....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
जब जब गणतंत्र दिवस आता है तो मैं सदा सोचता हूँ कि हमारा यह लोकतंत्र - जनतंत्र है या गणतंत्र | आखिर हमने इसे गणतंत्र क्यों कहा ..... मेरे विचार से जन-तंत्र शब्द तो उचित है ही ...परन्तु गणतंत्र !!! जन तो सभी जानते हैं सामान्य जनता को कहा जाता है पर गण का क्या अर्थ है | गण – तो विष्णु के, शिव के, देवी-देवताओं के हुआ करते हैं ...गण अर्थात विशिष्ट कृपापात्र, विशिष्ट शक्ति-प्राप्त ...कुछ विशिष्ट लोग, कुछ गणना योग्य व्यक्ति जिनकी गणना की जा सके| इसीलिये तो गण्यमान्य या गणमान्य शब्द प्रयोग में आया| अर्थात गणतंत्र का अर्थ विशिष्ट जनों का तंत्र | तो यह जनतंत्र कैसे हो सकता है|
इसीलिये आज ‘गणतंत्र’ और ‘जन गण मन’ से भी जन ( सामान्य जन ) और मन ( विचार, चिंतन, मनन ) तो हट गया बस ‘गण’ ही रहगया है ...हर व्यक्ति जो जरा भी पढ़-लिख जाता है, पैसा कमा लेता है या कमाने की जुगत-योग्यता रखता है ,वह जन छोड़कर गण में सम्मिलित होजाता है, विशेष होजाता है | इसीलिये जन सामान्य की महत्ता कम होने से अब ‘गण’ भी गौण होता जारहा है और सिर्फ ‘तंत्र’ महत्वपूर्ण रह गया है |
आज इस तंत्र में फंस कर यह गण और जन सभी असहाय से दिखाई देते हैं| दिन रात उसी बंधी-बंधाई लीक पर यंत्रवत चलना...सुबह जल्दी-जल्दी, भागते-भागते, कभी-कभी तो लिफ्ट या कार में ही नाश्ता –आधा-अधूरा कर लेना (लड़कियाँ बाल भी एसे ही बना रहीं हैं )| घर में बिजली, पानी, किराया, विविध किश्तें, इन्श्योरेंस, मोबाइल, टीवी के बिलों, कोई न कोई खराब होते गेजेट के रिपेयर की आदि की चिंता, नौकरानी का चक्कर .. घर पर भी...छुट्टी के दिन भी मोबाइल या लैपटॉप पर भी काम-धंधे-दफ्तर – बॉस की बातें या फिर शेयर, फ्लेट, कार, की बातें—| आफिस में उसे बंधी-बंधाई लीक पर काम करते रहना, आफिस में घर की चिंता...घर में आफिस की चिंता .. | न अखबार पढ़ने की फुर्सत ( अंग्रेज़ी अखबार आता अवश्य है ) न टीवी देखने की फुर्सत (शानदार ४२’ का टीवी लगा अवश्य है ) न माँ-बाप से बात करने की...न संतान की स्वयं देख-भाल की | न पति-पत्नी के रिश्ते-निभाने की वही रोटी -कपड़ा और मकान...वह भी.....
‘घर को सेवे सेविका, पत्नी सेवै अन्य,
छुट्टी लें तब मिल सकें, सो पति-पत्नी धन्य |’
छुट्टियां भी हों या लें तो वही पार्टी, मस्ती होटलों, बीचों पर मस्ती न विचार की चिंता न चिंतन –मनन की फुर्सत, न साहित्य आदि पढने की | इस प्रकार गणतंत्र से गण ही विलीन होता गया सिर्फ तंत्र रह गया है और मानव उस तंत्र में फंस कर निरुपाय रह गया है | ....जन सामान्य की महत्ता कम होने पर यही होता है |
इसी प्रकार हमारे संविधान में दो मूल बिन्दुओं पर गौर करें जो इस प्रकार हैं –
१ ----भारत के नागरिकों को सामजिक, आर्थिक, और राजनैतिक न्याय, पद,अवसर और कानूनों की समानता, विचार,भाषण, विश्वास, व्यवसाय , संघ निर्माण और कार्य की स्वतन्त्रता ....क़ानून तथा सार्वजनिक नैतिकता के आधार पर प्राप्त होगी |
२ -----अल्पसंख्यक वर्ग, पिछड़ी जातियों, और कवायली जातियों के हितों की रक्षा की व्यवस्था की जायगी |
प्रश्न यह उठता है कि जब ‘भारत के नागरिकों’ में सभी समानता की बात प्रथम बिंदु में कह दी गयी है ...तो दूसरे बिंदु की आवश्यकता ही क्या है ...
मेरे विचार से संविधान की इस मूल त्रुटि से ...दूसरे बिंदु में वर्णित अन्य वर्गों को ‘भारत के नागरिकों’ से पृथक कर दिया गया जो लोकतंत्र में समानता के विचार के विपरीत है यही जन व गण के मन में पृथकता के बीज पनपने का कारण है अन्यथा भारत के नागरिक होने से उनके हितों की रक्षा तो प्रथम बिंदु से स्वतः ही होरही है |
2 टिप्पणियां:
जब समानता जैसे शब्दों की व्याख्या करने की आवश्यकता पड़ जाये तो मान लीजिये कि वस्तुस्थिति स्पष्ट नहीं है।
सही कहा पांडे जी --यही सच है...
---और जब वस्तुस्थिति स्पष्ट न हो तो निश्चय ही वह आदर्श स्थिति नहीं है ....
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