....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
कारण कार्य व प्रभाव गीत ....कितने भाव मुखर हो उठते
.....
( मेरे द्वारा सृजित, गीत की एक नवीन -रचना-विधा -कृति में .........जिसे मैं ....'कारण कार्य व प्रभाव गीत' कहता हूँ ....इसमें कथ्य -विशेष का विभिन्न
भावों से... कारण उस पर कार्य व उसका प्रभाव वर्णित किया जाता है …. इस छः पंक्तियों के
प्रत्येक पद या बंद के गीत में प्रथम दो पंक्तियों में मूल विषय-भाव के कार्य या
कारण को दिया जाता है तत्पश्चात अन्य चार पंक्तियों में उसके प्रभाव का वर्णन किया
जाता है | अंतिम पंक्ति प्रत्येक बंद में वही रहती है गीत की टेक की भांति | गीत
के पदों या बन्दों की संख्या का कोई बंधन नहीं होता | प्रायः गीत के उसी
मूल-भाव-कथ्य को विभिन्न बन्दों में पृथक-पृथक रस-निष्पत्ति द्वारा वर्णित किया जा
सकता है | ).....प्रस्तुत है ...एक रचना....
कितने भाव मुखर हो उठते
.....
ज्ञान दीप जब मन में जलता,
अंतस जगमग होजाता है |
मिट जाता अज्ञान तमस सब,
तन-मन ज्ञान दीप्त हो जाते |
नव-विचार युत, नव-कृतित्व के,
कितने भाव मुखर हो उठते ||
प्रीति-भाव जब अंतस उभरे,
द्वेष-द्वंद्व सब मिट जाता
है |
मधुभावों से पूर्ण ह्रदय हो,
जीवन मधुघट भर जाता है |
प्रेमिल तन-मन आनंद-रस के,
कितने भाव मुखर हो उठते ||
मदमाती यौवन बेला में,
कोई ह्रदय लूट लेजाता |
आशा हर्ष अजाने-भय युत,
उर उमंग उल्लास उमड़ते |
इन्द्रधनुष से विविध रंग के,
कितने भाव मुखर हो उठते ||
सत्य न्याय अनुशासन महिमा,
जब जन-मन को भा जाती है |
देश-भक्ति हो, मानव सेवा,
युद्ध-भूमि हो, कर्म-क्षेत्र हो |
राष्ट्र-धर्म पर मर मिटने के,
कितने भाव मुखर हो उठते ||
5 टिप्पणियां:
यह तो दार्शनिक और तार्किक विधा सी लगती है।
स्तरीय प्रस्तुति आदरणीय-
आभार आपका-
सही कहा पांडे जी ....विज्ञान के युग में साहित्य में दर्शन व विज्ञान के तार्किक सम्बन्ध परिलक्षित होने ही चाहिए न ....धन्यवाद
धन्यवाद रविकर .....
धन्यवाद रविकर .....
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