....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
'लिंग' का सामान्य
अर्थ 'चिन्ह' होता है। इस अर्थ में लिंग
पूजन, शिव के चिन्ह या प्रतीक के रूप में होता है। सवाल
उठता है कि लिंग पूजन केवल शिव का ही क्यों होता है, अन्य
देवताओं का क्यों नहीं? कारण यह है कि शिव को आदि शक्ति के रूप में स्वीकार किया
गया है, जिसकी कोई आकृति नहीं।
इस रूप में शिव निराकार है।
लिंग का अर्थ ओंकार (ॐ) बताया गया है....
"प्रणव तस्य लिंग ”
उस ब्रह्म का चिन्ह प्रणव , ओंकार है ...अतः 'लिंग' का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं अपितु उनके
'पहचान चिह्न' से है, जो अज्ञात तत्त्व का
परिचय देता है। यह पुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप
मानता
है |
शिवलिंग की आकृति
----भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार यह संपूर्ण ब्रह्मांड मूल रूप में एक अंडाकार
ज्योतिपुंज ( बिगबेन्ग का महापिन्ड-नीहारिका के स्वरुप की भांति -– विज्ञान
) के
रूप में था। इसी ज्योतिपुंज को आदिशक्ति (या शिव) भी कहा जा सकता है, जो बाद में
बिखरकर
शिव के 'अर्द्धनारीश्वर' स्वरूप
से जिस मैथुनी-सृष्टि का जन्म
हुआ, जो तत्व-विज्ञान
के अर्थ में विश्व संतुलन व्यवस्था में ( जो हमें सर्वत्र दिखाई देती है ) -शिव तत्व
के भी संतुलन हेतु योनि-तत्व की कल्पना की गयी जो बाद में भौतिक जगत में
लिंग-योनि पूजा का आधार बनी | उसे
ही जनसाधारण को समझाने के लिए लिंग और योनि के इस प्रतीक चिह्न को सृष्टि के
प्रारम्भ में प्रचारित किया गया
| इस प्रकार हम देखते हैं कि जहां भारत में लिंग-पूजा को सूक्ष्म
अध्यात्मिक, धार्मिक, व तात्विक रूप दिया गया वहीं अन्य भागों में उसे
सिर्फ स्थूल- भौतिक रूप में जाना गया, यही भारतीय व अन्य संस्कृतियों में
अंतर है |
----- बहुकोशीय जीव ...हाईड्रा आदि हुए जो विखंडन –संयोग ,बडिंग,
स्पोरुलेशन से प्रजनन करते थे |---. वाल्वाक्स आदि पहले कन्जूगेशन(
युग्मन ) फिर विखंडन से असंख्य प्राणी उत्पन्न करते थे | इस समय सेक्स –भिन्नता अर्थात लिंग –पहचान नहीं थी |
५-साहित्य व भाषाई जगत में....लिंग.... कर्ता व क्रियाओं की पहचान को कहते हैं | प्रत्येक कर्ता या क्रिया ...स्त्रीलिंग, पुल्लिंग या नपुंसक लिंग होता है ।
अब प्रश्न उठता है कि आत्मा जब न स्त्री है,और न पुरुष तो फिर स्त्री या पुरुष के रूप में जन्म लेने का आधार क्या है?
इस अन्तर का आधार जीव की स्वयं की अपने प्रति मान्यताएँ हैं । जीव चेतना भीतर से जैसी मान्यता दृड होजाती है वही अन्तःकरण में स्थिर होजाती है | । अन्तःकरण के मुख्य अंग -मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में अहंकार वह अस्मिता-भाव है जिसके सहारे व्यक्ति सत्ता का समष्टि सत्ता से पार्थ्क्य टिका है । इसी अहं-भाव में जो मान्यताएँ अंकित-संचित हो जाती हैं वे ही व्यक्ति की विशेषताओं का आधार बनती हैं ।आधुनिक मनोवैज्ञानिक शब्दावली में अहंकार को अचेतन की अति गहन पर्त कह सकते हैं । इन विशेषताओं में लिंग-निर्धारण भी सम्मिलित है । जीवात्मा में जैसी इच्छा उमड़ेगी जैसी मान्यताएँ जड़ जमा लेंगी, वैसा जीवात्मा का वही लिंग बन जाता है|
पुराणों में इस प्रकार के अगणित उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें व्यक्तियों ने अपने संकल्प बल एवं साधना उपक्रम के द्वारा लिंग परिवर्तन में सफलता प्राप्त की है--यथा ..अम्बा की शिखंडी वेश ...देव-गुरु बृहस्पति का स्त्री-वेश आदि ..
निम्न प्राणी ऊस्टर.. जन्तुओं में अग्रणी हैं जो मादा की तरह अण्ड़े देने के बाद एक मास बाद ही नर बन जाते हैं और उभयपक्षीय लिंग में रहने वाली विभिन्नताओं का आनन्द लूटते हैं ।
अतः लिंग के आधार पर नर-नारी, कन्या-पुत्र का विभेद
क्यों ?-- यह सर्वथा अर्थहीन है...
----प्रत्येक मनुष्य के भीतर उभयलिंगों का अस्तित्व विद्यमान रहता है । नारी के भीतर एक नर सत्ता भी होती हैं, जिसे ऐनिमस कहते हैं । इसी प्रकार हर नर के भीतर नारी की सूक्ष्म सत्ता विद्यमान होती है, जिसे ऐनिमेसिस कहते हैं । प्रजनन अगों के गह्वर में विपरीत लिंग का अस्तित्व भी होता है । नारी के स्तन विकसित रहते हैं, परन्तु नर में भी उनका अस्तित्व होता है ।
अतः यह आवरण सामयिक है आत्मा का कोई लिंग नहीं होता । एक ही जीवात्मा अपने संस्कारों और इच्छा के अनुसार पुरुष या नारी, किसी भी रूप में वैसी ही कुशलता के जीवन जी सकता है । नर नारी के भेद, प्रवृत्तियों की प्रधानता के परिणामस्वरूप शरीर मन में हुए परिवर्तनों में भेंद हैं । उनमें से कोई भी रूप श्रेष्ठ या निष्कृष्ट नहीं, अपने व्यक्तित्व यानी गुण क्षमताओं और विशेषताओं के आधार पर ही कोई व्यक्ति उत्कृष्ट या निष्कृष्ट कहा जा सकता है,लिंग के आधार पर नहीं ।
------अतः कन्या-भ्रूण ह्त्या पूर्णतः अतात्विक, अतार्किक,
अवैज्ञानिक, अधार्मिक व असामाजिक, अमानवीय कर्म है एवं
राष्ट्रीय अपराध |
---- चित्र गूगल साभार
विश्व
की सबसे श्रेष्ठ व उन्नत भारतीय शास्त्र-परम्परा ---पुराण साहित्य में मूलतः अवतारवाद
की प्रतिष्ठा हैं निर्गुण निराकार
की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना का प्रतिपादन इन ग्रंथों का मूल विषय है।
उनसे
एक ही निष्कर्ष
निकलता है कि आखिर मनुष्य और इस सृष्टि का आधार-सौंदर्य
तथा इसकी मानवीय अर्थवत्ता में कही- न-कहीं सद्गुणों की प्रतिष्ठा होना
ही चाहिए। उसका मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही
है।
पौराणिक लिंग पुराण---भारत में लिंग पूजा की परंपरा आदिकाल से ही है। पर लिंग-पूजा की परंपरा
सिर्फ भारत में ही नहीं है, बल्कि दुनिया के ज्यादातर
हिस्सों में आरंभ से ही इसका चलन । यूनान में इस देवता को 'फल्लुस' ( जिससे
अन्ग्रेज़ी में फ़ैलस = शिश्न बना )तथा रोम
में 'प्रियेपस' कहा
जाता था।
'फल्लुस' शब्द (टाड का राजस्थान, खंड प्रथम, पृष्ठ
603) संस्कृत के 'फलेश' शब्द का ही अपभ्रंश है, जिसका प्रयोग शीघ्र फल देने
वाले 'शिव' के
लिए किया जाता है। मिस्र में 'ओसिरिस' , चीन में 'हुवेड् हिफुह' था।
सीरिया तथा बेबीलोन में भी शिवलिंगों के होने का उल्लेख मिलता है। उत्तरी अमेरिका में १९८० में एक मॉडर्न चर्च ,सेंट प्रियापस चर्च -फेलस वर्शिप का केन्द्र थी |
ओसिरिस -मिस्र |
शिवलिंग -चंबल घाटी -भारत |
ग्रीक कथा में प्रियापस |
मुखाकृति शिव-लिंग कम्बोडिया |
लिंग -मूर्ति...रोम |
जर्मनी में प्राप्त लिंग
|
| |||
प्रधानं प्रकृतिश्चैति यदाहुर्लिंगयुत्तमम्।
गन्धवर्णरसैर्हीनं शब्द स्पर्शादिवर्जितम् ॥ (लिंग पुराण
1/2/2)
अर्थात् प्रधान प्रकृति
उत्तम लिंग कही गई है जो गन्ध, वर्ण, रस, शब्द और स्पर्श से तटस्थ या वर्जित है।
अर्धनारीश्वर |
अनेक ग्रहों और उपग्रहों में बदल गई।( विज्ञान
के अनुसार --समस्त सौरमंडल महा-नेब्यूला के
बिगबैंग
द्वारा बिखरने से बना है |) वैदिक विज्ञान--'एकोहम् बहुस्यामि' का भी यही साकार रूप और प्रमाण है। इस स्थिति में मूल अंडाकार
ज्योतिपुंज ( दीपक की लौ या अग्निशिखा भी अंडाकार रूप होती है अतः ज्योतिर्लिंग
कहा गया ) का प्रतीक सहज रूप में वही आकृति बनती है, जिसकी
हम लिंग रूप में पूजा करते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड की आकृति
निश्चित ही शिवलिंग की आकृति से मिलती-जुलती है इस तरह शिवलिंग का पूजन, वस्तुत: आदिशक्ति का और वर्तमान ब्रह्मांड
का पूजन है।
परन्तु इस आलेख में हम पौराणिक लिंग या लिंग
पुराण नहीं अपितु लिंग की आधुनिक व्याख्या पर विस्तृत प्रकाश
डालेंगे | जिसमें लिंग का तात्विक अर्थ --आत्मतत्व,आध्यात्मिक,
जैविक, भौतिक व साहित्यक व भाषायी आधार पर व्याख्यायित
किया जाएगा |
लिंग का मूल अर्थ किसी भी वस्तु..जीव ,जड़, जंगम ...भाव आदि का चिन्ह या पहचान होता है | जो लिन्ग-पूजन का कारण-मूल है...
पुराण नहीं अपितु लिंग की आधुनिक व्याख्या पर विस्तृत प्रकाश
डालेंगे | जिसमें लिंग का तात्विक अर्थ --आत्मतत्व,आध्यात्मिक,
जैविक, भौतिक व साहित्यक व भाषायी आधार पर व्याख्यायित
किया जाएगा |
लिंग का मूल अर्थ किसी भी वस्तु..जीव ,जड़, जंगम ...भाव आदि का चिन्ह या पहचान होता है | जो लिन्ग-पूजन का कारण-मूल है...
१- आध्यात्मिक-वैदिक आधार में -
-- ब्रह्म अलिंगी है|
----उससे व्यक्त ईश्वर व माया भी अलिंगी हैं |
---जो ब्रह्मा , विष्णु,
महेश व ...रमा, उमा, सावित्री ..के आविर्भाव के पश्चात ----विष्णु व रमा के संयोग से
....व विखंडन से असंख्य चिद्बीज अर्थात “एकोहं
बहुस्याम” के अनुसार विश्वकण बने जो समस्त सृष्टि के मूल कण थे | यह सब संकल्प सृष्टि
( या अलिंगी-अमैथुनी—ASEXUAL—विज्ञान ) सृष्टि थी | लिंग का
कोइ अर्थ नहीं था |
--प्रथमबार लिंग-भिन्नता ...रूद्र-महेश्वर
के अर्ध नारीश्वर रूप की आविर्भाव से हुई,
----जो स्त्री व पुरुष के भागों में भाव-रूप से विभाजित
होकर प्रत्येक जड़, जंगम व जीव के चिद्बीज या
विश्वकण में प्रविष्ट हुए |
----मानव-सृष्टि में ब्रह्मा ने स्वयं को पुरुष व स्त्री रूप
----मनु-शतरूपा में विभाजित किया और लिंग –अर्थात पहचान की व्यवस्था स्थापित
हुई | क्योंकि शम्भु -महेश्वर लिंगीय प्रथा के जनक हैं अतः –इसे माहेश्वरी प्रजा व
लिंग के चिन्ह को शिव का प्रतीक लिंग माना गया |
२- जैविक-विज्ञान ( बायोलोजिकल ) आधार पर----सर्वप्रथम व्यक्त जीवन एक कोशीय बेक्टीरिया
के रूप में आया जो अलिंगी ( एसेक्सुअल.. ) था ..समस्त जीवन का मूल आधार ----> जो एक कोशीय प्राणी प्रोटोजोआ ( व बनस्पति—प्रोटो-फाइट्स--यूरोगा यरा
आदि ) बना| ये सब विखंडन (फिजन) से प्रजनन
करते थे |
द्विलिंगी पुष्प |
----- पुनः द्विलिंगीय जीव( अर्धनारीश्वर –भाव ) ...केंचुआ, जोंक..या द्विलिंगी पुष्प वाले पौधे .. अदि के साथ लिंग-पहचान प्रारम्भ हुई | एक ही जीव में दोनों स्त्री-पुरुष लिंग होते थे |
------;तत्पश्चात एकलिंगी जीव ...उन्नत प्राणी
..व वनस्पति आये जो ..स्त्री-पुरुष अलग अलग होते हैं ... मानव तक जिसमें अति उन्नत
भाव—प्रेम स्नेह, संवेदना आदि उत्पन्न हुए| तथा विशिष्ट लिंग पहचान आरम्भ हुई---यथा....
..स्त्री
में पुरुष में
१-बाह्य पहचान----
-- योनि, भग -- लिंग (शिश्न)
२-आतंरिक लिंग... --अंडाशय, यूटरस --वृषण (टेस्टिज)
३-बाह्य-उपांग
.... --स्तन --दाड़ी, मूंछ
४-आकारिकी(मोर्फोलोजी)
... --नरम व चिकनी त्वचा --पंख, रंग , कलँगी ,सींग
५-भाव-लिंग
... --धैर्य, माधुर्य, सौम्यता, --कठोरता, प्रभुत्व ज़माना,
नम्रता, मातृत्व की इच्छा
आक्रमण-क्षमता
--वनस्पति
में –लिंग-पहचान---- पुष्पों का सुगंध, रंग,
भडकीलापन...एकलिंगी-द्विलिंगी पुष्प ..पुरुषांग –स्टेमेन ..स्त्री अंग ...जायांग
...पराग-कण आदि|
३-तत्व-भौतिकी आधार पर लिंग... मूल कणों को विविध लिंग रूप में -----ऋणात्मक
(नारी रूप) इलेक्ट्रोन ...धनात्मक ( पुरुष रूप ) पोजीत्रोन.. के आपस में क्रिया करने पर ही सृष्टि ...न्यूट्रोन..का
निर्माण होता है| शक्ति रूप ऋणात्मक –इलेक्ट्रोन....मूल कण –प्रोटोन के चारों और चक्कर
लगाता रहता है| रासायनिकी में ...लिंगानुसार ...ऋणात्मक आयन व धनात्मक आयन समस्त
क्रियाओं के आधार होते हैं |
४-आयुर्वेद में भी .... लिंग -- निदान ...अर्थात रोग की पहचान, डायग्नोसिस
को..... (अर्थात पहचान )... कहते हैं |
५-साहित्य व भाषाई जगत में....लिंग.... कर्ता व क्रियाओं की पहचान को कहते हैं | प्रत्येक कर्ता या क्रिया ...स्त्रीलिंग, पुल्लिंग या नपुंसक लिंग होता है ।
६ -आत्म-तत्व की लिंग-व्यवस्था ....
आत्मा न नर है न नारी । वह एक दिव्य सत्ता भर है, समयानुसार, आवश्यकतानुसार वह तरह-तरह के रंग बिरंगे परिधान पहनती बदलती रहती है । यही लिंग व्यवस्था है ।
संस्कृत में 'आत्मा' शब्द नपुंसक
लिंग है, इसका कारण यही है-आत्मा वस्तुतः लिंगातीत है । वह न स्त्री है, और न
पुरुष । अब प्रश्न उठता है कि आत्मा जब न स्त्री है,और न पुरुष तो फिर स्त्री या पुरुष के रूप में जन्म लेने का आधार क्या है?
इस अन्तर का आधार जीव की स्वयं की अपने प्रति मान्यताएँ हैं । जीव चेतना भीतर से जैसी मान्यता दृड होजाती है वही अन्तःकरण में स्थिर होजाती है | । अन्तःकरण के मुख्य अंग -मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में अहंकार वह अस्मिता-भाव है जिसके सहारे व्यक्ति सत्ता का समष्टि सत्ता से पार्थ्क्य टिका है । इसी अहं-भाव में जो मान्यताएँ अंकित-संचित हो जाती हैं वे ही व्यक्ति की विशेषताओं का आधार बनती हैं ।आधुनिक मनोवैज्ञानिक शब्दावली में अहंकार को अचेतन की अति गहन पर्त कह सकते हैं । इन विशेषताओं में लिंग-निर्धारण भी सम्मिलित है । जीवात्मा में जैसी इच्छा उमड़ेगी जैसी मान्यताएँ जड़ जमा लेंगी, वैसा जीवात्मा का वही लिंग बन जाता है|
पुराणों में इस प्रकार के अगणित उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें व्यक्तियों ने अपने संकल्प बल एवं साधना उपक्रम के द्वारा लिंग परिवर्तन में सफलता प्राप्त की है--यथा ..अम्बा की शिखंडी वेश ...देव-गुरु बृहस्पति का स्त्री-वेश आदि ..
निम्न प्राणी ऊस्टर.. जन्तुओं में अग्रणी हैं जो मादा की तरह अण्ड़े देने के बाद एक मास बाद ही नर बन जाते हैं और उभयपक्षीय लिंग में रहने वाली विभिन्नताओं का आनन्द लूटते हैं ।
अतः लिंग के आधार पर नर-नारी, कन्या-पुत्र का विभेद
क्यों ?-- यह सर्वथा अर्थहीन है...
----प्रत्येक मनुष्य के भीतर उभयलिंगों का अस्तित्व विद्यमान रहता है । नारी के भीतर एक नर सत्ता भी होती हैं, जिसे ऐनिमस कहते हैं । इसी प्रकार हर नर के भीतर नारी की सूक्ष्म सत्ता विद्यमान होती है, जिसे ऐनिमेसिस कहते हैं । प्रजनन अगों के गह्वर में विपरीत लिंग का अस्तित्व भी होता है । नारी के स्तन विकसित रहते हैं, परन्तु नर में भी उनका अस्तित्व होता है ।
अतः यह आवरण सामयिक है आत्मा का कोई लिंग नहीं होता । एक ही जीवात्मा अपने संस्कारों और इच्छा के अनुसार पुरुष या नारी, किसी भी रूप में वैसी ही कुशलता के जीवन जी सकता है । नर नारी के भेद, प्रवृत्तियों की प्रधानता के परिणामस्वरूप शरीर मन में हुए परिवर्तनों में भेंद हैं । उनमें से कोई भी रूप श्रेष्ठ या निष्कृष्ट नहीं, अपने व्यक्तित्व यानी गुण क्षमताओं और विशेषताओं के आधार पर ही कोई व्यक्ति उत्कृष्ट या निष्कृष्ट कहा जा सकता है,लिंग के आधार पर नहीं ।
------अतः कन्या-भ्रूण ह्त्या पूर्णतः अतात्विक, अतार्किक,
अवैज्ञानिक, अधार्मिक व असामाजिक, अमानवीय कर्म है एवं
राष्ट्रीय अपराध |
---- चित्र गूगल साभार
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