ब्लॉग आर्काइव

डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

मेरी फ़ोटो
Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 14 जून 2013

मनुष्य के शत्रु ...... डा श्याम गुप्त

                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...




                        मनुष्य के शत्रु ...

         यजुर्वेद, ईशोपनिषद  एवं गीता में ईश्वर प्राप्ति के मूलतः तीन उपाय बताये गए हैं | जो

 तत्काल प्रभावी, सरल एवं कठिन मार्ग  क्रमशः ...भक्ति योग, कर्म योग एवं ज्ञान योग हैं...| 

इनका पालक व्यक्ति स्थिरप्रज्ञ व संतुष्ट रहता है, स्वयं में स्थिर, आत्मलय, ईश्वरोन्मुख | 

उपनिषद् का प्रथम मन्त्र इन तीनों का वर्णन करता हैं....

ईशावास्यं इदम सर्वं, यद्किंचित जगत्यां जगत  ....भक्तियोग का ...विश्वास व आस्था का मार्ग है 

...सब कुछ ईश्वर का, मेरा कुछ नहीं, सब समाज का है|

तेन त्यक्तेन भुन्जीता ....कर्मयोग का मार्ग....कर्म आवश्यक है परन्तु निस्वार्थ कर्म, परमार्थ एवं 

त्याग के भाव से कर्म व भोग |

मा गृध कस्यविद्धनम... ज्ञान का मार्ग ...विवेक का मार्ग.. अकाम्यता .. किसी के भी धन व स्वत्व 

की इच्छा व हनन नहीं करना चाहिए,... वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा..समस्त इच्छाओं का त्याग 

...यह धन किसका हुआ है इसका ज्ञान |  


         तो इस में अवरोध क्या है ? उपरोक्त पर न चलने से एवं न चलने देने हेतु रजोगुण रूपी तीन भाव मन में उत्पन्न होकर विचरण करते हैं जो शत्रु रूप में मनुष्य को भटकाते हैं....काम, क्रोध व लोभ | वस्तुतः मूल शत्रु काम ही है अर्थात कामनाएँ, इच्छाएं ( काम का अर्थ सिर्फ कामेच्छा या रति-कर्म, यौन-सुख, सेक्स नहीं है )  ..  वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा ....शेष उसके प्रभावी रूप हैं | काम अर्थात कामना, प्राप्ति की इच्छा से प्राप्ति का लोभ..विघ्न से क्रोध, क्रोध से सम्मोह, मोह, मूढ़ भाव से स्मृतिभ्रम एवं मानवता नाश | काम नित्य बैरी कहा गया है यह दुर्जय है एवं इन्द्रियाँ मन व बुद्धि में स्थित यह ज्ञान को आच्छादित कर देता है |  इन्द्रियों से परे मन बुद्धि व आत्मा में स्थित होना चाहिए ...अतः ..


       प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्यार्थ मनोगतान |
       अत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितिप्रज्ञस्तदोच्ये |......गीता २/५५

                जो सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति  त्याग देता है  और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है वह स्थितिप्रज्ञ है |

       
        निराशीर्यत चित्तात्मा त्यक्त सर्वपरिग्रह|
        शारीरं केवलं कर्म कुर्वप्राप्नोतिकिल्विषम |.....गी 4/21
               .....जो बिना इच्छा अपने आप प्राप्त कर्मों व पदार्थों से संतुष्ट है उसके समस्त किल्विष समाप्त होजाते हैं|...एवं ..

         यःशास्त्र विधि मुत्सृज्य वर्तते कामकारतः |
        न स सिद्धिवाप्नोति न सुखं न परा गतिम् |...गीता १६/२३ .....जो शास्त्र विधि त्यागकर मनमाना इच्छा से आचरण करते हैं वह न सुख पाता  है न सिद्धि न परमगति |

               काम क्रोध लोभ ...तीनों को शत्रु नहीं  अपितु  नरक का द्वार कहा गया है ..इन्हें त्याग देना चाहिए ..
       त्रिविधं नरकस्येदम द्वारं नाश्मनात्मन : |
       कामः क्रोधस्तधा लोभस्तस्मादेत्रयं त्यजेत|....गीता १६/२१  ....तथा .....

      दु;खे स्वनुदिग्नमन: सुखेषु विगतस्पृह |
      वीत राग भय क्रोधो,स्थितिर्मुनिरुच्यते |...गीता २/५६
             .....सुख –दुःख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता जिसके राग, भय( जो इच्छित प्राप्ति होगी या नहीं का हृदयस्थ भाव होता है ), क्रोध समाप्त होगये हैं उसे मुनिगण स्थितप्रज्ञ कहते हैं |  इसप्रकार.....अंत में ...


        विहाय कामाय सर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह: |
       निर्ममो निरहंकारो स शान्तिमधिगच्छति ||...गीता १६/७१
              जो सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है, ममता रहित , अहंकार रहित और स्पृहा रहित होजाता है वही शान्ति प्राप्त करता है | वही स्थितप्रज्ञ है,आत्मलय है ईश्वरन्लय है, मुक्त है |

 


2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

उत्कृष्ट विवेचन, पहली बार इस रूप से इस श्लोक को समझा। आभार..

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद पांडेजी ....मनन हेतु ...
यदा वै मनुत, अथ विजानाति...