....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
आयुर्वेद एक सारभूत वर्णन--- भाग एक
अन्य भारतीय ज्ञान व विद्याओं की भाँति भारतीय चिकित्सा विज्ञान भी अत्यंत विकसित था । गुलामी के काल में अन्य ज्ञान व विध्याओं की भाँति सुनियोजित षडयंत्र व क्रमिक प्रकार से इसका भी प्रसार व विकास भी रोका गया ताकि एलोपेथिक आदि पाश्चात्य चिकित्सा को प्रश्रय दिया जा सके । अतः भारत के इतिहास के अन्धकार काल में आयुर्वेद का कोई उत्थान नहीं हुआ अपितु निरंतर गिरावट होती रही । हर्ष का विषय है की आज भारत के नए भोर के साथ आयुर्वेद भी नए नए आयाम छू रहा है। आयुर्वेद के नाम से जाना जाने वाला यह आदि चिकित्सा विज्ञान है, जिसके सारभूत सिद्धांतों से विश्व के सभी चिकित्सा-विज्ञान प्रादुर्भूत हुए हैं । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लगभग सभी अंग-उपांग आयुर्वेद में पहले ही निहित हैं। यद्यपि आजकल आयुर्वेद "प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति' के संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता । इस क्रमिक पोस्ट द्वारा हम आयुर्वेद के इस विशद ज्ञान को संक्षिप्त में वर्णन करेंगे ।
आयुर्वेद अर्थात आयु का वेद…..जीवन की विद्या…... जीवन एवं स्वास्थ्य का ज्ञान -विज्ञान ... नॉलेज ऑफ़ सायन्स आफ़ लाइफ़... भारत व भारतीय संस्कृति की भान्ति यह भारतीय चिकित्सा विज्ञान भी मानव इतिहास का सर्वप्रथम एवं प्रचीनतम चिकित्सा-विज्ञान है जिसका सृष्टि से पहले ही ब्रह्मा द्वारा वेदों में प्रवर्तन किया गया और पृथ्वी पर चरक तक पहुंचा। इसके चिकित्सा सिद्धान्तों से ही विश्व की अन्य विविध चिकित्सा पद्धतियों का जन्म हुआ। इसी के उपलक्ष में बीसवीं शताब्दी में अमेरिका में ’चरक-क्लब ओफ़ मेडीकल स्कोलर्स’ की स्थापना हुई थी,
इतिहास- आयुर्वेद के इतिहास का अभिप्रायः वस्तुतः चिकित्सा-विज्ञान के इतिहास से ही लेना चाहिये …… संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है जो वस्तुतः अपने प्राचीनतम पुस्तक-रूप से भी युगों पूर्व पुरा-काल से मौखिक-ग्रन्थ के रूप में सतत गुरु-शिष्य परम्परा में कथ्य व श्रव्य रूप में प्रवह्मान थी, इसीलिये वेदों को श्रुति भी कहा जाता है । विभिन्न विद्वानों ने इसका निर्माण काल ईसा के ३,००० से ५०,००० वर्ष पूर्व तक का माना है । इस संहिता में आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है, तत्पश्चात अथर्ववेद मे आयुर्वेद का विस्तृत एवं क्रमिक विवरण पाया जाता है । आयुर्वेद को पन्चम वेद भी कहा जाता है । चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि आयुर्वेद के मान्य ग्रन्थ व चिकित्सक-ऋषि आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। इससे आयुर्वेद की प्राचीनता सिद्ध होती है । अतः आयुर्वेद का रचनाकाल – यद्यपि भारतीय दर्शन के अनुसार आयुर्वेद सृष्टि की उत्पत्ति से पहले ही था जो आदि-विष्णु ( व्यक्त ब्रह्म ) द्वारा त्रिदेवों को दिया गया । आधुनिक विज्ञान के अनुसार ..इसे ईसा पूर्व ३,००० से ५०००० वर्ष पहले यानि … सृष्टि की उत्पत्ति के आस-पास या साथ का माना जा सकता है।
आयुर्वेद का अवतरण—मूलतः दो मत हैं---
चरक मत के अनुसार-- सर्वप्रथम ब्रह्मा के मुख से पन्चम वेद की भांति ---प्रजापति ने, ---प्रजापति से--- अश्विनी कुमारों ने उनसे-- इन्द्र ने और इन्द्र से- भारद्वाज ने ... तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने.... अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया । इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र का, जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरक संहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है । इस प्रकार मृत्युलोक में आयुर्वेद के अवतरण के साथ- अग्निवेश का नामोल्लेख है ।
सुश्रुत मत के अनुसार-- काशीराज दिवोदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वन्तरि के अनुसार ..सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने सृष्टि उत्पादन पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय- शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया और पुनः मनुष्य को अल्पमेधावी समझकर इसे आठ अंगों में विभक्त कर दिया । --ब्रह्मा से--- दक्ष प्रजापति, --उनसे अश्विनीकुमार द्वय तथा उनसे--- इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया ।
इस प्रकार इतिहास एवं आयुर्वेद के अवतरण के क्रम में –मूलत: दो चिकित्सक-ऋषि-कुल --आत्रेय वर्ग तथा धन्वन्तरि वर्ग मान्य है ।
आयुर्वेद के अवतरण क्रम को सन्क्षिप्त में इस प्रकार रखा जा सकता है…..
आदि-विष्णु या व्यक्त-ब्रह्म द्वारा सृष्टि से पहले… वेद व अमृत -विद्या अर्थात आयुर्वेद का प्रकटीकरण ----> प्रथम चिकित्सक त्रिदेवों को ( ब्रह्मा, विष्णु, शिव ) —
१- शिव---चिकित्सकों के चिकित्सक… मृत-संजीवनी विद्या…के प्रवर्तक.. ----> शुक्राचार्य को.....
२- विष्णु--- अमृत-विद्या… के प्रवर्तक --->गरुड को ....
३- ब्रह्मा ..आदि ब्रह्म द्वारा स्मरण कराने पर …श्रुत शब्दों व स्मृत अर्थों से एक लाख श्लोकों में आयुर्वेद की रचना की…..जिसे पन्चम वेद भी कहते है और अथर्व वेद का उपान्ग….ब्रह्मा द्वारा ---->
क---राज्य-यक्ष्मा की उत्पत्ति व उसकी चिकित्सा हेतु ..(श्राप से यक्ष्मा ग्रसित चंद्रमा की चिकित्सा हेतु ….चन्द्रमा को ..
ख---- यम व बुध को ..
ग----दक्ष-प्रज़ापति को …दक्ष से ---> अश्वनी कुमार द्वय से---> इन्द्र से---> भगवान आदि धन्वन्तरि---> भारद्वाज को..(सर्वप्रथम पृथ्वी पर अवतरण..) ….. भारद्वाज द्वारा---->
(अ)-धन्वपुत्र धन्वन्तरि मानव -काशिराज दिवोदास को -- काय-चिकित्सा—(मेडीसिन) तन्त्र एवं अष्टान्ग वैद्यक--के प्रवर्तक से ---> जनक, च्यवन, जावालि, करल, अगस्त्य व पैल ( निदान तन्त्र--डायाग्नोसिस-- के प्रवर्तक ) से ---> नकुल-सहदेव ---> आत्रेय, पुनर्वसु, अग्निवेश( अग्निवेश तन्त्र =चरक संहिता) हारीति, जतूकर्ण आदि ---> चरक ( चरक संहिता ग्रन्थ)…..
(ब)-कश्यप को –कौमार-भृत्य -अर्थात बाल एवं स्त्री रोग-( पेडियाट्रिक्स व ओब्सटेट्रिक्स) तन्त्र के प्रवर्तक …से ---> भृगु, अत्रि, वशिष्ठ ----> पुत्र व शिष्य…..
(स)-काशिराज-दिवोदास को शल्य-चिकित्सा ..( सर्जरी) के प्रवर्तक से ----> सुश्रुत (शुश्रुत-संहिता), भोज…….
आयुर्वेद का उद्देश्य---आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र के अनुसार इस शास्त्र के मूलतः--दो उद्देश्य हैं ----
१.स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना (स्वास्थ्य, प्रतिरक्षा व रोकथाम- प्रीवेन्टिव-चिकित्सा) --- --शरीर और प्रकृति के अनुकूल ,नियमित आहार-विहार, गृहस्थ जीवन के लिए उपयोगी शास्त्रोक्त दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतुचर्या का पालन, संकटमय कार्यों से बचना, प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक करना, मन और इंद्रिय को नियंत्रण, शरीर आदि की शक्ति और अशक्ति का विचार कर कोई कार्य करना, मल, मूत्र आदि के वेगों को न रोकना, .....ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अहंकार आदि से बचना, समय-समय पर शरीर में संचित दोषों को निकालने के लिए वमन, विरेचन आदि के प्रयोगों से शरीर की शुद्धि,.... सदाचार का पालन और दूषित वायु, जल, देश और काल के प्रभाव से उत्पन्न महामारियों (एपिडेमिक डिज़ीज़ेज़) में विज्ञ चिकित्सकों के उपदेशों का समुचित रूप से पालन, स्वच्छ और विशोधित जल, वायु, आहार आदि का सेवन और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना, ये स्वास्थ्यरक्षा के साधन हैं।
२.रोगी व्यक्तियों के विकारों को दूर कर उन्हें स्वस्थ बनाना- ( रोग निवारण –ट्रीट्मेन्ट )-- इसके लिए प्रत्येक रोग के लिये…..तीन शाखायें हैं ----त्रिस्कन्ध…… ये तीनों आयुर्वेद के 'त्रिस्कंध' (तीन प्रधान शाखाएं) कहलाती हैं -----
अ -हेतु (कारण---इटियोलोजी ) ,---ब -लिंग - रोग परिचायक विषय, जैसे पूर्वरूप, रूप (साइन्स एंड सिंप्टम्स), संप्राप्ति (पैथोजेनिसिस) तथा उपशयानुपशय (थिराप्युटिक टेस्ट्स)..— स -औषध (मेडीसिन) ----जिनका ज्ञान परमावश्यक है।
----क्रमश: भाग दो....
2 टिप्पणियां:
बेहद महत्वपूर्ण जानकारी आपने बोध गम्य स्वरूप में प्रस्तुत की है .सुन्दर इतिहासिक कर्म संयोजन ओर व्याख्या सहित .आभार आपका .
धन्यवाद बीरू भाई....आभार,,
एक टिप्पणी भेजें