....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
लम्हों ने खता की और सदियों ने सज़ा पाई .....यही हाल है हिन्दी का भी...प्रायः अच्छे भाव होते हुए भी कथन में .....त्रुटिपूर्ण विचार-भाव के कारण वह भाव-सम्प्रेषण नहीं होपाता जो होना चाहिए ...अतः हिन्दी आज उतनी तेजी से प्रगति पथ पर अग्रसर नहीं हो पारही जितना उसे होना चाहिए.....देखिये कुछ असम्प्रक्त व अस्पष्ट विचार भाव .....( उपरोक्त चित्र-समाचार में आलेख..)
कथन १----"मैं जब उर्दू में गज़ल कहता हूँ तो हिन्दी मुस्कुराती है|
लिपट जाता हूँ माँ से तो, मौसी मुस्कुराती है ||...."
-------अर्थात हिन्दी हमारी ( हम भारतीयों की ) माँ नहीं मौसी है माँ तो उर्दू है ..... क्या भावार्थ है इस कथन का/ शे'र का जिसका जोर-जोर से डंका पीटा जाता है | यही भाव हैं हमारे महानुभावों के जिसमें क्या कोई गूढ़ अर्थ छुपा है...जो हिन्दी से हमें दूर करे...
कथन -२..राम मनोहर लोहिया ...हिन्दी व उर्दू को को सती व पार्वती कहते थे .....
--------या तो लोहिया जी सती और पार्वती का अर्थ व कथा से अनभिग्य थे या उर्दू व हिन्दी के वास्तविक ज्ञान से....... सती अपूर्ण थीं और पार्वती शक्ति का १०८ वाँ अवतार और सम्पूर्ण ....क्या हिन्दी व उर्दू की यही स्थिति है ??
कथन ३....लोगों में सबसे बड़ी भ्रान्ति यही है कि भाषाओं का निर्माण लोग करते हैं ...असलियत है कि भाषाओं का बनाने-बिगाडने का कार्य एतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक शक्तियां करती हैं ...लेखक ..
------क्या लेखक यह समझते हैं कि ये एतिहासिक आदि लेख में वर्णित शक्तियां ...लोग नहीं हैं ...क्या वे लोगों( मनुष्य--जन --पब्लिक) द्वारा संचालित न होकर किसी पराशक्ति द्वारा संचालित होती हैं | लेखक का अभिप्रायः लोग से क्या है ? क्या लोग ( अर्थात लोक -जन ) कोई गर्हित सम्प्रदाय है ? कथन के दोनों विभागों में क्या अंतर है ?
--- लेखक पूर्ण रूप से भ्रमित प्रतीत होता है ...... हमें अपने कथन व विचार रखते समय उचित सोच-विचार करना चाहिए कि उसका सम्प्रेषणीयता क्या होगी ....
------------यही हिन्दी का दुर्भाग्य है ....
लम्हों ने खता की और सदियों ने सज़ा पाई .....यही हाल है हिन्दी का भी...प्रायः अच्छे भाव होते हुए भी कथन में .....त्रुटिपूर्ण विचार-भाव के कारण वह भाव-सम्प्रेषण नहीं होपाता जो होना चाहिए ...अतः हिन्दी आज उतनी तेजी से प्रगति पथ पर अग्रसर नहीं हो पारही जितना उसे होना चाहिए.....देखिये कुछ असम्प्रक्त व अस्पष्ट विचार भाव .....( उपरोक्त चित्र-समाचार में आलेख..)
कथन १----"मैं जब उर्दू में गज़ल कहता हूँ तो हिन्दी मुस्कुराती है|
लिपट जाता हूँ माँ से तो, मौसी मुस्कुराती है ||...."
-------अर्थात हिन्दी हमारी ( हम भारतीयों की ) माँ नहीं मौसी है माँ तो उर्दू है ..... क्या भावार्थ है इस कथन का/ शे'र का जिसका जोर-जोर से डंका पीटा जाता है | यही भाव हैं हमारे महानुभावों के जिसमें क्या कोई गूढ़ अर्थ छुपा है...जो हिन्दी से हमें दूर करे...
कथन -२..राम मनोहर लोहिया ...हिन्दी व उर्दू को को सती व पार्वती कहते थे .....
--------या तो लोहिया जी सती और पार्वती का अर्थ व कथा से अनभिग्य थे या उर्दू व हिन्दी के वास्तविक ज्ञान से....... सती अपूर्ण थीं और पार्वती शक्ति का १०८ वाँ अवतार और सम्पूर्ण ....क्या हिन्दी व उर्दू की यही स्थिति है ??
कथन ३....लोगों में सबसे बड़ी भ्रान्ति यही है कि भाषाओं का निर्माण लोग करते हैं ...असलियत है कि भाषाओं का बनाने-बिगाडने का कार्य एतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक शक्तियां करती हैं ...लेखक ..
------क्या लेखक यह समझते हैं कि ये एतिहासिक आदि लेख में वर्णित शक्तियां ...लोग नहीं हैं ...क्या वे लोगों( मनुष्य--जन --पब्लिक) द्वारा संचालित न होकर किसी पराशक्ति द्वारा संचालित होती हैं | लेखक का अभिप्रायः लोग से क्या है ? क्या लोग ( अर्थात लोक -जन ) कोई गर्हित सम्प्रदाय है ? कथन के दोनों विभागों में क्या अंतर है ?
--- लेखक पूर्ण रूप से भ्रमित प्रतीत होता है ...... हमें अपने कथन व विचार रखते समय उचित सोच-विचार करना चाहिए कि उसका सम्प्रेषणीयता क्या होगी ....
------------यही हिन्दी का दुर्भाग्य है ....
3 टिप्पणियां:
गुप्त जी,
लगता है आप हमेशा उसे समझने की कोशिश में रहते हैं जो छिपी है... जिसे लेखक या वक्ता अपनी वाक् चातुरी में छिपाता है.... आप लिखे हुए से दिमाग को पढ़ते हैं. कमाल की है ये आदत...
'शोध' और 'अनुसंधान' में आप सरीखी दृष्टि ही चाहिए. आनंद मिलता है पढ़कर.
धन्यवाद प्रतुल जी.....इसे छिद्रान्वेषण भी कहते हैं....
मेरा एक ब्लॉग 'छिद्रान्वेषण' भी है|
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