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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

सहजीवन-- मानवता, विकास व संबंधों का आधार —डा श्याम गुप्त

    
                                          ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...  



            सहजीवन-- मानवता, विकास व संबंधों का आधार डा श्याम गुप्त        

           जीवन के उद्धव व विकास के अति-प्रारंभि चरण में जीवनयापन हेतु ऊर्जा प्राप्ति की खोज करते-करते एक अति-लघु जीव-कण( जीव-अणु कोशिका---आर्किया ) ने अपेक्षाकृत बड़े जीव-अणु-कोष-कण ( प्रोकेरियेट) के अंदर प्रवेश किया|  वह लघुजीव-कण अपने मेजबान के  अवशिष्ट पदार्थों से ऊर्जा /भोजन बनाने लगा एवं इस प्रक्रिया में कुछ अतिरिक्त ऊर्जा अपने शरणदाता को भी उपलब्ध कराने लगा और शरणदाता,  शरणागत को सुरक्षा व आवश्यक कच्चा-माल | कालान्तर में उनका पृथक अस्तित्व कठिन व असंभव होगया वे एक दूसरे पर आश्रित होगये और दोनों में एक सहजीविता उत्पन्न होगई| यह जीव-जगत का सर्व-प्रथम सहजीवन था | अंततः लघु जीव-अणु .. केन्द्रक (न्यूक्लियस) बना व बड़ा जीव-अणु बाह्य-शरीर( कोशिका या सैल) | इस प्रकार एक दूसरे में विलय होकर सृष्टि के प्रथम एक कोशीय-जीव की संरचना हुई जिससे व जिसके उदाहरण व आधार पर ही आगे समस्त जीव-जगत की रचना, विकास व वृद्धि हुई.....जीवाणु से मानव तक |
      वस्तुतः जीवन व जीव प्रत्येक स्तर पर सहजीवन द्वारा ही विकासमान होते हैं | संसार में अपने स्वको अन्य के स्वसे जोडने पर ही पूर्ण हुआ जा सकता है | प्रत्येक जीव-तत्व व जीव अपूर्ण है और वह सहजीवन द्वारा ही पूर्णत्व प्राप्त करता है| लैंगिक सम्बन्ध, प्रेम, विवाह,  मैत्री व सामाजिक सम्बन्ध आदि सभी इसी सहभागिता एवं अपने स्वके सामंजस्य पर आधारित हैं और इनकी सफलता हेतु ...तीन मुख्य तत्त्व हैं - सामंजस्य,  सहनशीलता व समर्पण |
      हमारे यहाँ लडकी- अर्थात स्त्री, पत्नी अपना घर, परिवार,  समाज,  संस्कार छोडकर पराये घर-पतिगृह आती है,  नए-माहौल में,  नए समाज-संस्कारों में |  लड़का पुरुष, पति  ..तो अपने घर में बैठा है..सुरक्षित,  संतुष्ट, पूर्णता का ज्ञान-भाव ( या अज्ञान-भाव ) लिए हुए| उसका चिंतन कैसे बदले |  स्त्री,पत्नी को ही नए-घर,  समाज-संस्कारों में सुरक्षा ढूंढनी होती है |  
       पति व परिवार की इच्छा,  अपेक्षा व धारणा होती है कि बहू हमारी आने वाली पीढ़ी व संतान द्वारा हमारा प्रतिनिधित्व करेगी व करायेगी,  उसमें संस्कार भरेगी |  हमारा स्वजनों,  परिजनों का भार उठाएगी, अर्थात अपने स्व को हमारे स्व में निमज्जित करेगी |  अतः उसे सम्मान मिलता है|  यहाँ यह भी एक सच है कि पति व उसके परिवार को भी अपना चिंतन गुणात्मक करना होगा | पति को, पुरुष को,  लड़कों को भी अपना चिंतन बदलना होगा अपने स्व को पत्नी, स्त्री, बहू के स्व से तादाम्य करना होगा ताकि नया प्राणी तादाम्य बिठा पाये |    
        यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से जोडकर तादाम्यीकरण करती है तो उसे पारिवारिक सुरक्षा व सहृदयता स्वतः प्राप्त होती है|  पारिवारिक-जनों का यह दायित्व होता है कि बहू को नए माहौल से प्रेम व आदरपूर्वक परिचित कराया जाए न कि जोर-जबरदस्ती से,  ऐंठ-अकड से |  नए मेहमान को परिवार में ससम्मान स्वीकृति प्रदान की जाए ताकि वह असुरक्षित अनुभव न करे | यहीं पर घर की स्त्री--सास का महत्वपूर्ण योगदान होता है जो स्वयं भी एक दिन इस नए परिवार में आई थी एवं जीवन के इसी मोड पर थी|  अतः उसे बदले हुए देश-कालानुसार व्यवहार करना चाहिए | सास-बहू के रिश्ते पर ही भविष्य के पारिवारिक सुख-समृद्धि की दीवार खड़ी होती है |
     यदि बहू अपने स्व को परिवार के स्व से न जोडकर अपनी स्वतंत्र पहचान,  केरियर व सुख हेतु या पाश्चात्य शिक्षा-प्रभाव वश,  गृहकार्य से दूर पुरुषवत जीने की ललक रखती है तो वह अपनों के बीच ही संघर्षरत होकर अलग-थलग पड जायगी एवं स्वयं को असुरक्षित अनुभव करने लगेगी|  इस प्रकार स्त्रियोचित गुणों के स्थान पर पुरुषोचित अहं के भाव व करियर सुख के द्वंद्वों, झगडों की स्थिति से पारिवारिक विघटन की राह तैयार होती है |
     सिर्फ अपने स्व में जीने की ललक में एक अच्छी पत्नी व माँ खोजाती है | वह सिर्फ एक स्त्री मात्र रह जाती है, अपने बराबर अधिकार के लिए संघर्षरत स्त्री,  एक प्रगतिशील व आधुनिक नारी,  अपने स्व के लिए जीती हुई मात्र बुद्धि पर यंत्रवत चलता हुआ संवेदनशून्य जीवन जीती हुई ...एक भोग्या;  न कि दायित्व के भार की गुरु-गंभीरता ओढ़े, नारीत्व के अधिकार की अपेक्षा,  नारीत्व के कर्तव्य व प्रेम द्वारा सम्माननीय साधिकार,  अधिकार जताती हुई सखी, मित्र, प्रेमिका व पत्नी एवं मातृत्व की महानता व दैवीयभाव युत महान व सम्माननीय माँ |
     ऐसे परिवार संतान को क्या देंगे...न संस्कार न मूल्य |  बस अपने स्वके लिए, शरीर के लिए,  सुख के लिए जीना |  धर्म,  अध्यात्म,  सहिष्णुता, सामाजिकता,  संस्कार व आनंद के भाव कहाँ उत्पन्न हो पाते हैं,  जो एक अच्छे नागरिक के लिए आवश्यक हैं |  बस समाज एक जंतु-प्राणी की योनि जीता है- भोग व रोग के साथ, द्वंदों- द्वेषों के साथ,  न कि भोग व योग के साथ; समता, सामंजस्य के सौख्य के साथ, आनंद के साथ |  यही तो आज हो रहा है जो नहीं होना चाहिए |
        

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

विचारणीय आलेख, मूल प्रश्न तो सोचने ही होंगे।

shyam gupta ने कहा…

सही कहा....पांडे जी ..