....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
रचयिता----डा.श्याम गुप्त
प्रकाशक---अखिल भा.अगीत परिषद् ,लखनऊ.
प्रथम संस्करण -- मार्च,३०-२००६ , चैत्र शुक्ला .प्रतिपदा , नवसंवत्सर दिवस -२०६३ ( आदि सृष्टि दिवस ), मूल्य- -७५/-
अगीत विधा में ब्रह्माण्ड की रचना एवं जीवन की उत्पत्ति के वैदिक, दार्शनिक व आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों का विवेचनात्मक प्रबंध-काव्य।
( छंद ----लय बद्ध,षटपदी अगीत छंद ---छह पंक्ति, १६ मात्रा, अतुकांत, लय-वद्ध )
प्रथम-सर्ग --वन्दना
१-गणेश -
गण-नायक गज बदन विनायक ,
मोदक प्रिय,प्रिय ऋद्धि-सिद्धि के ;
भरें लेखनी में गति, गणपति ,
गुण गाऊँ इस 'सृष्टि', सृष्टि के।
कृपा 'श्याम पर करें उमासुत ,
करूं वन्दना पुष्पार्पण कर।।
२-सरस्वती --
वीणा के जिन ज्ञान स्वरों से,
माँ ! ब्रह्मा को हुआ स्मरण'१' |
वही ज्ञान स्वर ,हे माँ वाणी !
ह्रदय तंत्र में झंकृत करदो |
सृष्टि ज्ञान स्वर मिले श्याम को,
करूं वन्दना पुष्पार्पण कर॥
३-शास्त्र -
हम कौन, कहाँ से आए हैं ?
यह जगत पसारा किसका,क्यों ?
है शाश्वत यक्ष-प्रश्न, मानव का।
देते हैं, जो वेद - उपनिषद् ,
समुचित उत्तर; श्याम' उन्ही की,
करूं वन्दना पुष्पार्पण कर॥
४-ईश्वर-सत्ता --
स्थिति, सृष्टि व लय का जग के,
कारण-मूल जो वह परात्पर;
सद-नासद में अटल-अवस्थित,
चिदाकास में बैठा - बैठा,
संकेतों से करे व्यवस्था,
करूं वन्दना पुष्पार्पण कर ॥
५-ईषत-इच्छा --'२'
उस अनादि की ईषत-इच्छा
महाकाश के भाव अनाहत,
में, जब द्वंद्व-भाव भरती है ;
सृष्टि-भाव तब विकसित होता-
आदि कणों में, उस इच्छा की,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
६- अपरा -माया --
कार्यकारी भाव-शक्ति है,
उस परात्पर ब्रह्म की जो;
कार्य-मूल कारण है जग की,
माया है उस निर्विकार की;
अपरा'३' दें वर,श्याम' सृष्टि को,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
७.चिदाकाश --
सुन्न-भवन'४' में अनहद बाजे ,
सकल जगत का साहिब बसता;
स्थिति,लय और सृष्टि साक्षी,
अंतर्मन में सदा उपस्थित,
चिदाकाश की, जो अनंत है;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
८-विष्णु --
हे ! उस अनादि के व्यक्त भाव,
हे! बीज-रूप हेमांड'५' अवस्थित;
जगपालक, धारक, महाविष्णु,
कमल-नाल ब्रह्मा को धारे;
'श्याम-सृष्टि' को, श्रृष्टि धरा दें,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
९-शंभु-महेश्वर --
आदिशंभु - अपरा संयोग से,
महत-तत्व'६' जब हुआ उपस्थित,
व्यक्त रूप जो उस निसंग का।
लिंग रूप बन तुम्ही महेश्वर !
करते मैथुनि-सृष्टि अनूप;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
१०-ब्रह्मा --
कमल नाल पर प्रकट हुए जब,
रचने को सारा ब्रह्माण्ड;
वाणी की स्फुरणा'७' पाकर,
बने रचयिता सब जग रचकर ।
दिशा-बोध मिल जाय 'श्याम,को;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
११-दुष्ट जन -वन्दना --
लोभ-मोह वश बन खलनायक,
समय-समय पर निज करनी से;
जो कर देते व्यथित धरा को ।
श्याम, धरा को मिलता प्रभु का,
कृपा भाव, धरते अवतार;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
( १=सृष्टि-ज्ञान का स्मरण , २=सृष्टि-सृजन की ईश्वरीय इच्छा, ३= आदि-मूल शक्ति, ४=शून्य,अनंत-अन्तरिक्ष, क्षीर सागर, मन ; ५=स्वर्ण अंड के रूप में ब्रह्माण्ड; ६=मूल क्रियाशील व्यक्त तत्व ; ७= सरस्वती की कृपा से ज्ञान का पुनः स्मरण )
-सृष्टि महाकाव्य... क्रमशः ---द्वितीय सर्ग -- उपसर्ग ...अगली पोस्ट में....
अगीत विधा महाकाव्य-
रचयिता----डा.श्याम गुप्त
प्रकाशक---अखिल भा.अगीत परिषद् ,लखनऊ.
प्रथम संस्करण -- मार्च,३०-२००६ , चैत्र शुक्ला .प्रतिपदा , नवसंवत्सर दिवस -२०६३ ( आदि सृष्टि दिवस ), मूल्य- -७५/-
अगीत विधा में ब्रह्माण्ड की रचना एवं जीवन की उत्पत्ति के वैदिक, दार्शनिक व आधुनिक वैज्ञानिक तथ्यों का विवेचनात्मक प्रबंध-काव्य।
( छंद ----लय बद्ध,षटपदी अगीत छंद ---छह पंक्ति, १६ मात्रा, अतुकांत, लय-वद्ध )
प्रथम-सर्ग --वन्दना
१-गणेश -
गण-नायक गज बदन विनायक ,
मोदक प्रिय,प्रिय ऋद्धि-सिद्धि के ;
भरें लेखनी में गति, गणपति ,
गुण गाऊँ इस 'सृष्टि', सृष्टि के।
कृपा 'श्याम पर करें उमासुत ,
करूं वन्दना पुष्पार्पण कर।।
२-सरस्वती --
वीणा के जिन ज्ञान स्वरों से,
माँ ! ब्रह्मा को हुआ स्मरण'१' |
वही ज्ञान स्वर ,हे माँ वाणी !
ह्रदय तंत्र में झंकृत करदो |
सृष्टि ज्ञान स्वर मिले श्याम को,
करूं वन्दना पुष्पार्पण कर॥
३-शास्त्र -
हम कौन, कहाँ से आए हैं ?
यह जगत पसारा किसका,क्यों ?
है शाश्वत यक्ष-प्रश्न, मानव का।
देते हैं, जो वेद - उपनिषद् ,
समुचित उत्तर; श्याम' उन्ही की,
करूं वन्दना पुष्पार्पण कर॥
४-ईश्वर-सत्ता --
स्थिति, सृष्टि व लय का जग के,
कारण-मूल जो वह परात्पर;
सद-नासद में अटल-अवस्थित,
चिदाकास में बैठा - बैठा,
संकेतों से करे व्यवस्था,
करूं वन्दना पुष्पार्पण कर ॥
५-ईषत-इच्छा --'२'
उस अनादि की ईषत-इच्छा
महाकाश के भाव अनाहत,
में, जब द्वंद्व-भाव भरती है ;
सृष्टि-भाव तब विकसित होता-
आदि कणों में, उस इच्छा की,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
६- अपरा -माया --
कार्यकारी भाव-शक्ति है,
उस परात्पर ब्रह्म की जो;
कार्य-मूल कारण है जग की,
माया है उस निर्विकार की;
अपरा'३' दें वर,श्याम' सृष्टि को,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
७.चिदाकाश --
सुन्न-भवन'४' में अनहद बाजे ,
सकल जगत का साहिब बसता;
स्थिति,लय और सृष्टि साक्षी,
अंतर्मन में सदा उपस्थित,
चिदाकाश की, जो अनंत है;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
८-विष्णु --
हे ! उस अनादि के व्यक्त भाव,
हे! बीज-रूप हेमांड'५' अवस्थित;
जगपालक, धारक, महाविष्णु,
कमल-नाल ब्रह्मा को धारे;
'श्याम-सृष्टि' को, श्रृष्टि धरा दें,
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
९-शंभु-महेश्वर --
आदिशंभु - अपरा संयोग से,
महत-तत्व'६' जब हुआ उपस्थित,
व्यक्त रूप जो उस निसंग का।
लिंग रूप बन तुम्ही महेश्वर !
करते मैथुनि-सृष्टि अनूप;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
१०-ब्रह्मा --
कमल नाल पर प्रकट हुए जब,
रचने को सारा ब्रह्माण्ड;
वाणी की स्फुरणा'७' पाकर,
बने रचयिता सब जग रचकर ।
दिशा-बोध मिल जाय 'श्याम,को;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
११-दुष्ट जन -वन्दना --
लोभ-मोह वश बन खलनायक,
समय-समय पर निज करनी से;
जो कर देते व्यथित धरा को ।
श्याम, धरा को मिलता प्रभु का,
कृपा भाव, धरते अवतार;
करूँ वन्दना पुष्पार्पण कर॥
( १=सृष्टि-ज्ञान का स्मरण , २=सृष्टि-सृजन की ईश्वरीय इच्छा, ३= आदि-मूल शक्ति, ४=शून्य,अनंत-अन्तरिक्ष, क्षीर सागर, मन ; ५=स्वर्ण अंड के रूप में ब्रह्माण्ड; ६=मूल क्रियाशील व्यक्त तत्व ; ७= सरस्वती की कृपा से ज्ञान का पुनः स्मरण )
2 टिप्पणियां:
अद्भुत लयशीलता..
धन्यवाद पांडे जी ....यह लयबद्ध षट्पदी अगीत छंद हैं ....
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