....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
--------------समाप्त---बात ग़ज़ल की ---
बात ग़ज़ल की -----भाग चार ( अंतिम क़िस्त )----
----------त्रिलोचन, शमशेर, बलबीर सिंह ‘रंग’ ने भी हिन्दी ग़ज़लों को आयाम दिए | परन्तु आधुनिक खड़ी बोली में हिन्दी-गज़ल के प्रारम्भ का श्रेय दुष्यंत कुमार को दिया जाता है जिन्होंने हिन्दी भाषा में गज़लें लिख कर गज़ल के विषय भावों को राजनैतिक, संवेदना, व्यवस्था, सामाजिक चेतना आदि के नए नए आयाम दिए |... दुष्यंत कुमार की एक गज़ल देखिये....
"" कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए । """
---------इस प्रकार फारसी ग़ज़ल, फारसी से हिन्दवी, दक्खिनी हिन्दी में आई तत्पश्चात उर्दू में आई एवं पुनः उर्दू से हिन्दी व हिन्दी की समस्त बोलियों के साथ खड़ी बोली एवं सभी भारतीय देशज भाषाओं में प्रचलित हुई |
-------- वस्तुतः हिन्दी भाषा ने अपने उदारचेता स्वभाववश उर्दू-फारसी के तमाम शब्दों को भी अपने में समाहित किया, अतः आज के अद्यतन समय में हिन्दी कवियों ने भी ग़ज़ल को अपनाया व समृद्ध किया है|
------हिन्दी गजल के पास अपनी विराट शब्द-संपदा है, मिथक हैं, मुहावरे, बिम्ब, प्रतीक, व रदीफ-काफिये हैं। आज हिन्दी-गजल में पारम्परिक गजल की काव्य-रूढ़ियों से मुक्त होने का प्रयास है तथा नए शिल्प और विषय के उत्तरोत्तर विकास का भी|
----फलस्वरूप आज गज़ल व हिन्दी-गज़ल में विषयों व ग़ज़लकारों का एक विराट रचना संसार है जो प्रकाशित पुस्तकों, पत्रिकाओं, रचनाओं एवं अंतर्जाल( इंटरनेट) पर प्रकाशन द्वारा समस्त विश्व में फैला हुआ है तथा जो उर्दू गज़ल, हिन्दी ग़ज़ल, शुद्ध खड़ी-बोली, हिन्दी एवं हिन्दी की सह-बोलियों के शुद्ध व मिश्रित रूपों से समस्त शायरी-विधा व ग़ज़ल को समर्थ व समृद्ध कर रहे है तथा दिन ब दिन ग़ज़ल में गीतिका, नई ग़ज़ल, त्रिपदा-अगीत ग़ज़ल आदि नाम से नए-नए प्रयोग भी होरहे हैं|
---------मेरे विचार से हिन्दी ग़ज़ल के लिए एक जरूरी बात यह है कि हिन्दी व्याकरण की परिधि में शब्दों का विभाजन हो और मात्रा की गणना भी, ताकि ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य में तारतम्य रह सके |
-----उर्दू ज़बान का हिन्दी गज़ल पर हावी होना उसके स्वरूप के निखार में बाधक है। हिन्दी की अनेक गज़लें तो लगती हैं जैसे वे उर्दू की हैं उनमें हिन्दी की वह अपनी सोंधी-सोंधी सुगंध है ही नहीं एवं वह अरबी-फारसी के लफ्जों से दब कर रह गई है। हिन्दी की एक शुद्ध ग़ज़ल का हिस्सा देखिये...
छटा का कौन आकर्षण तिमिर में खींच लाया है
क्षितिज से व्योम में कोइ तरल तारा निकलता है | ...त्रिलोचन शास्त्री
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साहित्य सत्यं शिवं सुन्दर भाव होना चाहिए ,
साहित्य शुचि शुभ ज्ञान पारावार होना चाहिए |
ललित भाषा ललित कथ्य न सत्य तथ्य परे रहे ,
व्याकरण शुचि शुद्ध सौख्य समर्थ होना चाहिए |.. ...डा श्याम गुप्त
-------- यदि हिन्दुस्तानी भाषा के अनुरूप हिन्दी में घुलमिल गए उर्दू के लफ्ज़ों का इस्तेमाल हो जो सहज ही आजायें तो सौन्दर्य, प्रभाव व सम्प्रेषण की स्पष्टता बढ़ सकती है | यथा एक ग़ज़ल देखें ....
वो हारते ही कब हें जो सजदे में झुक लिए
यूं फख्र से जियो यूंही चलती रहे ये ज़िंदगी | ---डा श्याम गुप्त
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----------- चूँकि गज़ल मूलतः उर्दू से हिन्दी में आई है इसलिए यह मान लेना कि उसमें उर्दू के कुछ लफ्ज़ अवश्य हों उचित नहीं। अतः मेरे विचार में फ़ारसी, और उर्दू के क्लिष्ट शब्दों से परहेज़ करना ही उचित है | उदाहरणार्थ ऐसे उर्दू /फारसी शब्दों के प्रयोग का क्या लाभ जिसे हिन्दी वाले तो क्या उर्दू भाषी भी न समझ पायें.---..उदाहरणार्थ......
तहज़ीबो तमद्दुन है फ़कत नाम के लिए
गुम हो गई शाइस्तगी दुनिया की भीड़ में ---- कुँवर कुसुमेश
------------आजकल देखा जा रहा है कि हिन्दी ग़ज़ल में उर्दू शब्दों व व्याकरण का दबदवा बढाने व कायम रखने के प्रयास किये जारहे हैं, तर्क उस्ताद-परम्परा, ग़ज़ल-ज्ञान, उर्दू-परम्परा आदि के दिए जारहे हैं|
------वास्तव में आज के कुछ कवि शायर जिनका भाषा व वैयाकरण ज्ञान अल्प है, विषय आदि पर अपना कुछ मौलिक ज्ञान भी नहीं है उर्दू उस्तादों का तौर-तरीका व उन्हीं की नक़ल की लीक पर चलकर आगे बढ़ना चाहते हैं|
-----यह हिन्दी ग़ज़ल के लिए एवं स्वयं ग़ज़ल के विकास व निखार में बाधक है अतः हिन्दी ग़ज़ल के पैरोकार उर्दू-फारसी ग़ज़ल या उस्तादी परम्परा, या उर्दू भाषा व शब्दों आदि को अधिक तवज्जो न देकर आचार्य भामह के स्व-अनुभव के कथ्यांकन पर चलते हुए आगे बढ़ रहे हैं|
-----आखिर हिन्दी ग़ज़ल क्यों उर्दू के नियम कायदों पर ही चले | हिन्दी की अपनी स्वयं की मर्यादा है, मिजाज़ है, नीति-नियम है, विशिष्टता है, गति है, कला व भाव का अपना स्वरुप अर्थवत्ता व प्रभामंडल है |
------तुलसी ने जब संस्कृत की बजाय भाखा ( हिन्दी ) में रामचरित मानस रची तब भी काशी के पंडितों ने तमाम सवाल उठाये थे |
----------- शायर ज़हीर कुरैशी (डा आज़म की पुस्तक --आसान अरूज़ की समीक्षा में) का विचार है कि बुनियादी कायदे क़ानून आवश्यक हैं, आवश्यक नहीं आप अरूज़ के माहिर बन जाएँ | इल्मे अरूज़ अर्थात शेर की बाहरी संरचना का महत्त्व सिर्फ २५% है तथा शेरो की आतंरिक संरचना का ७५%..जिसमें शायर के कथ्यांकन, भाव, विचार, विषय, संवेदना, कल्पनाशीलता, ज्ञान आदि रहते हैं|
----------- नचिकेता का मानना है कि "हिन्दी ग़ज़ल, उर्दू ग़ज़लों की तरह न तो असंबद्ध कविता है और न इसका मुख्य स्वर पलायनवादी ही है, इसका मिजाज समर्पणवादी भी नही है !"
-------------- फैज़ अहमद फैज़ ने तो इतना तक कह डाला है कि "ग़ज़ल को अब हिन्दी वाले ही ज़िंदा रखेंगे, उर्दू वालों ने तो इसका गला घोंट दिया है !"
-------------- जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरी—गज़लें व नज्में आदि सुनी-पढीं व देखीं विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया कि बहरों-नियमों आदि के पीछे भागना व्यर्थ है, बस लय व गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी, जो कभी मुरद्दस गज़ल होगी या मुसल्सल या हम रदीफ, कभी मुकद्दस गज़ल होगी या कभी मुकफ्फा गज़ल, कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल |
------ हाँ लय गति यति युक्त गेयता व भाव-सम्प्रेषणयुक्तता तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान व कथ्य-शक्ति होना चाहिए |
-----यह बात गणबद्ध छंदों के लिए भी सच है | जैसा कि स्वयं भामह ने दूसरों की रचना, देखकर-पढ़कर, काव्यज्ञान की उपासना करते हुए काव्य-निर्माण में प्रवृत्त होने का भी विधान किया है| ... तो कुछ शे’र आदि जेहन में यूं चले आये.....
“मतला बगैर हो गज़ल, हो रदीफ भी नहीं,
यह तो गज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |
लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंद रस बहे,
वह भी गज़ल है, चाहे कोई काफिया नहीं | “ -डा श्याम गुप्त
--------------समाप्त---बात ग़ज़ल की ---
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