....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
.हिन्दुस्तान के मनसा वाचा कर्मणा शीर्षक के अंतर्गत अमृत साधना
देखिये ....उसके वाक्यों, शब्दों व अर्थों की निरर्थकता देखिये....कटिंग के चित्र
पर १ से 10 तक लगाए गए चिह्नित देखें...
ये कौन सा अमृत है व कौन सी साधना है?
.वस्तुतः मेरे विचार से जैसे आजकल जाने
कितने गली गली में, तम्बू तम्बू में आश्रम
बनाए बाबाजी बैठे हैं उसी भांति समाचार
पत्रों के कालमों, ब्लागों में साइबर संसार के कालमों में भी
जाने कितने बाबाजी
टाइप के लिक्खाड़, प्रायोजित कालम साधक, कलम के साधक..सिर्फ लिखने के लिए लिखने वाले, आचरण-साधना, अमृत साधना, अध्यात्म आदि पर आधे
अधूरे ज्ञान रूपी अज्ञान के आधार पर ..अपने अपने स्वयं के मत साध रह हैं | उदाहरण
स्वरुप में ..
१,रचनात्मकता का अर्थ..’हर पल कुछ नया करना’.....वह नया यदि सकारात्मक
नहीं है परमार्थ साधक नहीं है, नवोन्नत-कारक नहीं है, विध्वंसक है तो क्या उसे रचनात्मकता कहा जायगा ??? ...नहीं
वह अकर्म होगा विकर्म व दुष्कर्म भी हो सकता है ...किसी विशिष्ट सार्थक रचना को
रचनात्मकता कहा जाता है |
२,किसने कहा है कि सिर्फ चित्र बनाना, संगीत व कविता ही रचनात्मकता
है......अनुचित कथ्य है |
३.ये तो बौद्धिक रचनाएँ हुईं.....क्या संगीत, कला, मूर्तिकला सिर्फ
बौद्धिक रचनाएँ हैं इनमें शारीरिक श्रम नहीं ...अज्ञानता है लेखक की...फिर क्या
बौधिक रचनाएँ ..रचनात्मक कार्य नहीं हैं ...
४. यदि हर पल व हर काम रचनात्मकता है ..तो मनुष्य सिमट कैसे गया
..क्या उसने कर्म करना बंद कर दिया जो हो ही नहीं सकता ...अनर्गल कथ्य है अपने है
कथ्य के विपरीत ...
५.त्याग वादी धर्म...नकार व त्याग...एसा कौन सा धर्म है जो त्याग का
सन्देश नहीं देता...क्या लेखक का इशारा किसे विशेष धर्म से है ?.....अथवा धर्म होना
ही नहीं चाहिए फिर वह आगे ओशो का जिक्र क्यों करता है ..
६.ध्यान करना है तो व संसार का आनंद नहीं ले सकता ....किस धर्म में
एसा कहा गया है ... धर्म सांसारिक आनंद को लेने के साथ सच्चे ईश्वरीय आनंद की बात
करते हैं ...
७. ध्यान है अंतर्जगत की यात्रा बाहर के प्रति तिरस्कार .....किस धर्म
में एसा लिखा है ....बाहर से भीतर की ओर ..ही धर्म का उद्देश्य है ..
८.जिसे बाहर का तिरस्कार है भीतर का भी तिरस्कार करेगा ......क्यों व
कैसे ?
९.ओशो ने पहली बार कहा कि रचना को ठुकराओगे तो रचयिता का अपमान
होगा....लेखक ने इतिहास व साहित्य नहीं पढ़ा लगता है ...ओशो से युगों पहले एक
वारांगना, वैशाली की नगरवधु ने यही कहा था...
१०. छोटे से छोटा काम भी ....आनंद ... इसमें नया क्या है सभी यही कहते
हैं...मनोयोग से किये काम को हे तो योग कहते हैं जो आनंद देता है वशर्ते वह
सकारात्मक हो .....
यह कौन सी अमृत साधना है, भ्रांतियों पर आधारित एवं समाचार पत्र भी कौन सी साधना परोस
रहा है .....अंध-विश्वास...अकर्म...भ्रान्ति....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें