अंक तीन का शेष
यह भी तो प्रेम का ही एक भाव है, सुमि ! एक उत्कृष्ट रूप में, मीरा व राधा का भी तो प्रेम था । यह पराकाष्ठा है प्रेम की । प्रेम को भौतिक रूप में पा लेना कोई इतनी बड़ी बात या उपलब्धि नहीं है, न उससे आपको कोई असाधारण सामाजिक, भावनात्मक या आध्यात्मिक प्राप्ति ही होती है जिसके लिए सारे बंधन, पारवारिक, सामाजिक मर्यादाएं, नैतिकता की सीमाएं तोडी जायं । तमाम कष्ट उठाकर कैरियर दांव पर लगाकर समाज के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न किया जाय । हाँ, प्राप्ति के अहं की तुष्टि अवश्य होती है । यह अशरीरी प्रेम एक उत्कृष्ट भाव है, परकीया होते हुए भी व्यक्ति को जीवन भर प्रफुल्लित रख सकता है, भक्त -भगवान के भाव की तरह ।
तुम्ही कह सकते हो यह सब, केजी '। सुमि भावुक होकर कहती गयी। सच है, 'फ्रेंडशिप सदा रहती है रिलेशनशिप नहीं ।' मित्रता चिरजीवी होती है ।
" मन से तो मितवा हम होगये हैं तेरे
क्या ये काफी नहीं है तुम्हारे लिए ।
दोस्ती ऊंची मन की बहुत प्यार से,
मन की दुनिया है सब कुछ हमारे लिए ।"
मेरी कविता कैसी है, महाकवि केजी ।
आखिर शिष्या किसकी बनी हो, अच्छा चलो अब बताओ राधा व मीरा में कौन श्रेष्ठ है। तुम्हारा क्या ख्याल है ?
बाप रे ! घुमा फिराकर इतना टेड़ा सवाल ? अपनी तरह । दोनों ही श्रेष्ठता की सीमाएं हैं । तुम्हारी ही बात को आगे बढाती हूँ ....'.राधा -प्रेम व विरह दोनों का भाव है, मीरा सिर्फ दरद-दिवाणी है, प्रेम दिवानी है । राधा ने सब कुछ पाया फिर त्यागा । वह त्याग की महानता व पराकाष्ठा है । तभी राधा देवी स्वरूपा होपाई । मीरा बगैर पाए ही प्रेम दीवानी है, दर्द-दीवानी है । पाने का सुख जाने बिना विरह एक अन्य भाव है, भक्ति भाव है । परन्तु पाने के बाद छोड़ने का त्याग -विरह एक अनन्य भाव है । मीरा मानवी ही है ।'
' क्या विश्व में, सभ्यता के किसी दौर में, काव्य में, समाज व इतिहास में ...राधा जैसा चरित्र देखा-सुना है । कहीं एसा हुआ है कि परकीया नायिका, प्रेमिका को आदर ही नहीं अपितु देवी स्वरुप में प्रतिष्ठित किया गया हो । यहाँ तक कि पत्नी के स्थान पर देवता के साथ प्रेमिका को पूजा गया हो । यह सात्विक प्रेम की ही कहानी है ।'
'तो तुम राधा बनना चाहती हो !'
चाहने से क्या होता है, केजी । परिस्थितियाँ ही नियति बनकर व्यक्ति को भवितव्य की ओर धकेलती हैं तथा भविष्य तय करती हैं। हाँ, व्यक्ति की स्वयं की दृड़ता जो आदर्शों, विचारों, कुल व समाज की स्थिति से बनती है इसमें बहुत प्रभाव डालती है ।
' मैं समझ रही हूँ , तुम यह बात क्यों छेड़ रहे हो । तुम क्या कहलाना चाहते हो । परिस्थिति व नियति वश ही मैंने रमेश से प्रेम किया है, शादी का भी इरादा है । आज यद्यपि इस बदली हुई परिस्थित में मैं तुमको भी पसंद करती हूँ, बदल भी सकती हूँ, तुमसे भी विवाह कर सकती हूँ । परन्तु तुम्हारे ही अनुसार प्रेम में प्रिय को प्राप्त कर लेना उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि बहुत सारे अवांछित पापड बेले जायं । यदि मैं तुम्हें प्रेम करते हुए भी ..रमेश से प्रेम विवाह करती हूँ तो क्या मेरे प्रेम की, मित्रता की महत्ता कम होती है ? मैं तो राधा भी हूँ, मीरा भी ......। संतुष्ट हो ।'
' जी '
'और कुछ पूछना है ?'
'नहीं जी '
' व्हाट द हेल '.... ये जी.. जी क्या लगा रखी है ? ' वह नाराज़गी से देखने लगी ।
' अब राधा और मीरा से तो सम्मान से ही पेश आना पडेगा न ।'
' धत...यू......।'
' वैसे सीता के बारे में आपकी राय ....।
फिर कभी, अब निकलो यहाँ से, नहीं तो मार खाजाओगे । वह मुझे लगभग धकेलती हुई चल दी ।
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छात्र संघ के चुनावों में सचिव, सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के पद के लिए सुमित्रा को प्रत्याशी बनाया गया । सभी छात्र प्रत्याशी, तरह तरह के प्रचार कार्ड बनवाकर छात्रों में बाँटते थे । अपने अपने नवीन विचारों, भावों को प्रचार कार्ड के पीछे लिखा जाता था । सुमित्रा प्रसन्न मना व प्रसन्ना बदना दौड़ती हुई आयीं ।
कृष्ण ! कोई नया आइडिया सोचा जाय, एक दम नवीन । ये सारे कार्ड तो पढ़ कर फैंक दिए जाते हैं । मैं चाहती हूँ एसा कार्ड बने जो फैंका न जा सके, प्रिज़र्व करने लायक हो ।
'क्या अभी से अमर होने का प्रयास है ।' मैंने कहा तो वह गंभीर होकर मुझे देखती रह गयी ।
'मैंने कहा, एक 'बुक-मार्क' के आकार का कार्ड बनाओ और उसके पृष्ठ पर किसी इसी अच्छे चिकित्सा विषय की संक्षिप्त गाथा लिख दो कि सब पढ़ें । देखना तुम सालों साल पुस्तकों में प्रिज़र्व रहोगी ।' मैंने सुझाव दिया ।
सुपर्व..'.मुझे पता था, तुम्हारे पास हर प्रश्न का तुरंत रेडीमेड उत्तर अवश्य रहता है ।' सुमि ने प्रशंसापूर्वक सर हिलाते हुए कहा ।
दूसरे दिन सुमित्रा ने अपने प्रचार-पत्र का प्रारूप लाकर दिखाया । पुस्तक-चिन्ह के रूप में कार्ड के पीछे " श्रवण-पथ " का संक्षिप्त किन्तु पूर्ण व सारगर्भित वर्णन था ......
हीयरिंग पाथ वे ( श्रवण-पथ )
' स्टीरियोफोनिक' ( सम्मिश्र ) ध्वनियाँ सुनने के लिए मानव को दो कान दिए गए हैं, इसी कारण दिशा निर्धारण भी सुगम होता है । 'पिन्ना' (बाहरी कान ) ध्वनि को केन्द्रित करते हैं तथा यूस्टेकीयन ट्यूब (कर्ण नलिका ) की तरफ भेजते है । ध्वनि-श्रोत ( साउंड ) के समीप की वायु में मशीनी ऊर्जा रूपी तरंगें उत्पन्न होती हैं जो कर्ण-नलिका में प्रवेश करके टिम्पेनम या ईयर-ड्रम ( कान का पर्दा ) को कम्पन देती हैं । ये कम्पन मध्य-कर्ण स्थित तीन छोटी-छोटी अस्थियों --इन्कस, मेलियस, स्टेपीज़ ...द्वारा आतंरिक कर्ण स्थित ' काक्लिया' को कम्पित करती हैं । यहाँ पर कम्पनों की मशीनी ऊर्जा...विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित होकर श्रवण तंत्रिका ( आठवीं केन्द्रीय तंत्रिका नाडी ) के तंतुओं को विद्युत्-प्रवाह सन्देश देती हैं जहां से वे विद्युत-धारा के रूप में ' काक्लियर-केन्द्रक ' होते हुए ' मेड्यूला ' के 'सुपीरियर ओलिवरी काम्प्लेक्स ' पहुँच कर दोनों तरफ के कानों की सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं ताकि ताल-मेल बना रहे । वहां से ' लेटरल लेमिनिस्कस ' होते हुए सन्देश 'मध्य मस्तिष्क' के 'इन्फीरियर कौलीकस' पहुंचते हैं, जहां पुनः दोनों ओर के कानों के स्नायु ( नर्व-तंतु) -क्रास ओवर होते हैं और अंत में 'मीडियल केलीकुलस' होते हुए ये संवेदन ध्वनि विद्युत् -प्रवाह 'उच्च-मस्तिष्क' ( सेरीब्रम ) के 'टेम्पोरल लोब' के 'एकोस्टिक एरिया' ( श्रवण-क्षेत्र ) पहुंचते हैं ; जहां विद्युत्-रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा इन संवेदी सूचनाओं का विश्लेषण करके उचित उत्तर व आदेश प्रेषित होते हैं और हम सुनते हैं व प्रतिक्रया व्यक्त करते हैं ।"
'एक्सीलेंट , सुपर्व, सिम्पली मार्वेलस। यू आर जीनियस सुमि ! ।' क्या आइडिया है । यह तुम्हारा प्रचार-पत्र , बुक-मार्क सालों साल चिकित्सा-विद्यालय के मन-मानस में, डाक्टरों-छात्रों के साथ अमर बन कर रहेगा ।
यह आशीर्वाद है ! वह मुस्कुराई, 'किन्तु मूल आइडिया तो तुम्हारा ही था ।', सुमि ने कहा ।
'पर क्रिया रूप में परिणत न होने पर शायद व्यर्थ ही रहता ।' मैंने प्रशंसात्मक नज़रों से कहा, 'बधाई'।
----- अंक तीन समाप्त......क्रमश : अंक चार ...अगली पोस्ट में ...
4 टिप्पणियां:
विश्वविद्यालय में न जाने कितने और विश्व बनते रहते हैं।
बहुत बढ़िया प्रस्तुति!
होली की शुभकामनाएँ!
---धन्यवाद शास्त्री जी.....होली की शुभकामनायें आपको भी ..
---धन्यवाद पान्डे जी.... सच है जाने कितने विश्व हैं...होते हैं..बनते बिगडते हैं विश्व-विद्यालय में .... शुभ होली..
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