....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
श्याम स्मृति--चिकित्सक-रोगी संबंध--
वैज्ञानिक,सामाजिक, साहित्यिक,मनोवैज्ञानिक,प्रशासनिक व चिकित्सा आदि समाज के लगभग सभी मन्चों व सरोकारों से विचार मन्थित यह विषय उतना ही प्राचीन है जितनी मानव सभ्यता। आज के आपाधापी के युग में मानव -मूल्यों की महान क्षति हुई है; भौतिकता की अन्धी दौढ से चिकित्सा -जगत भी अछूता नहीं रहा है। अतः यह विषय समाज व चिकित्सा जगत के लिये और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। आज जहां चिकित्सक वर्ग में व्यबसायीकरण
व समाज़ के अति-आर्थिकीकरण के कारण तमाम भ्रष्टाचरण व कदाचरणों का दौर प्रारम्भ हुआ है वहीं समाज़ में भी मानव-मूल्यों के ह्रास के कारण, सर्वदा सम्मानित वर्गों के प्रति,ईर्ष्या,असम्मान,लापरवाही व पैसे के बल पर खरीद लेने की प्रव्रत्ति बढी है, जो समाज,
मनुष्य,रोगी व चिकित्सक के मधुर सम्बंधों में विष की भांति पैठ कर गई है। विभिन्न क्षेत्रों में चिकित्सकों की लापरवाही, धन व पद लिप्सा , चिकित्सा का अधिक व्यवसायीकरण की घटनायें यत्र-तत्र समाचार बनतीं रहती हैं। वहीं चिकित्सकों के प्रति असम्मानजनक भाव,झूठे कदाचरण आरोप,मुकदमे आदि के समाचार भी कम नहीं हैं।
अतःजहां चिकित्सक-रोगी सम्बन्धों की व्याख्या समाज़ व चिकित्सक जगत के पारस्परिक तादाम्य, प्रत्येक युग की आवश्यकता है,साथ ही निरोगी जीवन व स्वस्थ्य समाज की भी। आज आवश्यकता इस बात की है कि चिकित्सक-जगत, समाज व रोगी सम्बन्धों की पुनर्व्याख्या की जाय ,इसमें तादाम्य बैठाकर इस पावन परम्परा को पुनर्जीवन दिया जाय ताकि समाज को गति के साथ-साथ द्रढता व मधुरता मिले। संस्कृति व समाज़ में काल के प्रभावानुसार उत्पन्न जडता , गतिहीनता व दिशाहीनता को मिटाने के लिये समय-समय पर इतिहास के व काल-प्रमाणित महान विचारों ,संरक्षित कलापों को वर्तमान से तादाम्य की आवश्यकता होतीहै। इतिहास, पुराणों, शास्त्रों का यही महत्त्व है |
यदि आज का
चिकित्सा जगत, रोगी, तीमारदार, समाज, शासन सभी इन तथ्यों को आत्मसात करें, व्यवहार में लायें, तो आज के दुष्कर युग में भी आपसी मधुरता व युक्त-युक्त रोगी-चिकित्सक सम्बन्धों को जिया जासकता है, यह कोई कठिन कार्य नहीं,
आवश्यकता है सभी को आत्म-मंथन करके तादाम्य स्थापित करने की।