....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
----बात ग़ज़ल की ----
------आदिदेव शिव के डमरू से निसृत ध्वनि से बोलियाँ, अक्षर, शब्द की उत्पत्ति के साथ ही श्रुति रूप में कविता का आविर्भाव हुआ|
-----देव-संस्कृति में शिव व आदिशक्ति की अभाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह की सर्वप्रथम कथा के उपरांत देव-मानव या मानव संस्कृति की, मानव इतिहास की सर्वप्रथम भाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह गाथा.... ‘उर्वशी–पुरुरवा’ ....की है |
------कहते हैं कि सुमेरु क्षेत्र, जम्बू-द्वीप, इलावर्त-खंड स्थित इन्द्रलोक या आज के उजबेकिस्तान की अप्सरा ( बसरे की हूर) उर्वशी, भरतखंड के राजा पुरुरवा पर मोहित होकर उसकी पत्नी बनी जो अपने देश से उत्तम नस्ल की भेड़ें तथा गले के लटकाने का स्थाली पात्र, वर्फीले देशों की अंगीठी –कांगड़ी- जो गले में लटकाई जाती है, लेकर आयी।
-------प्रणय-सुख भोगने के पश्चात उर्वशी …गंधर्वों अफरीदियों के साथ अपने देश चली गई और पुरूरवा उसके विरह में छाती पीटता रोता रहा, विश्व भर में उसे खोजता रहा। उसका विरह-रूदन गीत ऋग्वेद के मंत्रों में है, यहीं से संगीत, साहित्य और काव्य का प्रारम्भ हुआ।
------अर्वन देश (घोड़ों का देश) अरब तथा फारस के कवियों ने इसी की नकल में रूवाइयां लिखीं एवं तत्पश्चात ग़ज़ल आदि शायरी की विभिन्न विधाएं परवान चढी जिनमें प्रणय भावों के साथ-साथ मूलतः उत्कट विरह वेदना का निरूपण है । ------शायरी ईरान होती हुई भारत में उर्दू भाषा के माध्यम से आयी, प्रचलित हुई और सर्वग्राही भारतीय संस्कृति के स्वरूपानुसार हिन्दी ने इसे हिन्दुस्तानी-भारतीय बनाकर समाहित कर लिया| आज देवनागरी लिपि में उर्दू के साथ-साथ हिन्दुस्तानी, हिन्दी एवं अन्य सभी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में भी शायरी की जा रही है |
-------शायरी अरबी, फारसी व उर्दू जुबान की काव्य-कला है | इसमें गज़ल, नज़्म, रुबाई, कते व शे’र आदि विविध छंद व काव्य-विधाएं प्रयोग होती हैं, जिनमें गज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय हुई |
------गज़ल मूलतः शे’रों (अशार या अशआर) की मालिका होती है और प्रायः इसका प्रत्येक शे’र विषय–भाव में स्वतंत्र होता है | )
यहाँ हम ग़ज़ल के मूल रूप-भावों के बाते में बात करेंगे ....
-----बात ग़ज़ल की ----
------भाग एक ----
----- गज़ल दर्दे-दिल की बात बयाँ करने का सबसे माकूल व खुशनुमां अंदाज़ है | इसका शिल्प भी अनूठा है | नज़्म रुबाइयों, छंदों, गीतों से जुदा | इसीलिये विश्व भर में जन-सामान्य में प्रचलित हुई | हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती | परन्तु हाँ, घनाक्षरी-छंद ( कवित्त ) एवं सवैया छंद का शिल्प अवश्य ग़ज़ल की ही पद्धति का शिल्प है जिसमें रदीफ़ व काफिया के ही शब्द-भाव रहते हैं और गैर-रदीफ़ ग़ज़ल के भाव भी, परन्तु मतला नहीं होता।
-------मेरे विचार से शायद कवित्त-छंद, ग़ज़ल का मूल प्रारम्भिक रूप है। उदाहरण देखिये......निम्न घनाक्षरी में “रही” रदीफ़ है एवं शरमा व हरषा...आदि काफिया हैं.....
“ गाये कोयलिया तोता मैना बतकही करें,
कोंपलें लजाईं कली कली शरमा रही।
झूमें नव पल्लव चहक रहे खग वृन्द,
आम्र बृक्ष बौर आये, ऋतु हरषा रही। “ --- डा श्याम गुप्त
----इसी प्रकार गैर-रदीफ़ ग़ज़ल का प्रारूप घनाक्षरी देखें --- जिसमें पदांत स्वयं सुजानी ...पुरानी आदि काफिया है।
“थर थर थर थर कांपें सब नारी नर,
आई फिर शीत ऋतु सखि वो सुजानी।
सिहरि सिहरि उठे जियरा पखेरू सखि,
उर मांहि उमंगाये प्रीति वो पुरानी।
बाल वृद्ध नर नारी बैठे धूप ताप रहे,
धूप भी है कुछ खोई-सोई अलसानी।
शीत की लहर तीर भांति तन वेधि रही,
मन उठे प्रीति की वो लहर अजानी।” ---डा श्याम गुप्त
------सवैया छंद के प्रारूप भी देखें----
-----बा रदीफ़ प्रारूप....
"पीने वाला यही चाहता गली गली मधुशाला हो |
हर नुक्कड़ हर मोड़ जो मिले मदिरा पीने वाला हो |
अपनी अपनी सोच सभी की मन गोरा या काला हो |
सभी चाहते उनकी दुनिया में हर ओर उजाला हो || ..." ---डा श्याम गुप्त
------गैर रदीफ़ प्रारूप देखें----
"बैन वही जो उचारे सदा वही गोविन्द नाम भजे जग सारो |
रसना वही रसधार बहाय भजे जेहि गोविन्द नाम पियारो |
भक्ति वही गज़राज करी परे दुःख: में गोविन्द काज संवारो |
श्याम वही नर गोविन्द गोविन्द गोविन्द गोविन्द नाम उचारो || -----डा श्याम गुप्त ...."
------- मैं कोई शायरी व गज़ल का विशेषज्ञ ज्ञाता नहीं हूँ | परन्तु हम लोग हिन्दी फिल्मों के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की सुविधा हेतु गज़ल व नज़्म आदि को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है-यथा…. साहिर लुधियानवी की प्रसिद्द हिन्दी ग़ज़ल...
"संसार से भागे फिरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे।
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक में भी पछताओगे। "
"हम कहते हैं ये जग अपना है तुम कहते हो झूठा सपना है
हम जन्म बिता कर जाएंगे तुम जन्म गँवाकर जाओगे।"
------छंदों व गीतों के साथ-साथ दोहा व अगीत-छंद लिखते हुए व गज़ल सुनते, पढते हुए मैंने यह अनुभव किया कि उर्दू शे’र भी संक्षिप्तता व सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे व अगीत की भांति ही है और इसका शिल्प दोहे की भांति ...अतः लिखा जा सकता है, और नज्में तो तुकांत-अतुकांत गीत के भांति ही हैं, और गज़लों–नज्मों का सिलसिला चलने लगा |
----- गज़ल मूलतः अरबी भाषा का गीति-काव्य है जो काव्यात्मक अन्त्यानुप्रास युक्त छंद है और अरबी भाषा में “कसीदा” अर्थात प्रशस्ति-गान हेतु प्रयोग होता था जो राजा-महाराजाओं के लिए गाये जाते थे एवं असहनीय लंबे-लंबे वर्णन युक्त होते थे जिनमें ..औरतों व औरतों के बारे में गुफ्तगू ...एक मूल विषय-भाग भी होता था | कसीदा के उसी भाग “ताशिब “ को पृथक करके गज़ल का रूप व नाम दिया गया |
क्रमशः--- -----बात ग़ज़ल की ----भाग दो----
----बात ग़ज़ल की ----
(भाग -एक व भाग दो --)
( -----कविता व शायरी ---- कविता, काव्य या साहित्य किसी
विशेष, कालखंड, भाषा, देश या संस्कृति से बंधित नहीं होते | मानव जब मात्र
मानव था जहां जाति, देश, वर्ण, काल, भाषा, संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं था
तब भी प्रकृति के रोमांच, भय, आशा-निराशा, सुख-दुःख आदि का अकेले में अथवा
अन्य से सम्प्रेषण- शब्दहीन इंगितों, अर्थहीन उच्चारण स्वरों में करता
होगा |
------आदिदेव शिव के डमरू से निसृत ध्वनि से बोलियाँ, अक्षर, शब्द की उत्पत्ति के साथ ही श्रुति रूप में कविता का आविर्भाव हुआ| -----देव-संस्कृति में शिव व आदिशक्ति की अभाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह की सर्वप्रथम कथा के उपरांत देव-मानव या मानव संस्कृति की, मानव इतिहास की सर्वप्रथम भाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह गाथा.... ‘उर्वशी–पुरुरवा’ ....की है |
------कहते हैं कि सुमेरु क्षेत्र, जम्बू-द्वीप, इलावर्त-खंड स्थित इन्द्रलोक या आज के उजबेकिस्तान की अप्सरा ( बसरे की हूर) उर्वशी, भरतखंड के राजा पुरुरवा पर मोहित होकर उसकी पत्नी बनी जो अपने देश से उत्तम नस्ल की भेड़ें तथा गले के लटकाने का स्थाली पात्र, वर्फीले देशों की अंगीठी –कांगड़ी- जो गले में लटकाई जाती है, लेकर आयी।
-------प्रणय-सुख भोगने के पश्चात उर्वशी …गंधर्वों अफरीदियों के साथ अपने देश चली गई और पुरूरवा उसके विरह में छाती पीटता रोता रहा, विश्व भर में उसे खोजता रहा। उसका विरह-रूदन गीत ऋग्वेद के मंत्रों में है, यहीं से संगीत, साहित्य और काव्य का प्रारम्भ हुआ।
------अर्वन देश (घोड़ों का देश) अरब तथा फारस के कवियों ने इसी की नकल में रूवाइयां लिखीं एवं तत्पश्चात ग़ज़ल आदि शायरी की विभिन्न विधाएं परवान चढी जिनमें प्रणय भावों के साथ-साथ मूलतः उत्कट विरह वेदना का निरूपण है । ------शायरी ईरान होती हुई भारत में उर्दू भाषा के माध्यम से आयी, प्रचलित हुई और सर्वग्राही भारतीय संस्कृति के स्वरूपानुसार हिन्दी ने इसे हिन्दुस्तानी-भारतीय बनाकर समाहित कर लिया| आज देवनागरी लिपि में उर्दू के साथ-साथ हिन्दुस्तानी, हिन्दी एवं अन्य सभी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में भी शायरी की जा रही है |
-------शायरी अरबी, फारसी व उर्दू जुबान की काव्य-कला है | इसमें गज़ल, नज़्म, रुबाई, कते व शे’र आदि विविध छंद व काव्य-विधाएं प्रयोग होती हैं, जिनमें गज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय हुई |
------गज़ल मूलतः शे’रों (अशार या अशआर) की मालिका होती है और प्रायः इसका प्रत्येक शे’र विषय–भाव में स्वतंत्र होता है | )
यहाँ हम ग़ज़ल के मूल रूप-भावों के बाते में बात करेंगे ....
-----बात ग़ज़ल की ----
------भाग एक ----
----- गज़ल दर्दे-दिल की बात बयाँ करने का सबसे माकूल व खुशनुमां अंदाज़ है | इसका शिल्प भी अनूठा है | नज़्म रुबाइयों, छंदों, गीतों से जुदा | इसीलिये विश्व भर में जन-सामान्य में प्रचलित हुई | हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती | परन्तु हाँ, घनाक्षरी-छंद ( कवित्त ) एवं सवैया छंद का शिल्प अवश्य ग़ज़ल की ही पद्धति का शिल्प है जिसमें रदीफ़ व काफिया के ही शब्द-भाव रहते हैं और गैर-रदीफ़ ग़ज़ल के भाव भी, परन्तु मतला नहीं होता।
-------मेरे विचार से शायद कवित्त-छंद, ग़ज़ल का मूल प्रारम्भिक रूप है। उदाहरण देखिये......निम्न घनाक्षरी में “रही” रदीफ़ है एवं शरमा व हरषा...आदि काफिया हैं.....
“ गाये कोयलिया तोता मैना बतकही करें,
कोंपलें लजाईं कली कली शरमा रही।
झूमें नव पल्लव चहक रहे खग वृन्द,
आम्र बृक्ष बौर आये, ऋतु हरषा रही। “ --- डा श्याम गुप्त
----इसी प्रकार गैर-रदीफ़ ग़ज़ल का प्रारूप घनाक्षरी देखें --- जिसमें पदांत स्वयं सुजानी ...पुरानी आदि काफिया है।
“थर थर थर थर कांपें सब नारी नर,
आई फिर शीत ऋतु सखि वो सुजानी।
सिहरि सिहरि उठे जियरा पखेरू सखि,
उर मांहि उमंगाये प्रीति वो पुरानी।
बाल वृद्ध नर नारी बैठे धूप ताप रहे,
धूप भी है कुछ खोई-सोई अलसानी।
शीत की लहर तीर भांति तन वेधि रही,
मन उठे प्रीति की वो लहर अजानी।” ---डा श्याम गुप्त
------सवैया छंद के प्रारूप भी देखें----
-----बा रदीफ़ प्रारूप....
"पीने वाला यही चाहता गली गली मधुशाला हो |
हर नुक्कड़ हर मोड़ जो मिले मदिरा पीने वाला हो |
अपनी अपनी सोच सभी की मन गोरा या काला हो |
सभी चाहते उनकी दुनिया में हर ओर उजाला हो || ..." ---डा श्याम गुप्त
------गैर रदीफ़ प्रारूप देखें----
"बैन वही जो उचारे सदा वही गोविन्द नाम भजे जग सारो |
रसना वही रसधार बहाय भजे जेहि गोविन्द नाम पियारो |
भक्ति वही गज़राज करी परे दुःख: में गोविन्द काज संवारो |
श्याम वही नर गोविन्द गोविन्द गोविन्द गोविन्द नाम उचारो || -----डा श्याम गुप्त ...."
------- मैं कोई शायरी व गज़ल का विशेषज्ञ ज्ञाता नहीं हूँ | परन्तु हम लोग हिन्दी फिल्मों के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की सुविधा हेतु गज़ल व नज़्म आदि को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है-यथा…. साहिर लुधियानवी की प्रसिद्द हिन्दी ग़ज़ल...
"संसार से भागे फिरते हो भगवान को तुम क्या पाओगे।
इस लोक को भी अपना न सके उस लोक में भी पछताओगे। "
"हम कहते हैं ये जग अपना है तुम कहते हो झूठा सपना है
हम जन्म बिता कर जाएंगे तुम जन्म गँवाकर जाओगे।"
------छंदों व गीतों के साथ-साथ दोहा व अगीत-छंद लिखते हुए व गज़ल सुनते, पढते हुए मैंने यह अनुभव किया कि उर्दू शे’र भी संक्षिप्तता व सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे व अगीत की भांति ही है और इसका शिल्प दोहे की भांति ...अतः लिखा जा सकता है, और नज्में तो तुकांत-अतुकांत गीत के भांति ही हैं, और गज़लों–नज्मों का सिलसिला चलने लगा |
----- गज़ल मूलतः अरबी भाषा का गीति-काव्य है जो काव्यात्मक अन्त्यानुप्रास युक्त छंद है और अरबी भाषा में “कसीदा” अर्थात प्रशस्ति-गान हेतु प्रयोग होता था जो राजा-महाराजाओं के लिए गाये जाते थे एवं असहनीय लंबे-लंबे वर्णन युक्त होते थे जिनमें ..औरतों व औरतों के बारे में गुफ्तगू ...एक मूल विषय-भाग भी होता था | कसीदा के उसी भाग “ताशिब “ को पृथक करके गज़ल का रूप व नाम दिया गया |
क्रमशः--- -----बात ग़ज़ल की ----भाग दो----
बात ग़ज़ल की --- आगे -भाग दो ----
------गज़ल शब्द अरबी रेगिस्तान में पाए जाने वाले एक छोटे, चंचल पशु हिरण ( या हिरणी, मृग-मृगी ) से लिया गया है जिसे अरबी में ‘ग़ज़ल’ (ghazal या guzal ) कहा जाता है | इसकी चमकदार, भोली-भाली नशीली आँखें, पतली लंबी टांगें, इधर-उधर उछल-उछल कर एक जगह न टिकने वाली, नखरीली चाल के कारण उसकी तुलना अतिशय सौंदर्य के परकीया प्रतिमान वाली स्त्री से की जाती थी जैसे हिन्दी में मृगनयनी | अरबी लोग इसका शिकार बड़े शौक से करते थे | अतः अरब-कला व प्रेम-काव्य में स्त्री-सौंदर्य, प्रेम, छलना, विरह-वियोग, दर्द का प्रतिमान ‘गज़ल’ के नाम से प्रचलित हुआ | जैसे भारतीय काव्य-गीतों में वीणा–सारंग का पीड़ात्मक-भावुक प्रसंग |
-------- शायर फिराक गोरखपुरी के अनुसार जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता हैं और हिरन भागते-भागते झाड़ी में फंस जाता है और निकल नहीं पाता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज निकलती है, उसी करूण स्वर को गजल कहते हैं. इसलिये विवशता का दिव्यतम रूप में प्रकट होना, स्वर का करूणतम हो जाना ही गजल का आदर्श है |
--------यही गज़ल का अर्थ भी ..अर्थात ‘इश्के-मजाज़ी‘ - आशिक-माशूक वार्ता या प्रेम-गीत, जिनमें मूलतः विरह-वियोग की उच्चतर अभिव्यक्ति होती है |*
---------मानव इतिहास की सर्वप्रथम प्रणय-विरह गाथा उत्तरापथ-उज्बेकिस्तान की अप्सरा उर्वशी एवं भरतखंड के नृपति पुरुरवा की है| उर्वशी के चले जाने पर पुरुरवा के विरह वेदनात्मक गीत ऋग्वेद में वर्णित हैं| यहीं से साहित्य व काव्य का प्रादुर्भाव हुआ | अरबी-फारसी कवियों ने इसी पर रुबाइयां लिखीं जो शायरी कहलाई एवं उसकी एक विशिष्ट विधा ग़ज़ल के नाम से परवान चढी |* इसीलिये ग़ज़ल में शमा-परवाना, दीपक-शलभ, गुल-बुलबुल, कलिका-भ्रमर आदि प्रसंग प्रभावी हुए |
-------- अरबी गज़ल ईरान होती हुई सारे विश्व में फ़ैली और जर्मन व इंग्लिश में काफी लोक-प्रिय हुई | यथा.. अमेरिकी अंग्रेज़ी शायर ..आगा शाहिद अली कश्मीरी की एक अंग्रेज़ी गज़ल का नमूना पेश है...
Where are you now? Who lies beneath your spell tonight ?
Whom else rapture’s road you expel tonight ?
My rivals, for your love, you have invited them all.
This is mere insult, this is no farewell to night.
------- गज़ल का मूल छंद शे’र या शेअर है | शेर वास्तव में ‘दोहा’ का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र व सटीक भाव-सम्प्रेषण हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है | आजकल उसके अतुकांत रूप-भाव छंद, मेरे द्वारा सृजित..अगीत, नव-अगीत व त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं| अरबी, तुर्की फारसी में भी इसे ‘दोहा’ ही कहा जाता है व अंग्रेज़ी में कसीदा मोनो राइम( Quesida mono rhyme)| अतः जो दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख सकता है वह शे’र भी लिख सकता है..गज़ल भी | शे’रों की मालिका ही गज़ल है | ग़ज़लों के ऐसे संग्रह को जिसमें हर हर्फ से कम से कम एक ग़ज़ल अवश्य हो दीवान कहते हैं।
------- तुकांतता के अनुसार ग़ज़लें मुअद्दस या मुकफ्फा होती है| मुअद्दस गज़ल में रदीफ और काफिया दोनों का ध्यान रखा जाता है इसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल भी कहते हैं .. यथा ....
उनसे मिले तो मीना ओ सागर लिए हुए,
हमसे मिले तो जंग का तेवर लिए हुए
लड़की किसी ग़रीब की सड़कों पे आ गई
गाली लबों पे हाथ में पत्थर लिए हुए |... - (जमील हापुडी)
एवं मुकफ्फा ग़ज़ल में केवल काफिया का ध्यान रखा जाता है इसे ग़ैर मुरद्दफ़ या गैर रदीफ़ ग़ज़ल भी कहते हैं| जैसे...
जग कुछ भी कहे दास्ताँ तो सुनायेंगे |
साथ मोहब्बत का निभाते ही जायेंगे |
खाई है कसम न जाने की मयखाने
श्याम यादों की मय पीना न भुलायेंगे | ...डा श्याम गुप्त
-------- ग़ज़ल में ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र अपने आप में पूर्ण होता है तथा शायर ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र में अलग अलग भाव को व्यक्त कर सकता है | एवं प्रत्येक शेर में एक ही मूल भाव को क्रमिक भी रख सकता है |
--------जब किसी ग़ज़ल के सभी शेर एक ही भाव को केन्द्र मान कर लिखे गए हों तो ऐसी ग़ज़ल को क्रमिक , जारी अर्थात मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं| यदि ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र अलग अलग भाव को व्यक्त करें तो ऐसी ग़ज़ल को ग़ैर -मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं|
----क्रमशः बात ग़ज़ल की ---भाग तीन------
------गज़ल शब्द अरबी रेगिस्तान में पाए जाने वाले एक छोटे, चंचल पशु हिरण ( या हिरणी, मृग-मृगी ) से लिया गया है जिसे अरबी में ‘ग़ज़ल’ (ghazal या guzal ) कहा जाता है | इसकी चमकदार, भोली-भाली नशीली आँखें, पतली लंबी टांगें, इधर-उधर उछल-उछल कर एक जगह न टिकने वाली, नखरीली चाल के कारण उसकी तुलना अतिशय सौंदर्य के परकीया प्रतिमान वाली स्त्री से की जाती थी जैसे हिन्दी में मृगनयनी | अरबी लोग इसका शिकार बड़े शौक से करते थे | अतः अरब-कला व प्रेम-काव्य में स्त्री-सौंदर्य, प्रेम, छलना, विरह-वियोग, दर्द का प्रतिमान ‘गज़ल’ के नाम से प्रचलित हुआ | जैसे भारतीय काव्य-गीतों में वीणा–सारंग का पीड़ात्मक-भावुक प्रसंग |
-------- शायर फिराक गोरखपुरी के अनुसार जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता हैं और हिरन भागते-भागते झाड़ी में फंस जाता है और निकल नहीं पाता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज निकलती है, उसी करूण स्वर को गजल कहते हैं. इसलिये विवशता का दिव्यतम रूप में प्रकट होना, स्वर का करूणतम हो जाना ही गजल का आदर्श है |
--------यही गज़ल का अर्थ भी ..अर्थात ‘इश्के-मजाज़ी‘ - आशिक-माशूक वार्ता या प्रेम-गीत, जिनमें मूलतः विरह-वियोग की उच्चतर अभिव्यक्ति होती है |*
---------मानव इतिहास की सर्वप्रथम प्रणय-विरह गाथा उत्तरापथ-उज्बेकिस्तान की अप्सरा उर्वशी एवं भरतखंड के नृपति पुरुरवा की है| उर्वशी के चले जाने पर पुरुरवा के विरह वेदनात्मक गीत ऋग्वेद में वर्णित हैं| यहीं से साहित्य व काव्य का प्रादुर्भाव हुआ | अरबी-फारसी कवियों ने इसी पर रुबाइयां लिखीं जो शायरी कहलाई एवं उसकी एक विशिष्ट विधा ग़ज़ल के नाम से परवान चढी |* इसीलिये ग़ज़ल में शमा-परवाना, दीपक-शलभ, गुल-बुलबुल, कलिका-भ्रमर आदि प्रसंग प्रभावी हुए |
-------- अरबी गज़ल ईरान होती हुई सारे विश्व में फ़ैली और जर्मन व इंग्लिश में काफी लोक-प्रिय हुई | यथा.. अमेरिकी अंग्रेज़ी शायर ..आगा शाहिद अली कश्मीरी की एक अंग्रेज़ी गज़ल का नमूना पेश है...
Where are you now? Who lies beneath your spell tonight ?
Whom else rapture’s road you expel tonight ?
My rivals, for your love, you have invited them all.
This is mere insult, this is no farewell to night.
------- गज़ल का मूल छंद शे’र या शेअर है | शेर वास्तव में ‘दोहा’ का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र व सटीक भाव-सम्प्रेषण हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है | आजकल उसके अतुकांत रूप-भाव छंद, मेरे द्वारा सृजित..अगीत, नव-अगीत व त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं| अरबी, तुर्की फारसी में भी इसे ‘दोहा’ ही कहा जाता है व अंग्रेज़ी में कसीदा मोनो राइम( Quesida mono rhyme)| अतः जो दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख सकता है वह शे’र भी लिख सकता है..गज़ल भी | शे’रों की मालिका ही गज़ल है | ग़ज़लों के ऐसे संग्रह को जिसमें हर हर्फ से कम से कम एक ग़ज़ल अवश्य हो दीवान कहते हैं।
------- तुकांतता के अनुसार ग़ज़लें मुअद्दस या मुकफ्फा होती है| मुअद्दस गज़ल में रदीफ और काफिया दोनों का ध्यान रखा जाता है इसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल भी कहते हैं .. यथा ....
उनसे मिले तो मीना ओ सागर लिए हुए,
हमसे मिले तो जंग का तेवर लिए हुए
लड़की किसी ग़रीब की सड़कों पे आ गई
गाली लबों पे हाथ में पत्थर लिए हुए |... - (जमील हापुडी)
एवं मुकफ्फा ग़ज़ल में केवल काफिया का ध्यान रखा जाता है इसे ग़ैर मुरद्दफ़ या गैर रदीफ़ ग़ज़ल भी कहते हैं| जैसे...
जग कुछ भी कहे दास्ताँ तो सुनायेंगे |
साथ मोहब्बत का निभाते ही जायेंगे |
खाई है कसम न जाने की मयखाने
श्याम यादों की मय पीना न भुलायेंगे | ...डा श्याम गुप्त
-------- ग़ज़ल में ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र अपने आप में पूर्ण होता है तथा शायर ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र में अलग अलग भाव को व्यक्त कर सकता है | एवं प्रत्येक शेर में एक ही मूल भाव को क्रमिक भी रख सकता है |
--------जब किसी ग़ज़ल के सभी शेर एक ही भाव को केन्द्र मान कर लिखे गए हों तो ऐसी ग़ज़ल को क्रमिक , जारी अर्थात मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं| यदि ग़ज़ल के प्रत्येक शे'र अलग अलग भाव को व्यक्त करें तो ऐसी ग़ज़ल को ग़ैर -मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं|
----क्रमशः बात ग़ज़ल की ---भाग तीन------
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें