....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्यार्थ मनोगतान |
मनुष्य के शत्रु
...
यजुर्वेद,
ईशोपनिषद एवं गीता में ईश्वर प्राप्ति
के मूलतः तीन उपाय बताये गए हैं | जो
तत्काल प्रभावी, सरल एवं कठिन मार्ग क्रमशः ...भक्ति योग, कर्म योग एवं ज्ञान योग
हैं...|
इनका पालक व्यक्ति स्थिरप्रज्ञ व संतुष्ट रहता है, स्वयं में स्थिर,
आत्मलय, ईश्वरोन्मुख |
उपनिषद् का प्रथम मन्त्र इन तीनों का वर्णन करता हैं....
ईशावास्यं
इदम सर्वं, यद्किंचित जगत्यां जगत ....भक्तियोग का ...विश्वास व आस्था का मार्ग है
...सब कुछ ईश्वर का, मेरा कुछ नहीं, सब समाज का है|
तेन
त्यक्तेन भुन्जीता ....कर्मयोग का
मार्ग....कर्म आवश्यक है परन्तु निस्वार्थ कर्म, परमार्थ एवं
त्याग के भाव से कर्म
व भोग |
मा गृध
कस्यविद्धनम... ज्ञान का मार्ग ...विवेक का मार्ग.. अकाम्यता .. किसी के भी धन व
स्वत्व
की इच्छा व हनन नहीं करना चाहिए,... वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा..समस्त
इच्छाओं का त्याग
...यह धन किसका हुआ है इसका ज्ञान |
तो इस में अवरोध क्या है ?
उपरोक्त पर न चलने से एवं न चलने देने हेतु रजोगुण रूपी तीन भाव मन में उत्पन्न
होकर विचरण करते हैं जो शत्रु रूप में मनुष्य को भटकाते हैं....काम, क्रोध व लोभ
| वस्तुतः मूल शत्रु काम ही है अर्थात कामनाएँ, इच्छाएं ( काम का अर्थ सिर्फ कामेच्छा या रति-कर्म, यौन-सुख, सेक्स नहीं है ) .. वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा ....शेष उसके
प्रभावी रूप हैं | काम अर्थात कामना, प्राप्ति की इच्छा से प्राप्ति का लोभ..विघ्न
से क्रोध, क्रोध से सम्मोह, मोह, मूढ़ भाव से स्मृतिभ्रम एवं मानवता नाश | काम नित्य बैरी कहा गया है यह दुर्जय है एवं इन्द्रियाँ मन व बुद्धि में स्थित यह
ज्ञान को आच्छादित कर देता है | इन्द्रियों से परे मन बुद्धि व आत्मा में स्थित
होना चाहिए ...अतः ..
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्यार्थ मनोगतान |
अत्मन्येवात्मना
तुष्ट: स्थितिप्रज्ञस्तदोच्ये |......गीता २/५५
जो सम्पूर्ण कामनाओं को भली
भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है वह
स्थितिप्रज्ञ है |
निराशीर्यत
चित्तात्मा त्यक्त सर्वपरिग्रह|
शारीरं
केवलं कर्म कुर्वप्राप्नोतिकिल्विषम |.....गी 4/21
.....जो बिना इच्छा अपने आप
प्राप्त कर्मों व पदार्थों से संतुष्ट है उसके समस्त किल्विष समाप्त होजाते
हैं|...एवं ..
यःशास्त्र विधि
मुत्सृज्य वर्तते कामकारतः |
न
स सिद्धिवाप्नोति न सुखं न परा गतिम् |...गीता १६/२३ .....जो शास्त्र विधि त्यागकर
मनमाना इच्छा से आचरण करते हैं वह न सुख पाता है न सिद्धि न परमगति |
काम
क्रोध लोभ
...तीनों को शत्रु नहीं अपितु नरक का द्वार कहा गया है ..इन्हें त्याग देना चाहिए ..
त्रिविधं
नरकस्येदम द्वारं नाश्मनात्मन : |
कामः
क्रोधस्तधा लोभस्तस्मादेत्रयं त्यजेत|....गीता १६/२१ ....तथा .....
दु;खे
स्वनुदिग्नमन: सुखेषु विगतस्पृह |
वीत
राग भय क्रोधो,स्थितिर्मुनिरुच्यते |...गीता २/५६
.....सुख –दुःख में जिसका मन
उद्विग्न नहीं होता जिसके राग, भय( जो इच्छित प्राप्ति होगी या नहीं का हृदयस्थ
भाव होता है ), क्रोध समाप्त होगये हैं उसे मुनिगण स्थितप्रज्ञ कहते हैं | इसप्रकार.....अंत में ...
विहाय कामाय सर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह: |
निर्ममो निरहंकारो स शान्तिमधिगच्छति ||...गीता १६/७१
जो सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है, ममता
रहित , अहंकार रहित और स्पृहा रहित होजाता है वही शान्ति प्राप्त करता है | वही
स्थितप्रज्ञ है,आत्मलय है ईश्वरन्लय है, मुक्त है |
2 टिप्पणियां:
उत्कृष्ट विवेचन, पहली बार इस रूप से इस श्लोक को समझा। आभार..
धन्यवाद पांडेजी ....मनन हेतु ...
यदा वै मनुत, अथ विजानाति...
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