....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
असहमति प्रकटीकरण व स्वीकरण एवं
मधुमयता – मधुला विद्या
प्रकृति हमें जीवन देती है परन्तु स्वयं
प्रकृति शक्तियां अपनी लय में सतत: स्व-नियमानुसार गतिशील रहती हैं, जीवन के
अस्तित्व की चिंता किये बिना। प्रकृति आपदाएं प्राणियों को प्रभावित करती
हैं| प्राणी जीना चाहते हैं जिजीवीषा भी प्रकृति की ही देन हैं। अतः
वे अपने अस्तित्व के लिए प्रयत्न करते
हैं, प्रकृति को संतुलित या नियमित करने हेतु । मनुष्येतर प्राणी प्रायः विचारवान
नहीं होते अतः स्वयं को प्रकृति के अनुरूप ढालकर उसके अनुसार जीवन जीते हैं| मनुष्य विचारशील है अतः वह कभी स्वयं को प्रकृति के
अनुरूप ढालकर कभी प्रकृति को स्वयं के अनुसार नियमित करने का उपक्रम करता है | यही
संसार है, जगत है जीवन है | तब प्रश्न
उठता है मनुष्य के विचार
स्वातंत्रय एवं तदनुसार कर्म स्वातंत्रय का |
अस्तित्व बहरूपिया है। बहुत से नाम रूप | कुछ जाने हुए अधिकाँश
बिना जाने हुए। प्रत्यक्ष अनुभूति में यह दृष्ट सांसारिक भाव है, लौकिक
तत्व है।
परन्तु इसका अंदरूनी तंत्र विराट है। अस्तित्व नियमबद्ध हैं। सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुद्ध आदि ग्रहों को नियमबद्ध पाया गया है। ये नियम शाश्वत कहे जाते हैं | प्रकृति
और जीव के कृतित्व में परस्पर
अन्तर्विरोध तो हैं परन्तु सामंजस्य रूप
प्रकृति ने प्राणी को कर्म
स्वातंत्रय भी दिया है अर्थात मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं है। इस स्वातंत्र्य
के उपभोग की दृष्टि भले ही भिन्न-भिन्न हो अपने विचार व परिस्थितियों के अनुसार
।
लोकतंत्र में विचार स्वातंत्र्य ही उच्चतर मूल्य है। परन्तु विचार
प्रकट करने
में भाषा की अहं भूमिका है और भाषा-वाणी
में मधुमयता की। हमारे यहाँ विचार अभिव्यक्ति का स्वातंत्रय
है। परन्तु दलतंत्र में सबकी अपनी रीति और अपनी
प्रीति के कारण मधुमयता का अभाव है । व्यक्तिगत आरोपों से जनतंत्र को क्षति होती है। आरोपों प्रत्यारोपों की मधुमय अभिव्यक्ति कठिन नहीं। सम्मानजनक अभिव्यक्ति के माध्यम से असहमति प्रकट करना ही सम्मानजनक
तरीका है। लेकिन दलतंत्र में परस्पर सम्मान
का अभाव है। आखिरकार
इसका मूल कारण क्या है? हम विश्व के सबसे बड़े
जनतंत्र हैं। तो भी वैचारिक असहमति के प्रकटीकरण में मधुमयता का अभाव
क्यों
है?
ज्ञान सदा से है। उसका लौकिक प्राकट्य सृष्टि रचना के बाद हुआ। ऋग्वेद निस्संदेह विश्व का प्रथम ज्ञानोदय एवं ज्ञान अभिलेख है लेकिन आनंद प्राप्ति की मधुविद्या उसके बहुत पहले से
है। शंकराचार्य के अनुसार ...यह मधु ज्ञान हिरण्यगर्भ
ने विराट प्रजापति को सुनाया था। उसने मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को ...| मधुमयता
की अनुभूमि आसान नहीं। सुनना या पढ़ना तो उधार का
ज्ञान होता है। अनुभूति अपनी है।
गीता
के श्रीकृष्ण ने यही ज्ञान परम्परा दोहराते हुए अर्जुन से कहा कि काल के प्रभाव
में यह ज्ञान नष्ट हो गया।
आधुनिक काल में भी यही स्थिति है।
दलतंत्र में मधुमयता क्यों नहीं है? वस्तुतः हम अपनी संस्कृति से प्रेरित नहीं हैं।
भारतीय परंपरा मधुमय है। समूचा वैदिक साहित्य मधुरस से लबालब है। प्राचीन भारत में मधुमयता के बोध को मधुविद्या कहा
गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में मधु विद्या का उल्लेख है। असौ
आदित्यो देवमधु। ....यह अपनी-अपनी
अनुभूति है। वैदिक पूर्वजो का हृदय मधुमय है। उन्हें सूर्य किरणें भी
मधुमय प्रतीति होती हैं। रसौ वै वेद ..वेद रसों के रस हैं, अमृतों
का अमृत हैं। कैसी प्यारी
मधुमय अभिव्यक्ति है। अमृत सम्पूर्णता के साथ सदा अस्तित्वमान रहने की आन्तरिक अनुभूति है। वेद-रस उन्हीं “अमृतों
का अमृत” हैं।
वृहदारण्यकोपनिषद्
में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को मधुमयता का मूलतत्व समझाया,-“इयं पृथ्वी सर्वेषा भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु- यह
पृथ्वी सभी भूतों (समस्त अस्तित्ववान मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी
के मधु। धर्म
और सत्य समस्त भूतों का मधु है, समस्त भूत इस सत्य व धर्म के मधु है।
सर्वत्र मधु की अनुभूति राष्ट्र व विश्व को
मधुमय बनाने की अभीप्सा है।
यह विद्या हमारे पूर्वजों की परम
आकांक्षा है। यह भौतिक जगत्
का माधुर्य है, दर्शन
में परम सत्य है, और अंततः सम्पूर्णता है।
मनुष्य ही विराट जग
की मूल इकाई है, मधु जगत् की मधु इकाई है। मनुष्य को मधुमय होना चाहिए। इसका ज्ञान वैदिक काल से भी प्राचीन है।
सर्वात्मलयता व संवेदनशीलता व सहिष्णुता गहन
आत्मीय भाव है। तब पत्थर भी प्राणवान दिखाई
पड़ते हैं और नदियां भी, सभी प्राणी अपने समान । दलतंत्र की नीति में हम
सबकी संवेदनाएं क्यों नहीं
जगतीं, सहिष्णुता कहाँ चली जाती है ।..हम
क्यों भूल जाते हैं –
सर्वेन सुखिना सन्तु, सर्वे सन्तु
निरामया ,
सर्वे पश्यन्तु भद्राणि, मा कश्चिद्
दुखभाग्भवेत |
-----यहाँ सहिष्णुता या असहिष्णुता का कोई अभिप्रायः नहीं रह जाता |
ऋग्वैदिक ऋषि निवेदन करते हैं -अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार। “हम सब विष भाग को सूर्य किरणों के पास भेजते
है। मधुविद्या विष को अमृत बनाती है। मधुविद्या अमरत्व है। सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। वे जगत् का प्राण हैं। अमृत और विष
उन्हीं का है। हम सब प्राणी, वनस्पतियां, औषधियां और सभी जीव भी उन्हीं के। वे इस विष से प्रभावित नहीं
होते। विष और अमृत वस्तुतः मृत्यु और अमरत्व के प्रतीक हैं| मृत्यु
सत्य है अमृतत्व भी सत्य है। मृत्यु और अमरत्व विरोधी नहीं हैं।
दोनो साथ हैं।
राजनीति को भी मधुमय होना चाहिए। वह राष्ट्र निर्माण का मधु है | शासक सत्ता सूर्य का
प्रतीक है | जैसे विष सत्य है,
अस्तित्व में है, वैसे ही अमृत भी सत्य है, अस्तित्व में है। वैसे ही राजनीति में पक्ष सत्य है, विपक्ष
भी सत्य है। सहमति
का मूल्य है और असहमति का भी। असहमति के
प्रकटीकरण व स्वीकरण में अमृत भाव
चाहिए, मधु भाव । यथा ऋग्वेद का अंतिम मन्त्र ---
“ समानी अकूती समानी हृदयानि वा
समामस्तु वो मनो यथा वै सुसहामती |”
...तथा ..
स्वामी बल्लभाचार्य कृत मधुराष्टकं
से...
‘वचनं
मधुरं चरितं
मधुरं वसनं
मधुरं वलितं
मधुरम् ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||’
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||’