पुस्तक-समीक्षा
समीक्ष्य पुस्तक ... वर्ण सन्देश, लेखक....श्री
धुरेन्द्र स्वरुप विसारिया ‘प्रभंजन’....
प्रकाशक— बिसरिया शिक्षा एवं सेवा समिति,
राजाजीपुरम, लखनऊ... मूल्य
---१००/-रु.
समीक्षक......
डा श्याम गुप्त....
श्री धुरेन्द्र स्वरुप
बिसारिया जी आर्य समाज से जुड़े हैं, वे विद्वान् हैं, कर्मठ हैं एवं लम्बे समय से
साहित्य सेवा में रत हैं | प्रसन्नता का विषय है कि वे सिर्फ आर्यसमाज के कर्मकांड
में ही संलग्न न रह कर साहित्य-रचना जैसे धर्म-यज्ञ में भी सामान रूप से रत हैं |
परम-आदरणीय स्वामी दयानंद जी ने देश व समाज में वैदिक-ज्ञान एवं भारतीय शास्त्र-ज्ञान
के पुनुरुत्थान व जन-जन में प्रसार का जो यज्ञ प्रारम्भ किया, बिसरिया जी उसकी लौ
को जलाए हुए हैं | आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं यथा ‘सीता के पत्र राम के नाम’,
‘दिव्य-अगीत’ आदि.... जो दिव्यता एवं मानव आचरण संवर्धन से युक्त हैं | उसी क्रम
में प्रस्तुत रचना ‘वर्ण सन्देश’ भी है | जिसके सन्देश प्रत्येक अक्षर से
प्रारम्भ होते हैं जो एक अभिनव प्रयोग है | वर्ण-सन्देश को पढ़कर मुझे अतीव
आनंदानुभूति हुई क्योंकि पुस्तक ने मुझे अपने विद्यार्थी जीवन में स्कूल की
पत्रिका हेतु लिखी गयी एक भूली-बिसरी कविता ‘स्वरों की शिक्षा’ का
स्मरण करा दिया| जो कुछ इस प्रकार से थी ...
“अ से का करो तुम अच्छे, और दुनिया
में नाम कमाओ |
बुरा न सोचो कभी किसीका, और सदा
अच्छे फल पाओ ||”
आज के सामाजिक, व्यक्तिगत व साहित्यिक नैतिक
आचरण के ह्रास के युग में साहित्य व कविता के नाम पर समाचार लिखे, कहे, पढ़े जारहे
हैं | एक घटना होती है...उसे छत्तीस बार टीवी पर दिखाया जाता है, कई बार समाचार-पत्रों
में प्रकाशित होता है, फिर सभी के द्वारा उसे ट्विटर, फेसबुक, ब्लोगों पर लिखा
जाता है ...फिर उसी को अखबारों के ब्लॉग-कालम में पुनः छापा जाता है | सभी लेखक
घटना पर अपनी-अपनी वर्णन क्षमता द्वारा टिप्पणी देकर निकल लेते हैं| उसके
कारणों...उसके समाधान की दिशा पर गंभीर व निश्चित समाधानपरक चर्चाएँ नहीं होतीं |
ऐसे मूल्यहीनता के वातावरण में मूल्यों,
नैतिकता व आचरण संवर्धन पर कृति की रचना करना एक दुष्कर, धैर्य का एवं अति-हिम्मत
का कार्य है | जो बिसरिया जी ने कर दिखाया है |
कोइ भी देश, राष्ट्र व समाज.. अपने
विद्वान्, कर्मठ, सच्चरित्र व देशभक्त नागरिकों से ही उन्नत व संपन्न होता है |
ऐसे नागरिक ही देश व समाज के गौरव व गर्व होते हैं और विद्वता, कर्मठता, चरित्र व
देशभक्ति हेतु नैतिकता, संयमित जीवनचर्या व शाश्वत मूल्यों को अपनाना व उनपर चलना
महत्वपूर्ण व आवश्यक होता है | यही प्रस्तुत रचना’ वर्ण-सन्देश’ का
मूल उद्देश्य है जो उसकी सामयिक व सार्वकालीन आवश्यकता व महत्ता का
परिचायक है | कृति में हिन्दी वर्णमाला के प्रत्येक वर्ण – स्वर व व्यंजन, को
वाक्य का प्रारम्भिक अक्षर लेकर विविध नैतिकता एवं आचरणगत सन्देश प्रस्तुत किये गए
हैं जो सन्देश-प्रेषण का एक अभिनव प्रयोग है |
उदाहरणार्थ....
इ .से... --इच्छा-मृत्यु पाने की साधना करें,
--इच्छाओं पर अंकुश लगाएं, इन्द्रिय निग्रह
करें,
--इंसान बनाने का पुरुषार्थ करें,
--इष्ट केवल एक ईश्वर है |
अक्षर, वाणी के बैखरी रूप का प्रतिनिधि है| ध्वनि या वाणी के रूप –परा, पश्यन्ति,
मध्यमा व बैखरी....में बैखरी वाणी का फलित रूप है| आदि-ऋषिकुल ..अंगिराओं ने जब
सात स्वरों को संगठित करके वाणी के बैखरी रूप की उत्पत्ति की वह वाणी या बोली हुई,
वही कृतित्व रूप में भाषा एवं लिपि रूप में अक्षर | हिन्दी वर्णमाला का प्रत्येक
अक्षर यूं तो सदा ही सन्देश रूप है परन्तु उसका जन-उपयोगी व व्याख्यायित रूप इस
कृति में प्रस्तुत किया गया है जो एक नवीन सोच का परिचायक है | इस अभिनव प्रयोग
हेतु बिसरिया जी साधुवाक के पात्र हैं|
ऋग्वेद( १०/५२/९५६५ ) में ऋषि यज्ञ के
ब्रह्मा का स्तवन करते हुए कहता है कि..
“ऋचां
त्वा पोषमस्ति पुपुष्वां गायत्रं त्वो गायति शक्वरीषु |” ....
मूल भाव है कि छंद एवं साहित्य....अर्थात
अक्षर ...ही आपको यह बताता है कि आपको क्या, कैसे व क्यों करना चाहिए | अक्षर छंद
का मूल स्वरुप है | उसी तत्त्व-भाव का परिपोषण इस कृति ‘वर्ण-सन्देश’ में किया गया
है |
विदुषी प्रोफ. श्रीमती उषा सिन्हा एवं
महाकवि श्री विनोद चन्द्र पाण्डेय द्वारा कृति की विद्वतापूर्ण शुभाशंसा एवं
सम्मति पुस्तक के महत्त्व में और वृद्धि करते हैं| स्वयं लेखक के आत्मकथ्य के किये गए कथन...”सुधार
करने का कार्य कभी अवरुद्ध नहीं होता..” अत्यंत महत्वपूर्ण है | अच्छाई व
बुराई का संघर्ष सतत चलता रहता है परन्तु सुधार की आवश्यकता सदैव रहती है ...जिसका
उद्घोष वेदों में नेति..नेति द्वारा किया गया है|
कथ्य शैली के माध्यम से प्रत्येक अक्षर से
विविध विषय-भाव स्पष्ट किये गए हैं...जिनमें... अष्टांग-योग द्वारा तन-मन का
स्वास्थ्य,चार पुरुषार्थ, सुख-आनंद, दैनिक नियमित दिनचर्या, बचत की भूमिका, घर से
बाहर व विदेश जाकर नौकरी हेतु प्रवास के प्रचालन व उसकी कठिनाइयों का सामयिक
प्रश्न, शिक्षा व ज्ञान में अंतर, शिक्षाओं व कर्म का उचित दिशा ज्ञान, विद्वानों, गुरुजनों व अनुभवी एवं वृद्ध जनों
का एवं उनकी की शिक्षाओं का आदर-समादर, शास्त्रों का गया व उनकी शिक्षाओं एवं
शास्त्रों का आदर, स्वयं को जानो, ईश्वर , सत्य, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, कदाचरण,
कौमार्य-रक्षण आदि नैतिकता एवं मानव आचारंगत विषयों को विविधताओं से व्याख्यायित
किया गया है | श्लोको व मन्त्रों आदि के उदाहरण द्वारा उनकी प्रामाणिकता को भी
स्पष्ट किया गया है| एक उदाहरण प्रस्तुत
है....
आ ..से.. आचार-विचार सही रखें ....यहाँ पर दो शब्द
हैं आचार तथा विचार – आचार से अभिप्राय: है मनुष्य के आचरण तथा व्यवहार से | विचार मन
के भाव की चिंतन परख कल्पना का स्थायी निष्कर्ष है |”
कृति के भाषा सरल व अभिधात्मक है एवं
रोचक कथ्य शैली में है अतः सहज संप्रेष्य
व बोधगम्य है एवं कहीं कहीं विषय कठिन,
उबाऊ व दार्शनिक होने पर भी समझने में सरल होजाता है| इन्हें हिन्दी के औपनिषदीय
मन्त्र कहा जाय तो अति शयोक्ति नहीं होगी | ऐसी सुन्दर, सुष्ठु, पठनीय व संग्रहणीय
रचना हेतु मैं श्री धुरेन्द्र स्वरुप बिसारिया जी का अभिवादन करता हूँ|
----
डा श्याम गुप्त
,
सुश्यानिदी
के-३४८, आशियाना, लखनऊ
-२२६०१२
मो-९४१५१५६४६४
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें