....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
हम सभी चिल्लाते तो हैं ..व्यवस्था ..व्यवस्था ... व्यवस्था सड़-गल गयी है.. परन्तु क्या करें यह नहीं सोच पाते अपितु प्रतिदिन उन्हीं कार्यों में स्वयं को व्यस्त रखते हैं जो कुछ बातें देश, समाज, संस्कृति, राजनीति व जन सामान्य के कृतित्व में घुन की भांति लगी हुई हैं ... जो नेताओं, कर्मचारियों, शासकों एवं सभी जन सामान्य को इन व्यर्थ के अलाभकारी कार्यों में लगाए रखती हैं ...इन से ध्यान हटे तो व्यवस्था की ओर ध्यान जाये .....
१. जिस्म...पूजा भट्ट .. फिल्म जैसे लोग व फ़िल्में जो कामुकता--अश्लीलता की नई-नई परिभाषायें गढ़ कर समाज में विकृति फैलाने का कार्य करके लोगों का ध्यान व्यर्थ की बातोंमें लगाए रखते हैं और स्त्रियों को चरित्र हीन करने में कोइ कसर नहीं छोडना चाहते ....जिनका परिणाम पोर्न-फिल्मों की बढोतरी में होता है |
२.फिल्मों व टीवी मैं व्यर्थ की वस्तुओं एवं नग्नता परक के विज्ञापनों की भरमार जिनका परिणाम -- इनके हीरो-हीरोइनों को सेलीब्रिटी मानना और किशोर -किशोरियों द्वारा उन्हीं का अनुगमन करना होने लगता है ...
३.मनोरंजन.... स्मार्ट फोन... ईमेल सर्च ...गूगल सर्फिंग ..दफ्तरों में कम्यूटर..टीवी आदि की सुविधाएँ ..आदि में अधिकाँश कर्मियों, छात्रों आदि का समय बर्वाद होता है . .....जो एक अलाभकारी कर्म है और कंपनियों...दफ्तरों ..जन-सुविधा की सेवाओं के कर्मचारियों की कार्य-क्षमता को बाधित करता है...एवं लडके-लडकियों, महिलाओं-पुरुषों को बेमतलब साथ-साथ रहने , मिलने जुलने एवं अधिक रात तक महिलाओं को बाहर रहने की मज़बूरी व अवसर प्रदान करता है|
४.स्कूली--कालिज छात्रों-बच्चों का सम्मान .... आजकल अपने व्यवसायी ध्येय हेतु जगह जगह मेधावी बच्चों का विविध मंचों -संस्थाओं द्वारा सम्मान का नाटक किया जाना एक प्रथा सी होगई है....सप्ताहों तक अखबारों में उनका नाम छापता रहता है .... पढना , अच्छे नंबर लाना व मेधावी होना बच्चों-छात्रों का सामान्य कर्तव्य है ..विशेष गुण नहीं ...अतः इस प्रकार सम्मान आदि उनको अहं की ओर लेजाते हैं और छात्र -असंतोष व द्वंद्वों का कारण बनते हैं...
५.खेल..... करोड़ों खर्च करके ..एक तमगा हासिल कर लाना कहाँ की बुद्दिमानी है....तीरंदाजी, शूटिंग, गोलाफेंक, भारोत्तोलन आदि का वह भी महिलाओं द्वारा ..क्या अर्थ है ये सब पुरातन चीज़ें है आज के जमाने में किस काम आयेंगे .....इसे व्यर्थ के खेलों में समय ..धन बर्बाद करना निहायत मूर्खता है | महिलाओं-पुरुषों - नागरिकों को अपने सामान्य कर्तव्यों से च्युत करने का साधन और ... भ्रष्टाचार ..अनाचार..अनैतिकता के मूल उत्पन्न करना है | हर बढे खेल के समय उस देश--नगर--स्थान में वैश्यावृत्ति व अन्य अनाचारों की बढोतरी होने लगती है |
खेल बच्चे खेलते हैं ...बूढों का क्या खेलना, धंधा बन जाता है और फिर धंधे की अनाचारिता लागू होने लगती है | कौन सा देश ऊपर उठाने में इनकी भूमिका होती है| खेल सिर्फ स्कूल-कालिज स्तर तक ही रहने चाहिए ...बढे स्तर...ओलम्पिक..एशियन-गेम आदि की कोइ आवश्यकता नहीं है...|
६. स्कूलों में अंग्रेज़ी माध्यम तथा विदेशी शिक्षा-पद्दतियों की नक़ल ...बच्चों को विदेश भेजना आदि से उनमें प्रारम्भ से ही देश के प्रति हीन भावना विक्सित होती है....
७.नेताओं..विधायकों ..सांसदों को पारिश्रमिक व सुविधाएँ .......एक दम अनुचित हैं ...बंद होनी चाहिए ... यह देश- समाज सेवा है कोइ नौकरी नहीं .....यदि ये न हों तो देखते है कितने लोग नेता- मंत्री बनने आते हैं और सरकारें गिराने बनाने का खेल कितना होता है...
८.धर्म की दुकानें .... हर एरा-गैरा ...जिसने किसी भी ज्ञान का एक टुकड़ा सीख लिया वही सिखाने ..उपदेश देने बैठ जाता है ... एक संस्था खोल कर बैठ जाता है ...ये बंद होना चाहिए ....सरकार को एसी संस्थाओं को कोइ लाभ..या छूट का प्रश्रय नहीं देना चाहिए ...अपितु टैक्स लगा देना चाहिए ...सिर्फ व्यक्तिगत एवं विना मेम्बरशिप फीस के व्याख्यानों..प्रबचनों को ही होने देना चाहिए....सार्वजनिक पूजा स्थलों आदि का भी प्रतिवर्ष आकलन व वित्तीय जांच होनी चाहिए | ईश्वर व धर्म व्यक्तिगत भावना है संस्थागत नहीं |
९- स्त्रियों का हर पुरुषोचित कार्यों में आगे बढ़ना... खेल....व्यबसाय...नौकरी... पुरुषों के साथ दिन-रात मेल-जोल.. देर रात तक घर से बाहर अकेले आना-जाना आदि को प्रश्रय देता है और अनाचार की नयी-नयी राहों को उत्पन्न करता है समाज को अनैतिकता की व व्यर्थ के कर्मों की राह पर धकेलता है | स्त्रियाँ सिर्फ स्त्रियोचित कार्यों एवं अपने स्वयं के कार्यों..व्यबसायों आदि को अपनाएं जहाँ वे स्वयं ही अपनी मालिक व बॉस हों |
हम सभी चिल्लाते तो हैं ..व्यवस्था ..व्यवस्था ... व्यवस्था सड़-गल गयी है.. परन्तु क्या करें यह नहीं सोच पाते अपितु प्रतिदिन उन्हीं कार्यों में स्वयं को व्यस्त रखते हैं जो कुछ बातें देश, समाज, संस्कृति, राजनीति व जन सामान्य के कृतित्व में घुन की भांति लगी हुई हैं ... जो नेताओं, कर्मचारियों, शासकों एवं सभी जन सामान्य को इन व्यर्थ के अलाभकारी कार्यों में लगाए रखती हैं ...इन से ध्यान हटे तो व्यवस्था की ओर ध्यान जाये .....
१. जिस्म...पूजा भट्ट .. फिल्म जैसे लोग व फ़िल्में जो कामुकता--अश्लीलता की नई-नई परिभाषायें गढ़ कर समाज में विकृति फैलाने का कार्य करके लोगों का ध्यान व्यर्थ की बातोंमें लगाए रखते हैं और स्त्रियों को चरित्र हीन करने में कोइ कसर नहीं छोडना चाहते ....जिनका परिणाम पोर्न-फिल्मों की बढोतरी में होता है |
२.फिल्मों व टीवी मैं व्यर्थ की वस्तुओं एवं नग्नता परक के विज्ञापनों की भरमार जिनका परिणाम -- इनके हीरो-हीरोइनों को सेलीब्रिटी मानना और किशोर -किशोरियों द्वारा उन्हीं का अनुगमन करना होने लगता है ...
३.मनोरंजन.... स्मार्ट फोन... ईमेल सर्च ...गूगल सर्फिंग ..दफ्तरों में कम्यूटर..टीवी आदि की सुविधाएँ ..आदि में अधिकाँश कर्मियों, छात्रों आदि का समय बर्वाद होता है . .....जो एक अलाभकारी कर्म है और कंपनियों...दफ्तरों ..जन-सुविधा की सेवाओं के कर्मचारियों की कार्य-क्षमता को बाधित करता है...एवं लडके-लडकियों, महिलाओं-पुरुषों को बेमतलब साथ-साथ रहने , मिलने जुलने एवं अधिक रात तक महिलाओं को बाहर रहने की मज़बूरी व अवसर प्रदान करता है|
४.स्कूली--कालिज छात्रों-बच्चों का सम्मान .... आजकल अपने व्यवसायी ध्येय हेतु जगह जगह मेधावी बच्चों का विविध मंचों -संस्थाओं द्वारा सम्मान का नाटक किया जाना एक प्रथा सी होगई है....सप्ताहों तक अखबारों में उनका नाम छापता रहता है .... पढना , अच्छे नंबर लाना व मेधावी होना बच्चों-छात्रों का सामान्य कर्तव्य है ..विशेष गुण नहीं ...अतः इस प्रकार सम्मान आदि उनको अहं की ओर लेजाते हैं और छात्र -असंतोष व द्वंद्वों का कारण बनते हैं...
५.खेल..... करोड़ों खर्च करके ..एक तमगा हासिल कर लाना कहाँ की बुद्दिमानी है....तीरंदाजी, शूटिंग, गोलाफेंक, भारोत्तोलन आदि का वह भी महिलाओं द्वारा ..क्या अर्थ है ये सब पुरातन चीज़ें है आज के जमाने में किस काम आयेंगे .....इसे व्यर्थ के खेलों में समय ..धन बर्बाद करना निहायत मूर्खता है | महिलाओं-पुरुषों - नागरिकों को अपने सामान्य कर्तव्यों से च्युत करने का साधन और ... भ्रष्टाचार ..अनाचार..अनैतिकता के मूल उत्पन्न करना है | हर बढे खेल के समय उस देश--नगर--स्थान में वैश्यावृत्ति व अन्य अनाचारों की बढोतरी होने लगती है |
खेल बच्चे खेलते हैं ...बूढों का क्या खेलना, धंधा बन जाता है और फिर धंधे की अनाचारिता लागू होने लगती है | कौन सा देश ऊपर उठाने में इनकी भूमिका होती है| खेल सिर्फ स्कूल-कालिज स्तर तक ही रहने चाहिए ...बढे स्तर...ओलम्पिक..एशियन-गेम आदि की कोइ आवश्यकता नहीं है...|
६. स्कूलों में अंग्रेज़ी माध्यम तथा विदेशी शिक्षा-पद्दतियों की नक़ल ...बच्चों को विदेश भेजना आदि से उनमें प्रारम्भ से ही देश के प्रति हीन भावना विक्सित होती है....
७.नेताओं..विधायकों ..सांसदों को पारिश्रमिक व सुविधाएँ .......एक दम अनुचित हैं ...बंद होनी चाहिए ... यह देश- समाज सेवा है कोइ नौकरी नहीं .....यदि ये न हों तो देखते है कितने लोग नेता- मंत्री बनने आते हैं और सरकारें गिराने बनाने का खेल कितना होता है...
८.धर्म की दुकानें .... हर एरा-गैरा ...जिसने किसी भी ज्ञान का एक टुकड़ा सीख लिया वही सिखाने ..उपदेश देने बैठ जाता है ... एक संस्था खोल कर बैठ जाता है ...ये बंद होना चाहिए ....सरकार को एसी संस्थाओं को कोइ लाभ..या छूट का प्रश्रय नहीं देना चाहिए ...अपितु टैक्स लगा देना चाहिए ...सिर्फ व्यक्तिगत एवं विना मेम्बरशिप फीस के व्याख्यानों..प्रबचनों को ही होने देना चाहिए....सार्वजनिक पूजा स्थलों आदि का भी प्रतिवर्ष आकलन व वित्तीय जांच होनी चाहिए | ईश्वर व धर्म व्यक्तिगत भावना है संस्थागत नहीं |
९- स्त्रियों का हर पुरुषोचित कार्यों में आगे बढ़ना... खेल....व्यबसाय...नौकरी... पुरुषों के साथ दिन-रात मेल-जोल.. देर रात तक घर से बाहर अकेले आना-जाना आदि को प्रश्रय देता है और अनाचार की नयी-नयी राहों को उत्पन्न करता है समाज को अनैतिकता की व व्यर्थ के कर्मों की राह पर धकेलता है | स्त्रियाँ सिर्फ स्त्रियोचित कार्यों एवं अपने स्वयं के कार्यों..व्यबसायों आदि को अपनाएं जहाँ वे स्वयं ही अपनी मालिक व बॉस हों |
1 टिप्पणी:
प्राथमिकतायें ही प्राथमिकता नहीं रही अब..
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