....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
कविता-----जलचक्र -पानी की बूँद.....
में हूँ पानी की वही बूँद ,
इतिहास मेरा देखा भाला |
मैं शाश्वत, विविध रूप मेरे,
सागर घन वर्षा हिम नाला। 1
में हूँ पानी की वही बूँद ,
इतिहास मेरा देखा भाला |
मैं शाश्वत, विविध रूप मेरे,
सागर घन वर्षा हिम नाला। 1
धरती इक आग का गोला थी,
जब मार्तंड से विलग हुई।
शीतल हो अणु परमाणु बने,
बहु विधि तत्वों की सृष्टि हुई । 2
आकाश व धरती मध्य बना,
जल वाष्प रूप में छाया था।
शीतल होने पर पुनः वही,
बन प्रथम बूँद इठलाया था । 3
जग का हर कण कण मेरी इस ,
शीतलता का था मतवाला ।
मैं पानी की वही बूँद,
इतिहास मेरा देखा भाला।। 4
फिर युगों युगों तक वर्षा बन,
मैं रही उतरती धरती पर ।
तन मन पृथ्वी का शीतल कर,
मैं निखरी सप्तसिन्धु बनकर। 5
पहली मछली जिसमें तैरी,
मैं उस पानी का हिस्सा हूँ।
अतिकाय जंतु से मानव तक,
की प्यास बुझाता किस्सा हूँ। 6
रवि ने ज्वाला से वाष्पित कर,
फिर बादल मुझे बना डाला।
मैं हूँ पानी की वही बूँद,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 7
मैं वही बूँद जो पृथ्वी पर,
पहला बादल बनकर बरसी।
नदिया नाला बनकर बहती,
झीलों तालों को थी भरती। 8
राजा संतों की राहों को,
मुझसे ही सींचा जाता था।
मीठा ठंडा और शुद्ध नीर,
कुओं से खींचा जाता था। 9
बन कुए सरोवर नद झीलें ,
मैंने सब धरती को पाला।
मैं वही बूँद हूँ पानी की ,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 10
ऊँचे ऊँचे गिरि- पर्वत पर,
शीतल होकर जम जाती हूँ।
हिमवानों की गोदी में पल,
हिमनद बनकर इठलाती हूँ। 11
सविता के शौर्य रूप से मैं,
हो द्रवित भाव जब बहती हूँ।
प्रेयसि सा नदिया रूप लिए,
सागर में पुनः सिमटती हूँ। 12
मैं उस हिमनद का हिस्सा हूँ,
निकला पहला नदिया नाला।
मैं हूँ पानी की वही बूँद,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 13
तब से अब तक मैं वही बूँद,
तन मन मेरा यह शाश्वत है।
वाष्पन संघनन व द्रवणन से ,
मेरा यह जीवन नियमित है। 14
मैं वही पुरातन जल कण हूँ ,
शाश्वत हैं नष्ट न होते हैं ।
यह मेरी शाश्वत यात्रा है,
जलचक्र इसी को कहते हैं। 15
सूरज सागर नभ महि गिरि ने,
मिलकर मुझको पाला ढाला।
मैं ही पानी बादल वर्षा,
ओला हिमपात ओस पाला। 16
मेरे कारण ही तो अब तक,
नश्वर जीवन भी शाश्वत है।
अति सुख-अभिलाषा से नर की,
अब जल थल वायु प्रदूषित है ।१७.
सागर सर नदी कूप पर्वत,
मानव कृत्यों से प्रदूषित हैं।
इनसे ही पोषित होता यह,
मानव तन मन भी दूषित है। 18
प्रकृति का नर ने स्वार्थ हेतु,
है भीषण शोषण कर डाला।
मैं हूँ पानी की वही बूँद ,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 19
कर रहा प्रदूषण तप्त सभी,
धरती आकाश वायु जल को।
अपने अपने सुख मस्त मनुज,
है नहीं सोचता उस पल को। 20
पर्वतों ध्रुवों की हिम पिघले,
सारा पानी बन जायेगी।
भीषण गर्मी से बादल बन,
उस महावृष्टि को लायेगी। 21
आयेगी महा जलप्रलय जब,
उमड़े सागर हो मतवाला।
मैं वही बूँद हूँ पानी की ,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ २२.
जब मार्तंड से विलग हुई।
शीतल हो अणु परमाणु बने,
बहु विधि तत्वों की सृष्टि हुई । 2
आकाश व धरती मध्य बना,
जल वाष्प रूप में छाया था।
शीतल होने पर पुनः वही,
बन प्रथम बूँद इठलाया था । 3
जग का हर कण कण मेरी इस ,
शीतलता का था मतवाला ।
मैं पानी की वही बूँद,
इतिहास मेरा देखा भाला।। 4
फिर युगों युगों तक वर्षा बन,
मैं रही उतरती धरती पर ।
तन मन पृथ्वी का शीतल कर,
मैं निखरी सप्तसिन्धु बनकर। 5
पहली मछली जिसमें तैरी,
मैं उस पानी का हिस्सा हूँ।
अतिकाय जंतु से मानव तक,
की प्यास बुझाता किस्सा हूँ। 6
रवि ने ज्वाला से वाष्पित कर,
फिर बादल मुझे बना डाला।
मैं हूँ पानी की वही बूँद,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 7
मैं वही बूँद जो पृथ्वी पर,
पहला बादल बनकर बरसी।
नदिया नाला बनकर बहती,
झीलों तालों को थी भरती। 8
राजा संतों की राहों को,
मुझसे ही सींचा जाता था।
मीठा ठंडा और शुद्ध नीर,
कुओं से खींचा जाता था। 9
बन कुए सरोवर नद झीलें ,
मैंने सब धरती को पाला।
मैं वही बूँद हूँ पानी की ,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 10
ऊँचे ऊँचे गिरि- पर्वत पर,
शीतल होकर जम जाती हूँ।
हिमवानों की गोदी में पल,
हिमनद बनकर इठलाती हूँ। 11
सविता के शौर्य रूप से मैं,
हो द्रवित भाव जब बहती हूँ।
प्रेयसि सा नदिया रूप लिए,
सागर में पुनः सिमटती हूँ। 12
मैं उस हिमनद का हिस्सा हूँ,
निकला पहला नदिया नाला।
मैं हूँ पानी की वही बूँद,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 13
तब से अब तक मैं वही बूँद,
तन मन मेरा यह शाश्वत है।
वाष्पन संघनन व द्रवणन से ,
मेरा यह जीवन नियमित है। 14
मैं वही पुरातन जल कण हूँ ,
शाश्वत हैं नष्ट न होते हैं ।
यह मेरी शाश्वत यात्रा है,
जलचक्र इसी को कहते हैं। 15
सूरज सागर नभ महि गिरि ने,
मिलकर मुझको पाला ढाला।
मैं ही पानी बादल वर्षा,
ओला हिमपात ओस पाला। 16
मेरे कारण ही तो अब तक,
नश्वर जीवन भी शाश्वत है।
अति सुख-अभिलाषा से नर की,
अब जल थल वायु प्रदूषित है ।१७.
सागर सर नदी कूप पर्वत,
मानव कृत्यों से प्रदूषित हैं।
इनसे ही पोषित होता यह,
मानव तन मन भी दूषित है। 18
प्रकृति का नर ने स्वार्थ हेतु,
है भीषण शोषण कर डाला।
मैं हूँ पानी की वही बूँद ,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ 19
कर रहा प्रदूषण तप्त सभी,
धरती आकाश वायु जल को।
अपने अपने सुख मस्त मनुज,
है नहीं सोचता उस पल को। 20
पर्वतों ध्रुवों की हिम पिघले,
सारा पानी बन जायेगी।
भीषण गर्मी से बादल बन,
उस महावृष्टि को लायेगी। 21
आयेगी महा जलप्रलय जब,
उमड़े सागर हो मतवाला।
मैं वही बूँद हूँ पानी की ,
इतिहास मेरा देखा भाला॥ २२.
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