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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

डा श्याम गुप्त की ग़ज़ल....खिलती रहे ये ज़िंदगी......

                                  ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...



                          
          आते तो सभी अकेले हैं इस दुनिया में और जाते भी अकेले ही हैं, पर आने व जाने के मध्य जो संसार-व्यापार है, यही ज़िंदगी है और हर लम्हा खुश खुश जीना ही जीना है | इस ज़िंदगी के सफ़र में किसी हमसफ़र का होना उसे सुहाना सफ़र बना देता है | सफ़र को सुहाना बनाए रखने के लिए एक दूसरे को सुनना, समझना, जानना व मानना अत्यंत आवश्यक है ...प्रस्तुत है एक गज़ल.....

                              कुछ तुम रुको कुछ हम रुकें चलती रहे ये ज़िंदगी |
    कुछ तुम झुको कुछ हम झुकें ढलती रहे ये ज़िंदगी |

   कुछ तुम कहो कुछ हम कहें सुनती रहे ये ज़िंदगी ,|
   कुछ तुम सुनो कुछ हम सुनें कहती रहे ये ज़िंदगी |

  बहकें जो  साथ साथ तो छलकी   ये ज़िंदगी,
  मस्ती में झूमके चलें  मचली रहे  ये ज़िंदगी |                   
घुट घुट के जीना भी है क्या ए यार कोइ ज़िंदगी,
कोइ न साथ देगा बस छलती रहे ये ज़िंदगी |

हर गम खुशी जो साथ साथ यार के जिए ,
आयें हज़ार गम यूंही हंसती रहे ये ज़िंदगी |
                    
 वो हारते ही कब हैं जो सज़दे में झुक लिए ,
यूं फख्र से जियो यूंही चलती रहे ये ज़िंदगी |

     रहरौ है हर एक शख्स और दुनिया है रहगुजर ,
      खुश रंग यूंही चलते रहो पलती रहे ये ज़िंदगी |

       आया न साथ कोई,  न कोई साथ जायगा,
      कुछ हमकदम हों साथ तो संभली रहे ये ज़िंदगी |

      गुल भी हैं और खार भी, इस रहगुजर में श्याम’
                                 हो साथ हमनफस कोई खिलती रहे ये ज़िंदगी ||
 

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