....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
दादी -माँ के नुस्खों के बीच पलते हुए...वैद्यजी-हकीम जी की पुड़ियों के मध्य गुजरते हुए बचपन ..तत्पश्चात एलोपेथिक मॉडर्न हस्पतालों व डाक्टरों की राह बढ़ते हुए मैं प्रायः दोनों -तीनों पद्धतियों की चमत्कारिक चिकित्सा क्षमता, चिकित्सा सेवा व दवा के मूल्य के अंतर पर सदा ही विचार किया करता था कि यदि आयुर्वेदिक प्रणाली देश में चलती रहे तो कितने लाभ में रहे गरीब देश की गरीब जनता....। फिर आगे जब आयुर्वेदिक -डाक्टरों-वैद्यों को भी एलोपेथिक दवाएं-प्रयोग करते देखा तो दुःख हुआ व यह एक दुस्वप्न सा ही प्रतीत हुआ।
अपने मेडीकल स्कूल के दिनों में फिर पी जी, रेज़ीडेंट सर्जन और आगे चिकित्सा प्रेक्टिस के दिनों में जब एलोपेथी के साथ अन्य.. पेथी...आयुर्वेदिक, होम्योपेथिक आदि के प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने पर मैं प्रायः ..अंग्रेज़ी चिकित्सा पद्धति की ..अधिक मूल्य -प्रभाव, विदेशी पद्धति होने के कारण हमारी अनिवार्यतः परालम्बता एवं स्वयम अपने देशीय भाव को आगे न बढ़ा पाने की मजबूरी और देश की अधिकाँश सामान्य जनता की मज़बूरी के चलते यही सोचा करता था कि यदि देश में तथाकथित आधुनिक पद्धति एलोपेथी के साथ साथ--अपनी प्राचीन आयुर्वेदिक पद्धति का बोलबाला हो, आगे बढकर यह पद्धति व उसकी औषध-संस्थान आगे प्रश्रय पाए तो हम विदेशी दवाओं पर आधारित न होकर ..कितना अधिक देशी-विदेशी मुद्रा को बचाने में सफल हो सकते हैं एवं परालंबन से छुटकारे में भी, जिससे देश को और अधिक तेजी से विकास की राह मिल सकती है।
आज जब योग गुरु रामदेव जी अपने संस्थान की औषधियों को खुदरा बाज़ार में उचित मूल्य पर लाना चाहते हैं तो कुछ आशा की किरण ही दिखाई देती है, न की कोई बुराई । इसका स्वागत किया जाना चाहिए । निश्चय ही यदि आयुर्वेदिक औषधियां बाज़ार के - प्रभाव से मुक्त होकर सस्ती दरों पर मिलती हैं तो अच्छा ही है। इससे हमें आजकल एलोपेथी व विदेशी तौर तरीकों पर चलने वाली कुछ तथाकथित आयुर्वेदिक
दवा कंपनियों के जाल से मुक्ति मिलेगी एवं यदि आयुर्वेदिक सस्ती दवाएं प्रचलन में आती हैं तो यह देशी दवाएं ही नहीं अपितु आयुर्वेदिक - चिकित्सा पद्धति के भी आगे बढ़ने में एक कदम सिद्ध होगा और अरबों रुपये की विदेशी मुद्रा के बचने का ज़रिया ।
रामदेव जी की सिर्फ इसीलिये विरोध नहीं होनी चाहिए की वे योगी हैं उन्हें योग -शिक्षा से मतलब रखना चाहिए व्यवसाय में नहीं आना चाहिए। यह अनुचित सोच है । एक तरफ तो हम विश्वविद्यालयों, शिक्षा संस्थानों को अपनी स्वतन्त्र आर्थिक-दृष्टि विकसित करने हेतु योजनायें बनाने की बातें करते हैं दूसरी और आयुर्वेद संस्थानों के प्रति भेद- भाव। राम देव योगी हैं कोई सन्यासी नहीं .... योग का अर्थ ही हर वस्तु, विचार व क्षेत्र में समन्वय करना होता है .. सामाजिक समन्वय... अतः उनका बाज़ार में उतरना कोई योग से पथ-भृष्ट होना नहीं है अपितु योग को वास्तविकता देना, सामाजिकता से जोड़ना ही है। हाँ इसमें उन्हें स्वार्थ से परे रहना होगा ।
दादी -माँ के नुस्खों के बीच पलते हुए...वैद्यजी-हकीम जी की पुड़ियों के मध्य गुजरते हुए बचपन ..तत्पश्चात एलोपेथिक मॉडर्न हस्पतालों व डाक्टरों की राह बढ़ते हुए मैं प्रायः दोनों -तीनों पद्धतियों की चमत्कारिक चिकित्सा क्षमता, चिकित्सा सेवा व दवा के मूल्य के अंतर पर सदा ही विचार किया करता था कि यदि आयुर्वेदिक प्रणाली देश में चलती रहे तो कितने लाभ में रहे गरीब देश की गरीब जनता....। फिर आगे जब आयुर्वेदिक -डाक्टरों-वैद्यों को भी एलोपेथिक दवाएं-प्रयोग करते देखा तो दुःख हुआ व यह एक दुस्वप्न सा ही प्रतीत हुआ।
अपने मेडीकल स्कूल के दिनों में फिर पी जी, रेज़ीडेंट सर्जन और आगे चिकित्सा प्रेक्टिस के दिनों में जब एलोपेथी के साथ अन्य.. पेथी...आयुर्वेदिक, होम्योपेथिक आदि के प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने पर मैं प्रायः ..अंग्रेज़ी चिकित्सा पद्धति की ..अधिक मूल्य -प्रभाव, विदेशी पद्धति होने के कारण हमारी अनिवार्यतः परालम्बता एवं स्वयम अपने देशीय भाव को आगे न बढ़ा पाने की मजबूरी और देश की अधिकाँश सामान्य जनता की मज़बूरी के चलते यही सोचा करता था कि यदि देश में तथाकथित आधुनिक पद्धति एलोपेथी के साथ साथ--अपनी प्राचीन आयुर्वेदिक पद्धति का बोलबाला हो, आगे बढकर यह पद्धति व उसकी औषध-संस्थान आगे प्रश्रय पाए तो हम विदेशी दवाओं पर आधारित न होकर ..कितना अधिक देशी-विदेशी मुद्रा को बचाने में सफल हो सकते हैं एवं परालंबन से छुटकारे में भी, जिससे देश को और अधिक तेजी से विकास की राह मिल सकती है।
आज जब योग गुरु रामदेव जी अपने संस्थान की औषधियों को खुदरा बाज़ार में उचित मूल्य पर लाना चाहते हैं तो कुछ आशा की किरण ही दिखाई देती है, न की कोई बुराई । इसका स्वागत किया जाना चाहिए । निश्चय ही यदि आयुर्वेदिक औषधियां बाज़ार के - प्रभाव से मुक्त होकर सस्ती दरों पर मिलती हैं तो अच्छा ही है। इससे हमें आजकल एलोपेथी व विदेशी तौर तरीकों पर चलने वाली कुछ तथाकथित आयुर्वेदिक
दवा कंपनियों के जाल से मुक्ति मिलेगी एवं यदि आयुर्वेदिक सस्ती दवाएं प्रचलन में आती हैं तो यह देशी दवाएं ही नहीं अपितु आयुर्वेदिक - चिकित्सा पद्धति के भी आगे बढ़ने में एक कदम सिद्ध होगा और अरबों रुपये की विदेशी मुद्रा के बचने का ज़रिया ।
रामदेव जी की सिर्फ इसीलिये विरोध नहीं होनी चाहिए की वे योगी हैं उन्हें योग -शिक्षा से मतलब रखना चाहिए व्यवसाय में नहीं आना चाहिए। यह अनुचित सोच है । एक तरफ तो हम विश्वविद्यालयों, शिक्षा संस्थानों को अपनी स्वतन्त्र आर्थिक-दृष्टि विकसित करने हेतु योजनायें बनाने की बातें करते हैं दूसरी और आयुर्वेद संस्थानों के प्रति भेद- भाव। राम देव योगी हैं कोई सन्यासी नहीं .... योग का अर्थ ही हर वस्तु, विचार व क्षेत्र में समन्वय करना होता है .. सामाजिक समन्वय... अतः उनका बाज़ार में उतरना कोई योग से पथ-भृष्ट होना नहीं है अपितु योग को वास्तविकता देना, सामाजिकता से जोड़ना ही है। हाँ इसमें उन्हें स्वार्थ से परे रहना होगा ।
6 टिप्पणियां:
आपके विचारों से सहमत हूँ,डॉ साहब.
स्वार्थ की मुक्ति से ही परमार्थ का मार्ग
प्रशस्त हो पायेगा.
बाजार में तो सबका समान अधिकार है।
धन्यवाद राकेश जी ...निश्चय ही प्रत्येक वस्तु-विचार-कर्म में...स्वार्थ रहित होने पर ही हम अपनी पूरी क्षमता व योग्यता से उसके कार्यान्वन में सफ़ल हो सकते हैं....
राकेश जी के बातों से सहमत .... स्वार्थ रहित कार्य यदि समाज के हित में है तो उसकी घृष्ट आलोचना व्यर्थ है ..योग का तो अर्थ ही है जोड़ना ..जो की स्वामी रामदेव जी बखूबी कर रहे हैं ...व्यर्थ के भौकने वालों पर ध्यान नहीं देना चाहिए ..आज तो ऐसे लोग बहुत से मिल जायेंगे जो अपने स्वार्थ के सिवा कुछ तो कर नहीं सकते ...किन्तु यदि कोई कुछ अच्छा करना चाहता है तो उसकी टांग खीने में सैदेव आगे रहेंगे ...
बाजार में अपना माल बेचना खरीदना हमारा मौलिक अधिकार है,....
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धन्यवाद पान्डे जी एवं धीरेन्द्र जी......सही कहा मौलिक अधिकार है....
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