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डा श्याम गुप्त का ब्लोग...

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Lucknow, UP, India
एक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है.... मेरी तेरह पुस्तकें प्रकाशित हैं... काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( on creation of earth, life and god),प्रेम-महाकाव्य ,on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ), ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा काव्य संग्रह), कुछ शायरी की बात होजाए ( ग़ज़ल, नज़्म, कतए , रुबाई, शेर का संग्रह), अगीत त्रयी ( अगीत विधा के तीन महारथी ), तुम तुम और तुम ( श्रृगार व प्रेम गीत संग्रह ), ईशोपनिषद का काव्यभावानुवाद .. my blogs-- 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति... 2.drsbg.wordpres.com, 3.साहित्य श्याम 4.विजानाति-विजानाति-विज्ञान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषी ---फेसबुक -डाश्याम गुप्त

सोमवार, 28 नवंबर 2016

एक लयबद्ध षटपदी अगीत छंद ...डा श्याम गुप्त ...

                                ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


          एक लयबद्ध षटपदी अगीत छंद ( मेरे द्वारा सृजित अगीत विधा छंद- अतुकांत)- --

सकल ज्ञान संपन्न विविध नर
सभी एक से कब होते हैं |
अनुभव श्रद्धा तप व साधना ,
होते सबके भिन्न भिन्न हैं |
भरे जलाशय ऊपर समतल ,
होते ऊंचे नीचे तल में ||







 

पांच त्रिपदा अगीत छंद - डा श्याम गुप्त ....

                       ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...


पांच त्रिपदा अगीत छंद ---- मेरे द्वारा सृजित , अगीत कविता विधा का एक छंद ----तीन पंक्तियाँ, प्रत्येक पंक्ति में 16 मात्राएँ , अतुकांत ....
१.
जग में खुशियाँ है उनसे ही,
हसीन चेहरे खिलते फूल; .
हंसते रहते गुलशन गुलशन |

2.
चमचों के मज़े देख हमने,
आस्था को किनारे रख दिया;
दिया क्यों जलाएं हमीं भला |
3.
खुश होकर फूँका उनका घर,
अपना घर भी बचा न पाए ;
चिंगारी उड़कर पहुँची थी |
४.
प्रकृति का सौंदर्य मधुरतम,
पर प्रियतम का वह सुन्दर मुख;
उपमा स्वयं लजा जाती है |
५.
ज़िंदगी की डोर लम्बी है,
थामना भी आना चाहिए;
हंसने का बहाना चाहिए |


 

शनिवार, 26 नवंबर 2016

युद्ध व मानव तथा दाशराज्ञ-युद्ध --डा श्याम गुप्त

                                         ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...





                          युद्ध व मानव तथा दाशराज्ञ-युद्ध 



        आज सिन्धु सतलुज व्यास व रावी नदी के जल में से पाकिस्तान को जल की एक बूँद भी नहीं देंगे के समाचार पर भारत-आर्यावर्त के इतिहास के एक अति महत्वपूर्ण पुरा कालखंड की, वेदों में प्रमुखता से वर्णित रावी नदी तट पर हुए दाशराज्ञ युद्ध की स्मृतियाँ पुनः मस्तिष्क में जीवंत होने लगती हैं जो आर्यावर्त का प्रथम महायुद्ध था जिसने विश्व इतिहास की दिशा बदल दी जिसका एक प्रमुख कारण जल-बंटवारा ही था |
        आज हम चाहे जितना कहते रहें कि आपसी विवादों, झगड़ों, मसलों, मामलों, विरोधों  का समाधान वार्ताओं से होना चाहिए परन्तु एसा होता नहीं है, न कभी हुआ, न इतिहास में न वर्त्तमान में, न भविष्य में भी एसा होने की संभावना है, क्योंकि आपसी विरोध मूलतः विचारधाराओं का होता है जो वर्चस्व-स्थापना, आर्थिक, धर्म, कभी ‘विनाशाय च दुष्कृताम’ या अन्य विविध कारणों का कारण बनता है | एक विचारधारा कभी दूसरी विचारधारा को मान्यता नहीं देती चाहे वह उससे श्रेष्ठ ही क्यों न हो, इसका कारण है उस विचार वर्ग का अहं | अतः युद्ध अनिवार्य होजाता है | महाभारत युद्ध के अंत में गांधारी के कहने पर कि कृष्ण यदि तू चाहता तो युद्ध रुक सकता था, कृष्ण का यही उत्तर था कि माँ मैं कौन होता हूँ अवश्यंभावी के सम्मुख, युद्ध होते रहेंगे |
            अतः भूमंडल या किसी क्षेत्र व देश की राजनैतिक व सामाजिक दिशा व दशा सदैव युद्धों से ही निर्णीत होती रही है | युद्ध करना अर्थात आपसी संघर्ष मानव का मूल कृतित्व रहा है| यदि संघर्ष के लिए विरोधी समुदाय उपस्थित नहीं है तो भाई-भाई ही युद्धरत होते रहे हैं| युद्धों का मूल अभिप्राय वर्चस्व की स्थापना होता है जिसका कारण आर्थिक एवं विचारधाराओं की स्थापना व प्रसार होता है | मानव इतिहास के बड़े– बड़े युद्ध जिन्होंने भूमंडल की दिशा व दशा को परिवर्तित किया है, प्रायः भाई-भाइयों के मध्य ही हुए हैं | विश्व के सर्वप्रथम युद्ध देवासुर संग्रामों में देव व असुर भी भाई भाई ही थे | यद्यपि ऋग्वेद में युद्ध से मानव के अहित का स्पष्ट उल्लेख है --
यत्रा नरः समयन्ते कृतध्वजों यस्मिन्नाजा भवति किंचन प्रियं |
यत्रा भयन्ते भुवना स्वर्द्द्शस्तत्रा न इन्द्रावरुणाधि बोचतम |----ऋग्वेद मंडल-७ सू.८३ ...
---जहां मनुष्य अपनी अपनी ध्वजाएं उठाये हुए युद्ध मैदान में एकत्र होते हैं, ऐसे युद्धों से मानवों का अहित ही होता है | हे इंद्र व वरुण ! आप सुख शान्ति जैसे स्वर्गीय स्थिति के पक्षधर हम सबके संग्राम में रक्षण प्रदान करें |
       आज भी विश्व में अधिकाँश देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था है परन्तु चुनावों में मत (वोट- अर्थात् अपनी विचार धारा की स्वीकृति ) प्राप्ति हेतु एक ही देश के नागरिक आपस में छल, बल व धन आधारित युद्धरत होते हैं | प्रायः राजनैतिक पार्टिया किसी एक व्यक्ति के बलबूते पर ही आगे चलती हैं |
गणतंत्र व राज्यतंत्र ---गणतंत्र या लोकतंत्र कोई नवीन व्यवस्था नहीं है अपितु इसकी अवधारणा वैदिक काल से ही चली आरही है | वैदिक व्यवस्था में राजा होते हुए भी लोकतांत्रिक व्यवस्था थी ताकि राजा निरंकुश न रहे| परन्तु पूर्णतः राजा विहीन गणतांत्रिक व्यवस्था कभी फल-फूल नहीं पाई, सफल नहीं रही | मूलतः यह देखा गया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था सदैव ही राजतन्त्रिक व्यवस्था से परास्त होती रही है, सारा इतिहास साक्षी है | वेदों में प्रमुखता से वर्णित दाशराज्ञ युद्ध जो शायद आर्यावर्त का प्रथम महायुद्ध था, भी लोकतंत्र की पराजय की कहानी है |
           वैदिक काल में भारतीय सभ्यता का विस्तार दुनिया के सभी देशों में था जिसे जम्बूद्वीप कहा जाता है । लोग विभिन्न जातियों, जनजातियों व कबीलों में बंटे थे। उनके प्रमुख राजा कहलाते थे, बीतते समय के साथ-साथ उनमें अपनी सभ्यता व राज्य विस्तार की भावना बढ़ी और उन्होंने युद्ध और मित्रता के माध्यम से खुद का चतुर्दिक विस्तार का प्रयास किया। और इस क्रम में कई जातियां, जनजातियां और कबीलों का लोप सा हो गया। एक नई सभ्यता और संस्कृति का उदय हुआ।
     इस क्रम में भारतीय उपमहाद्वीप का पहला दूरगामी असर डालने वाला युद्ध बना दशराज युद्ध। इस युद्ध ने न सिर्फ आर्यावर्त को बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया बल्कि राजतंत्र के पोषक महर्षि वशिष्ट की लोकतंत्र के पोषक महर्षि विश्वामित्र पर श्रेष्ठता भी साबित कर दी
      उस काल में राजनीतिक व्यवस्था गणतांत्रिक समुदाय से परिवर्तित होकर राजाओं पर केंद्रित  होती जारही थी। दाशराज्ञ युद्ध में भरत कबीला राजा प्रथा आधारित था जबकि उनके विरोध में खड़े कबीले लगभग सभी लोकतांत्रिक थे|
     अधिकाँश हम राम–रावण एवं महाभारत के युद्धों की विभीषिका से ही परिचित हैं, परन्तु इस बात से अनभिज्ञ हैं कि राम-रावण युद्ध से भी पूर्व संभवतः 7200 ईसा पूर्व त्रेतायुग के अंत में एक महायुद्ध हुआ था जिसे दशराज युद्ध (दाशराज्ञ युद्ध ) के नाम से जाना जाता है। यह आर्यावर्त का सर्वप्रथम भीषण युद्ध था जो आर्यावर्त क्षेत्र में आर्यों के बीच ही हुआ था। प्रकारांतर से इस युद्ध का वर्णन दुनिया के हर देश और वहां की संस्कृति में आज भी विद्यमान हैं। इस युद्ध के परिणाम स्वरुप ही मानव के विभिन्न कबीले भारत एवं भारतेतर दूरस्थ क्षेत्रों में फैले व फैलते गए |
        ऋग्वेद के सातवें मंडल में इस युद्ध का वर्णन मिलता है। इससे यह भी पता चलता है कि आर्यों के कितने कुल या कबीले थे और उनकी सत्ता धरती पर कहां तक फैली थी। इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब में परुष्णि नदी (रावी नदी) के पास हुआ था। यह एक ऐसा युद्ध था जिसके बाद भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म और इतिहास ने करवट बदली जिसका प्रभाव राम-रावण व महाभारत युद्ध जैसा ही था जिसने भारतीय समाज व संस्कृति की दशा व दिशा निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |
            उन दिनों पूरा आर्यावर्त कई टुकड़ों में बंटा था और उस पर विभिन्न जातियों व कबीलों का शासन था। भरत जाति के कबीले के राजा सुदास थे। उन्होंने अपने ही कुल के अन्य कबीलों से सहित विभिन्न कबीलों से युद्ध लड़ा था। उनकी लड़ाई सबसे ज्यादा पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रुह्मु, अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन कबीले के लोगों से हुई थी। सबसे बड़ा और निर्णायक युद्ध पुरु और तृत्सु नामक आर्य समुदाय के नेतृत्व में हुआ था। इस युद्ध में जहां एक ओर पुरु नामक आर्य समुदाय के योद्धा थे, तो दूसरी ओर 'तृत्सु' नामक समुदाय के लोग थे। दोनों ही हिंद-आर्यों के 'भरत' नामक समुदाय से संबंध रखते थे।
      'तृत्सु समुदाय का नेतृत्व पंचाल के शासक राजा सुदास ने किया। सुदास दिवोदास के पुत्र थे, जो स्वयं सृंजय के पुत्र थे। सृंजय के पिता का नाम देवव्रत था। सुदास के सलाहकार महर्षि वशिष्ट थे जो राजा शासन तंत्र के समर्थक थे |
       सुदास के विरुद्ध दस राजा (कबीले-जिनमें कुछ अनार्य कबीले भी शामिल थे ) युद्ध लड़ रहे थे जिनका नेतृत्व पुरु कबीला के राजा संवरण कर रहे थे, जिनके सैन्य सलाहकार ऋषि विश्वामित्र थे जो लोकतांत्रिक शासन तंत्र के समर्थक थे। हस्तिनापुर के राजा संवरण भरत के कुल के राजा अजमीढ़ के वंशज थे | पुरु समुदाय ऋग्वेद काल का एक महान परिसंघ था जो सरस्वती नदी के किनारे बसा था | आर्यकाल में यह जम्मू-कश्मीर और हिमालय के क्षेत्र में राज्य करते थे।
     
       वस्तुतः यह सत्ता और विचारधारा की लड़ाई थी।   सबसे बड़ा कारण पुरोहिताई और जल बंटवारे का झगड़ा था। प्रारंभ में सुदास के राजपुरोहित विश्वामित्र थे। बाद में मतभेद के बाद सुदास ने विश्वाममित्र को हटाकर वशिष्ठ् को अपना राजपुरोहित नियुक्त कर लिया था। बदला लेने की भावना से विश्वामित्र ने पुरु, यदु, तुर्वश, अनु और द्रुह्मु तथा पांच अन्य छोटे कबीले अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन आदि दस राजाओं के एक कबीलाई संघ का गठन तैयार किया जो ईरान, से लेकर अफगानिस्तान, बोलन दर्रे, गांधार व रावी नदी तक के क्षेत्र में निवास करते थे |
     वास्तव में तो इस युद्ध की पृष्ठभूमि वर्षों पूर्व तैयार हो गई थी। तृत्सु राजा दिवोदास एक बहुत ही शक्तिशाली राजा था जिसने संबर नामक राजा को हराने के बाद उसकी हत्या कर दी थी और उसने इंद्र की सहायता से उसके बसाए 99 शहरों को नष्ट कर दिया। इंद्र ने धरती पर 52 राज्यों का गठन किया था। इंद्र के विरूद्ध भी कई राजा थे जो बाद में धीरे-धीरे वहां छोटे बड़े 10 राज्य बन गए। वे दस राजा एकजुट होकर रहते थे | यही दस कुल या कबीले संवरण के नेतृत्व व विश्वामित्र के परामर्श पर एक जुट होगये |
        एक ओर वेद पर आधारित भेदभाव रहित वर्ण व्यवस्था का विरोध करने वाले विश्वामित्र के सैनिक थे तो दूसरी ओर एकतंत्र और इंद्र की सत्ता को कायम करने वाले गुरु वशिष्ठ की सेना के प्रमुख राजा सुदास थे।
     दासराज युद्ध को एक दुर्भाग्यशाली घटना कहा गया है। इस युद्ध में इंद्र और वशिष्ट की संयुक्त सेना के हाथों विश्‍वामित्र की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा। दसराज युद्ध में इंद्र और उसके समर्थक विश्‍वामित्र का अंत करना चाहते थे। विश्‍वामित्र को भूमिगत होना पड़ा। दोनों ऋषियों का देवों और ऋषियों में सम्मान था,  दोनों में धर्म और वर्चस्व की लड़ाई थी। इस लड़ाई में वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ। फिर  डर से विश्वामित्र के 50 पुत्र तालजंघों (हैहयों) की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ हो गए। तब  हार मानकर विश्वामित्र वशिष्ठ के शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमादान दिया। वशिष्ठ ने श्राद्धदेव मनु (वैवस्वत) 6379 वि.पू. को परामर्श देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बंटवाकर दिलाया।

      अर्थात यह युद्ध राम-रावण युद्ध से लगभग १००० वर्ष पहले हुआ था क्योंकि राम के काल (लगभग ५११४ वर्ष ईपू ) में दोनों ऋषियों में वैमनस्य के भाव नहीं दिखाई देते तथा भरतवंश के, रघुवंश की पीढी क्रम के अनुसार ५६वीं पीढी में सुदास हुए हैं और ६८ वीं पीढी में राम |

        यद्यपि एक मत के अनुसार माना जाता है कि यह युद्ध त्रेता के अंत में राम-रावण

युद्ध के 150 वर्ष बाद हुआ था। क्योंकि हिन्दू काल वर्णन में चौथा काल : राम-वशिष्ठ काल वर्णन के अनुसार रामवंशी लवकुश, बृहद्वल, निमिवंशी शुनक और ययाति वंशी यदु, अनु, पुरु, दुह्यु, तुर्वसु का राज्य महाभारतकाल तक चला और फिर हुई महाभारत।  इन्हीं पांचों से मलेच्छ, यादव, यवन, भरत और पौरवों का जन्म हुआ। इनके काल को ही आर्यों का काल कहा जाता है। आर्यों के काल में जिन वंश का सबसे ज्यादा विकास हुआ, वे हैं- यदु,  तुर्वसु,  द्रुहु,  पुरु और अनु। उक्त पांचों से राजवंशों का निर्माण हुआ। यदु से यादव,  तुर्वसु से यवन,  द्रुहु से भोज,  अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव l

 

        इस युद्ध में सुदास के भरतों की विजय हुई और उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप के आर्यावर्त और आर्यों पर उनका अधिकार स्थापित हो गया। इस देश का नाम भरतखंड एवं इस क्षेत्र को आर्यावर्त कहा जाता था परन्तु इस युद्ध के कारण आगे चलकर पूरे देश का नाम ही आर्यावर्त की जगह 'भारत' पड़ गया।
       यद्यपि कुछ समय बाद ही राजा सुदास के बाद राजा संवरण ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया परन्तु कुछ समय बाद ही पंचाल पुन: स्वतंत्र हो गया। रामचंद्र के युग के बाद पुन: एक बार फिर यादवों और पौरवों ने अपने पुराने गौरव के अनुरूप आगे बढ़ना शुरू कर दिया। मथुरा से द्वारिका तक यदुकुल फैल गए और अंधक, वृष्णि, कुकुर और भोज उनमें मुख्य हुए। कृष्ण उनके सर्वप्रमुख प्रतिनिधि थे।
     संवरण के कुल के कुरु ने पांचाल पर अधिकार कर लिया | कुरु के नाम से कुरु वंश प्रसिद्ध हुआ,  राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया।  उस के वंशज कौरव कहलाए और आगे चलकर दिल्ली के पास इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर उनके दो प्रसिद्ध नगर हुए। भाई भाइयों, कौरवों और पांडवों का विख्यात महाभारत युद्ध पुनः एक बार भारतीय इतिहास की विनाशकारी घटना सिद्ध हुआ।
        





 

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

अखिल भारतीय अगीत परिषद् एवं नवसृजन साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था के संयुक्त तत्वावधान में एक सरस काव्य गोष्ठी -डा श्याम गुप्त

                               ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

                                          साहित्यिक गोष्ठी संपन्न 


                          दि. २०-११-२०१६ रविवार को अखिल भारतीय अगीत परिषद् एवं नवसृजन साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था के संयुक्त तत्वावधान में एक सरस काव्य गोष्ठी सिटी कान्वेंट स्कूल, राजाजीपुरम के सभागार में आयोजित हुई | गोष्ठी की अध्यक्षता अ.भा.अगीत परिषद् के अध्यक्ष साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य ने की, मुख्य अतिथि डा श्याम गुप्त थे एवं विशिष्ट अतिथि द्वय कुमार तरल व डा सुभाष गुरुदेव थे | संचालन युवाओं की संस्था नवसृजन के अध्यक्ष डा योगेश गुप्त द्वारा किया गया | वाणी वन्दना श्रीमती कामिनी श्रीवास्तव, कुमार तरल व मुरली मनोहर कपूर द्वारा की गयी | 

                                 गोष्ठी का शुभारम्भ युवा कवि मुकेश द्वारा सरस छंदों से किया गया | फुरकत लखीम पुरी की गज़ल व अरविन्द झा के छंदों, डा योगेश गुप्त की अतुकांत आध्यात्मिक कविताओं, देवेश द्विवेदी देवेश के हास्य व्यंग्य व विशाल मिश्र की श्रृंगार रचनाओं सहित लगभग ३० रचनाकारों ने अपने अपने गीत, ग़ज़ल, काविताएं आदि सामयिक व विविध विषयक रचनाओं से गोष्ठी को सुरम्यता व ऊंचाइयां प्रदान की |
नव-सृजन संस्था के अध्यक्ष व गोष्ठी के संचालक डा योगेश गुप्त ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते हुए गोष्ठी में प्रस्तुत रचनाओं में साहित्य, संस्कृति व सरोकारों की आवश्यक उपस्थिति पर हर्ष व्यक्त किया | विशिष्ट अतिथि द्वय द्वारा भी युवा कवियों की रचनाओं की प्रशंसा की गयी एवं |

                          मुख्य-अतिथि डा श्यामगुप्त ने अपने गीत, छंद व ग़ज़ल प्रस्तुति के साथ ही नवसृजन संस्था व युवा कवियों की श्रेष्ठ रचनाओं की प्रशंसा करते हुए कुछ साहित्य के पुरोधाओं द्वारा प्रचारित इस तथ्य को कि आज युवाओं की रचनाओं में श्रेष्ठता नहीं है को निराधार बताया | डा श्यामगुप्त ने कहा कि यद्यपि फेसबुक, ब्लॉग आदि अभिव्यक्ति की तमाम उपलब्ध सुविधाओं के कारण कुछ साहित्यिक श्रेष्ठता में गिरावट हुई है परन्तु युवाओं द्वारा उत्तम कोटि का श्रेष्ठ साहित्य भी सदा की भांति उपलब्ध है |

                              अध्यक्षीय वक्तव्य में साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य ने गोष्ठी में प्रस्तुत सभी रचनाओं पर विस्तृत समीक्षा प्रस्तुत करते हुए उनकी श्रेष्ठता की प्रशंसा की एवं सुन्दर छंद रचनाएँ प्रस्तुत की |
डा योगेश गुप्त द्वारा धन्यवाद ज्ञापन किया गया |

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सोमवार, 21 नवंबर 2016

कविता का घ -----काव्य क्या है.... डा श्याम गुप्त ...

                                    ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...

 क्रमिक आलेख--कविता का क ख ग घ...


 कविता का घ-----




 



                
काव्य क्या है.... 


            सभी के अनुभव व विचार लगभग समान ही होते है | ज्ञान भी समान हो सकता है परन्तु विचारों की गंभीरता, सूक्ष्मता, निरीक्षण की गहनता, चिंतन, व अभिव्यंजना सभी की पृथक पृथक होती है | इसीलिये मानव समूह में साहित्यकार, विद्वान्, विचारक, चिन्तक, ज्ञानी, सामान्य आदि वर्ग होते हैं| यथा ...
सर्व ज्ञान संपन्न विविधि नर,
सभी एक से कब होते हैं  |
अनुभव श्रृद्धा तप व भावना,
होते सबके भिन्न  भिन्न हैं |
भरे जलाशय ऊपर समतल,
होते ऊंचे -नीचे तल में ||    ---शूर्पणखा काव्य-उपन्यास से
      जब कोई घटना , तथ्य या कथ्य, स्थिति, विषय-वस्तु अथवा भाव ..मन को गहराई तक स्पर्श करते हैं एवं अंतर्मन को मंथित करते हैं तो भावुक मन उसे अपने काम से काम  के भाव में यूंही छोड़कर आगे नहीं बढ़ जाता |  वह प्रतिक्रया स्वरुप उसके समाधान या समाधान पाने के प्रयत्न में अन्य हृदयों से, जन सामान्य से समन्वय या समर्थन की इच्छा में अपने विचार प्रस्तुत करना चाहता है | साहित्य लेखन, काव्य, गायन, वादन , चित्रकला इसी इच्छा के फल हैं|  भावुक मन में जब भाव ..आत्म-तत्व को मंथित करते हैं तो कोमल भावनाएं गेय रूप में निसृत होती हैं और कविता बन जाती हैं|
         सामान्य व्यक्ति की भाषा विवरणात्मक होती है तो कवि की भाषा में विशिष्टता व भावों व शब्दों की संश्लिष्टता होती है सामान्य भाषा में जो तथ्य मान्य नहीं हो सकते वे काव्य की भाषा में भावालंकार रूप में सौन्दर्ययुक्त व मान्य माने जाते हैं | कविवर रविंद्रनाथ टेगोर का कथन है कि...
        हृदयवेग में जिसकी सीमा नहीं मिलती उसको व्यक्त करने के लिए सीमाबद्‌ध भाषा का घेरा तोड देना पडता है, यह घेरा तोड देना ही कवित्व है।‘
                  सामान्य भाषा में एक ही निश्चित अर्थात्मक तथ्य होते हैं, यथा.... मनुष्य चलता है, पेड़ों की डालियाँ हवा में हिलती हैं, चिडिया उड़ती है, घोड़ा दौडता है आदि.....वहीं कविता में पेड.. डालियाँ रूपी गर्दन हिलाते हैं, घोड़ा हवा से बातें करता है अर्थात काव्य में जड़ तत्वों की भाव ग्राहयता के साथ सौन्दर्य भी है।  सामान्य  भाषा को विशिष्ट भाव-शब्द देने के कारण उत्पन्न होने वाली सौन्दर्यमय, भाव-सम्प्रेषणात्मकता युक्त, सर्जनात्मक भाषा... कविता व साहित्य की भाषा है। कविता में भाषा की सर्जनात्मकता, भाषा व कथ्य के निश्चित अर्थ के विपरीत शब्द-भावों का लाक्षणिक प्रयोग करके भिन्न सौन्दर्यमय अर्थवत्तात्मकता उत्पन्न की जाती है। यही काव्य है।

काव्य -- मानवीय सृजन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण
      काव्य मानव-मन की संवेदनाओं का बौद्धिक सम्प्रेषण है--मानवीय सृजन में सर्वाधिक कठिन रहस्यपूर्ण ; क्योंकि काव्य अंतःकरण के अभी अवयवों ---चित्त (स्मृति धारणा ), मन ( संकल्प ), बुद्धि ( मूल्यांकन ), अहं ( आत्मबोध ) स्वत्व (अनुभव भाव ) आदि सभी के सामंजस्य से उत्पन्न होता है |  तभी वह युगांतरकारी, युगसत्य, जन सम्प्रेषणीय, विराट-सत्याग्रही, बौद्धिक विकासकारी सामाजिक चेतना का पुनुरुद्धारक हो पाता है |
      काव्य--- इतिहास, दर्शन या विज्ञान के भांति कोरा कटु यथार्थ होकर मूलरूप से वास्तविक व्यवहार जगत के अनुसार सत्यं, शिवं, सुन्दरं होता है, तभी उसका कथ्य युगानुरूप के साथ सार्वकालिक सत्य भी होता है|   साहित्यकार  का  दायित्व- नवीन युग-बोध को सही दिशा देना होता है तभी उसकी रचनाएँ कालजयी हो पाती हैं|  आधुनिक सामयिक साहित्य रचना के साथ-साथ ही सनातन एतिहासिक विषयों पर  पुनः-रचनाओं द्वारा  समाज के दर्पण पर जमी धूलि को समय-समय साफ़ करते रहने से समयानुकूल प्रतिबिम्ब नए-नए भाव-रूपों में दृश्यमान होते हैं एवं प्रगति की भूमिका बनते हैं|
           साहित्य व काव्य को किसी भाषा , शाखा या गुट-विशेष की रचनाधर्मिता न होकर काव्य की समस्त शक्तियों,  भावों,  शब्दों सम्भावनाओं का उपयोग करना होता है| प्रवाह व लय  काव्य की विशेषताएं हैं जो विषय,  भाव व सम्प्रेषण-क्षमता एवं समाज की सार्वकालीन  आवश्यकतानुसार प्रत्येक काव्य-विधा में होनी चाहिए चाहे वह विधा छंदोबद्ध काव्य हो या मुक्त-छंद काव्य | अतः गीत- अगीत,  तुकांत-अतुकांत,  छंद आदि कोई विवाद का विषय नहीं  होना चाहिए |

काव्य ---सत्यं शिवं सुन्दरम ---
        काव्य ---सौंदर्य-प्रधान हो या सत्य-प्रधान ...इस पर पूर्व पश्चिम के विद्वानों में मतभेद हो सकता है | आचार्यों के अपने अपने  मतभेद तर्क हैं|  सृष्टि की प्रत्येक वस्तु भाव, कर्म की भाँति...काव्य-कविता समस्त साहित्य को भी " सत्यं शिवं सुन्दरम " होना चाहिए | साहित्य का कार्य सिर्फ मनोरंजन   होकर जन-रंजन के रूप में समाज को एक दिशा देना होता है और सत्य के बिना कोई दिशा..दिशा नहीं हो सकती | सिर्फ कलापक्ष को सजाने हेतु एतिहासिक, भौगोलिक तथ्यात्मक सत्य को अनदेखा नहीं करना चाहिए |
      स्वतः स्फूर्त रचना,स्वांत-सुखाय व सर्वग्राही --- होती है | रचनाकार को वह सद्य-प्रसूता जननी की भांति सृजन की सुखानुभूति देती है | उसके अंतर के पुरुष-तत्व के अहं की तुष्टि करती है | आदि-सृष्टि की रचना  भी तो उस परम-तत्व, आदि-सृष्टा की स्वतः स्फूर्त स्वांत-सुखाय, सृजन-प्रवृत्ति की सुखानुभूति एवं 'एकोहं बहुस्याम '  के ईषत-अहं की तुष्टि ही है | इसी से सृजन -धर्मिता ..असत से सत की ओर प्रस्फुटित होती है | जब सुधीजन उस रचना को अपने-अपने दृष्टिकोण से परखते हैं तभी वह रचना सर्वांत-सुखाय  सर्वग्राही भी हो पाती है |

 आज कल काव्य की विंडम्बना.....
        मुझे लगता है यह विडम्बना ही है ... कि एक ओर तो हम एकाक्षरी-द्व्याक्षरी आदि छंद के रूप में हर छंद आखर-शब्द को ही छंद मानते हैं ....बालक द्वारा प्रथम शब्द..माँ ..एक छंद ही है आदि आदि .....दूसरी ओर मुक्त छंद, अतुकांत छंद आदि को अछूत | वस्तुतः हमारी सनातन छंद परम्परा तो देववाणी संस्कृति के अतुकांत छंदों से ही है | जब संस्कृत भाषा ज्ञान के तप, साधना, व धैर्य की कमी के कारण तालबद्धता व संगीतमयता की विलुप्ति से संस्कृत का जन साधारण द्वरा प्रयोग में ह्रास हुआ, जनभाषा प्राकृत व अपभ्रंश से होते हुए हिन्दी तक आई तो तुकांत छंदों का आविर्भाव हुआ और तुकांत कविता मुख्य हुई | परन्तु हिन्दी साहित्यकारों द्वारा मुक्त छंद काव्य व अतुकांत रचनाओं की प्रस्तुति भी होती रही| मैथिली शरण गुप्त जी के खंडकाव्यसिद्धराज में देखें
तो फिर-
सिद्धराज क्या हुआ
मर गया हाय,
तुम पापी प्रेत उसके | 

      छंद क्या है --- वे जो सिर्फ छंदोबद्ध कविता ही की बात करते हैं, वस्तुतः छंद, कविता, काव्य-कला व साहित्य का अर्थ ठीक प्रकार से नहीं जानते-समझते एवं संकुचित अर्थ व विचार धारा के पोषक हैं। वे केवल तुकांत-कविता को ही छंदोबद्ध कविता कहते हैं। कुछ तो केवल वार्णिक छंदों -कवित्त, सवैया, कुण्डली आदि को ही छंद समझते हैं।
       वस्तुतः कविता, काव्य-कला, गीत आदि नाम तो बाद मैं आए। पद्य विधा का आविर्भाव तो छंद - नाम से ही हुआ। छंद ..ही कविता का वास्तविक सर्वप्रथम नाम है।  अतः छंद ही कविता है, हर कविता छंद है -तुकांत, अतुकांत; गीत-अगीत सभी... छंद का  अपना ही एक विस्तृत आकाश है।
      मुक्त छंद कविता अगीत ---वस्तुतः कविता वैदिक, पूर्व-वैदिक, पश्च-वैदिक पौराणिक युग में भी सदैव मुक्त-छंद रूप ही थी|  कालान्तर में मानव सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश- राजमहलों, संस्थानों, राजभवनों, बंद कमरों में  सुखानुभूति प्राप्ति हित कविता  छंद-शास्त्र के बंधनों  पांडित्य प्रदर्शन के बंधन में बंधती  गयी |  नियंत्रण और अनुशासन प्रबल होता गया तथा वन-उपवन में मुक्त, स्वच्छंद विहरण करती कविता कोकिला ,गमलों वाटिकाओं में सजे पुष्पों की भांति बंधनयुक्त होती गयी एवं  स्वाभाविक, हृदयस्पर्शी, निरपेक्ष काव्य, विद्वता प्रदर्शन सापेक्ष कविता में परिवर्तित होता गया |
         प्रवाह लय काव्य की विशेषताएं हैं जो काव्य के विषय-भाव भाव सम्प्रेषण क्षमता की आवश्यकतानुसार छंदीय काव्य में भी होसकती हैं मुक्त-छंद काव्य में भी| अतः गीत-अगीत कोई विवाद का विषय नहीं हैं गेयता दोनों में ही होती है | वस्तुतः स्वयं संगीत काव्य-गीत से अन्यथा कोई रचना पूर्ण गेय नहीं होती |
                      हर नई विधा में कुछ चमत्कार होता है, परन्तु यदि उसमें समाज में अपेक्षित संस्कार, साहित्य के उचित गुण, भाव, कला देश कालानुसार आस्था भी होती है तो वह कालजयी होती है, उसका समादर होता है, होना ही चाहिए|
        कविता का पतन तकनीक के कारण नहीं हुआ अपितु भाव दोषों के कारण हुआ| कथ्यों व विषय-भाव का तादाम्य, तथ्यों की वास्तविकता व सत्यता, सहज भाषा-शैली व स्पष्ट सम्प्रेषणता का गौण होजाना एवं तकनीक छंद-तकनीक, तुकांत-अतुकांत के विवाद, विषय-ज्ञान की अल्पज्ञता, क्लिष्ट शिल्प व नए-नए शब्दों का आडम्बर  आदि के कारण |  स्वतन्त्रता के पश्चात हम काव्य के विषय चुनने में भटक गए कोई लक्ष्य ही नहीं रहा | पाश्चात्य हलचल की चकाचौंध में हम पूर्व व पश्चिम के जीवन तत्वों व व्यवहार में तादाम्य व समन्वय नहीं कर पाए | भौतिक सुखों व धनागम के ताने-बाने, उपकरण, साधन चुनते-बुनते हम साहित्य में भी अपने स्वदेशी विषय-भावों से भटककर जीवन के वास्तविक आनंद से दूर होते गए | विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों, मनीषियों ने अपने कर्त्तव्य नहीं निभाये | समाज के इसी व्यतिक्रम ने व्यक्ति को कविता व साहित्य से क्या दूर किया जीवन से ही दूर कर दिया | और चक्रीय प्रतिक्रया-व्यवस्थानुसार स्वयं साहित्य भी व्यक्ति से दूर जाने लगा |  
          आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने दशकों पूर्व वाराणसी के एक कार्यक्रम में कविता की चर्चा करते हुए कहा था कि कविता रोटी नहीं देगी, कपड़ा नहीं देगी, मकान नहीं देगी - फिर उसका हमारे लिये क्या उपयोग हो सकता है? उन्होंने इन सवालों का उत्तर देते हुये कहा था कि यह ठीक है कि कविता हमें किसी तरह का भौतिक सुख नहीं दे सकती लेकिन वह उससे भी बड़ा और महत्वपूर्ण कार्य करती है - एक बेहतर इन्सान बनाने का काम. जीवन में वह सहचर भाव से हमारे साथ हमेशा रहेगी, संवेदनाओं को निरन्तर सम्प‍‍न्न बनाती हुई. कविता में निहित होती है सृजन की आकांक्षा. वह जीवन को कोमल, सहज तथा सुखद बनाये रखने का प्रयास करती है


                       ---इति--- कविता का क ख ग घ ...