, उन्मुक्त हंसी । कमीज की कालर ऊंचे करने के अंदाज़ में बोली, ' ये हम हैं, उड़ती चिडिया के पर गिन लेते हैं । तो तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? तुम्हें किसी यूनिवर्सिटी में 'प्रोफ़ेसर आफ प्रोफेसी' होना चाहिए।'
' भई ! बातों से ही तो काम नहीं चलता न, कुछ खाने -पीने का भी तो जुगाड़ होना चाहए । फिर मेडीकल से अच्छा और क्या होसकता है, बातें की बातें , काम धंधा भी, सेवा भी ....और तुमसे जो मिलना था सिर खपाने के लिए, ताकि पूरा प्रोफ़ेसर बना जा सके ।' मैंने हंसते हुए कहा ।
' आई एम् इम्प्रेस्ड ', मैं तो केजी की फैन हूँ । बधाई, अब कोई कविता सुना ही दो ।'...वह गालों को हथेली पर रखकर, कोहनी मेज पर टिका कर श्रोता वाले अंदाज़ में बैठ गयी । मैंने सुनाया....
" मैंने सपनों में देखी थी ,
इक मधुर सलौनी सी काया ।
* *
अधखिले कमल लतिका जैसी ,
अधरों की कलियाँ खिली हुईं ।
क्या इन्हें चूम लूं यह कहते,
वह होजाती है छुई - मुई ।
* *
तुमको देखा मैंने पाया,
यह तो तुम ही थीं मधुर प्रिये ।।"
मैं आनंदानुभूति से सरावोर हो गयी हूँ केजी ! वह बोली ।
तो दोस्ती पक्की ।
हाँ ।
क्यों ?
"ज्ञान वैविध्य, बिना लाग लपेट बातें , नारी सम्मान भाव...नारी मन को छूते हैं, कृष्ण . और तुम्हें ?
"तुम्हारा आत्मविश्वास, सुलझे विचार और काव्यानुराग "..मुझे पसंद है सुमित्रा ।
" कहीं यह ' पहली नज़र में प्यार' .. का मामला तो नहीं बन रहा " , अचानक उसने सतर्क निगाहों से पूछा ।
हाँ शायद, मैंने कहा ...और तुम....?
पता नहीं, नहीं कर सकती , मजबूर हूँ । पर मित्रता से पीछे नहीं हटूंगी ।
क्यों मज़बूर हो भई ?
दिल के हाथों ..के जी, जी । तुम पहले क्यों नहीं मिले । मैं वाग्दत्ता हूँ,रमेश को बहुत प्यार करती हूं । शादी भी करूंगी ।...वह अरुणिम होते हुए चेहरे से कहती गयी ।
' ये रमेश कौन भाग्यवान है ?'
' मेरा पहला प्यार, हम एक दूसरे को बहुत चाहते हैं । दिल्ली में एमबीबीएस कर रहा है ।', उसने पर्स में से फोटो निकाल कर दिखाते हुए कहा, ' बहुत प्यारा इंसान है'।
'और मैं....?
"तुम...!...तुम...." वह जैसे ख्यालों से बाहर आती हुई बोली, 'तुम...तुम हो..अप्रतिम...बौद्धिक सखा...राधा के श्याम ...और मैं तुम्हारी काव्यानुरागिनी, समझे..।' वह सिर से सिर टकराते हुए बोली ।
अब मैं आनंदानुभूति से सराबोर हूँ, सुमि !
साथ छोड़कर भागोगे तो नहीं ?
नहीं.....
" हम तुम चाहे मिल पायं नहीं ,
जीवन में न तेरा साथ रहे ।
मैं यादों का मधुमास बनूँ ,
जो प्रतिपल तेरे साथ रहे ।।"
तो क्या देवदास बन जाओगे ? वह हंसी ।
क्या मैं इतना मूर्ख लगता हूँ ?........
" छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ,
यह मुनासिव नहीं आदमी के लिए ।"
-----क्रमश:...... अंक-तीन का शेष ..अगली पोस्ट में .....
4 टिप्पणियां:
हमें तो अब तक समझ न आया कि नारी क्या चाहती है, आपकी पोस्ट पढ़ सीखने का यत्न कर रहा हूँ..
--यत्न करते रहिये पान्डे जी....
"लगा रह दर किनारे से, कभी तो लहर आयेगी"
---कभी कभी तो पूरा जीवन बीत जाता है समझने में...कहा जाता है, नारी को तो ब्रह्मा भी नहीं समझ पाया..
---"स्त्री चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं
देवो न जानाति कुतो मनुष्य:"....
कमाल है आप का रसमय धाराप्रवाह लेखन.
कविता और शायरी से चार चाँद लगा देते हैं आप.
स्पष्ट चुटीले सँवाद, आपकी अनोखी प्रतिभा का
कायल हूँ जी.
धन्यवाद राकेश जी...बतौर बाबा तुलसी..
---खग जानै खग ही की भाषा...
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