....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
पुस्तक -ईशोपनिषद का काव्य भावानुवाद ---डा श्याम गुप्त -----
पुस्तक -ईशोपनिषद का काव्य भावानुवाद ---डा श्याम गुप्त -----
ईशोपनिषद के द्वितीय मन्त्र ....
'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समा |
एवंत्वयि नान्यथेतो S
स्ति न कर्म लिप्यते
नरे ||'
के द्वितीय भाग...'एवंत्वयि नान्यथेतो Sस्ति न कर्म लिप्यते नरे ||' का काव्य-भावानुवाद ....
कुंजिका –...नान्यथेतो =इससे अन्य मार्ग...नास्ति= नहीं है... एवं
=इसप्रकार, त्वयि= तुझ...नरे = मनुष्य में ....न कर्म लिप्यते = कर्म लिप्त नहीं
होता..|
मूलार्थ - उपरोक्त प्रकार से सत्कर्म करते हुए जीने की इच्छा से
मनुष्य कर्म में लिप्त नहीं होता, विकारग्रस्त नहीं होता| इससे अन्य मानव-कल्याण
का कोइ मार्ग नहीं है, यही कल्याणकारी जीवन जीने का समुचित उपक्रम है |
सदकर्मों की इच्छा
ले यदि ,
मानव, सेवा-धर्म निभाये |
जीवन अल्प हो चाहे
जितना ,
शत शत शरद का जीवन
पाए |
इसी भावयुत कर्म
किये जा ,
यही एक बस उचित
पंथ है |
अन्य न जीवन राह
है कोई ,
यह जीवन का सत्य
मन्त्र है |
कन्टकीर्ण है राह
कर्म की,
पग पग पर बाधाएं
मग में |
जाने कितने
तृष्णा-लालच ,
के पल आते हैं इस
पथ में |
कर्म लिपट ही पाते
हैं कब,
उससे जो त्यागी
अलिप्त है|
लिप्सा तृष्णा उसे
बांधती,
अपकर्मों में नर
जो लिप्त है |
कर्म भाव के सत्य
मार्ग पर,
चलता दृड़ता से जो
कोई |
लिप्त न होता उसे
न होती ,
कर्मों में आसक्ति
न कोई |
लिप्सा लालच
स्वार्थ भावना,
नहीं लिपट पाती तन
मन से |
ईश्वर प्राप्ति, मोक्ष क्या होगी,
सुन्दर उस पावन
जीवन से ||
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