....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
खांचों में बंटा
साहित्य
आजकल साहित्य के क्षेत्र में
विशेषकारों के विभिन्न खांचे बन गए हैं जिनमें फिट न बैठने वाले कवि, लेखक,
साहित्यकार को कोई पूछता ही नहीं | अब व्यंगकार हैं, हास्य-कवि हैं, हास्य
व्यंगकार हैं, स्त्री-विमर्श लेखक हैं...लेखक हैं ..लेखिकाएं हैं, कवि-कवियत्री
हैं...गद्यकार है पद्य रचनाकार हैं .....दलित-लेखक-कवि-साहित्यकार हैं ...ओज के,
श्रृंगार के,...छंदकार, दोहाकार, गीतकार, नव-गीतकार, भजन गायक, कहानीकार,
उपन्यासकार , बाल साहित्यकार , निबंधकार , समीक्षाकार हैं.... नयी विधा के कवि...अगीतकार भी हैं जो यद्यपि एक
अलग किस्म की ही विधा है अतः स्थापित कवि व साहित्यकार ही अगीत लिख पारहे हैं| अब
तो प्रिंटर , प्रकाशक, सम्पादक, संवाददाता, संवादवाहक, समाचारपत्र विक्रेता, कालम
लेखक आदि सभी साहित्य-लेखक होगये हैं | इन खांचों के बीच में जो एक साहित्यकार
नाम का सम्पूर्ण सामाजिक जीव हुआ करता था जो हर विधा पर दखल रखता था कहीं दिखाई ही
नहीं पड़ता |
वैदिक पौराणिक औपनिषदीय युग
में विद्वान् गद्य व पद्य सभी विधाओं में कहा-लिखा-रचा करते थे वे पूर्ण साहित्यकार थे | बाद में हिन्दी
में भी सभी विद्वान् साहित्यकार गद्य, पद्य, कहानी, कथा, उपन्यास सब कुछ लिखा करते
थे | उर्दू साहित्य के अवतरण के साथ सभी साहित्यकार ग़ज़ल, गीत, गद्य-पद्य सभी कुछ
लिखने लगे| आज़ादी के प्रारम्भिक समय में भी साहित्यकार सर्व-विधायी थे | वे
सम्पूर्ण साहित्यकार थे | परन्तु आज़ादी के फल मिलते ही सभी
क्षेत्रों की भांति साहित्य में भी तेजी से प्रगति हुई और साहित्य जाने कितने
नए-नए खांचों में बंटने लगा |
मुझे याद है कि हिन्दी के
प्रश्नपत्रों में ---तुलसी की सामाजिक दृष्टि, तुलसी का बात्सल्य वर्णन, तुलसी का
श्रृंगार, तुलसी की दलित चेतना , तुलसी की नारी, तुलसी के छंद-शास्त्रीय समीक्षा,
भारतेंदु के नाटकों की समीक्षा, भारतेंदु की कविता का सौंदर्य.... प्रसाद की कविता
में नारी, प्रसाद की औपन्यासिक दृष्टि...आदि आदि प्रश्न पूछे जाते थे.....| अब
कहाँ एसे सम्पूर्ण साहित्यकार ? अब तो
दलित चेतना के कवि.... स्त्री-विमर्श के लेखक, आज की नारी लेखिकाएं, प्रगतिशील
साहित्य के लेखक , प्रगतिवादी कवि...गीतकार,... छंदकार ...व्यंगकार आदि विशेषज्ञाता,विशेषज्ञता
(या.विशेष+अज्ञता) के विभिन्न खांचों में बंटे “कारों” की बात होती है |
2 टिप्पणियां:
जब मन बहता है तो प्रवाह का माध्यम नहीं देखता है।
धन्यवाद तुषार जी.....
एवं पांडे जी .वस्तुतः यह मन बड़ा वायवीय तत्व है परन्तु ..यदि मन बहते समय प्रवाह का माध्यम नहीं देखेगा तो अनियमित होजायेगा ...सारे यम-नियन आदि इसी मन के प्रवाह को उचित दिशा देने हेतु ही तो होते हैं ...
एक टिप्पणी भेजें